शनिवार, 27 दिसंबर 2014

कृपया मेरी मदद करें : Please Help me



परआदरणीय महोदय/महोदया,
सादर-प्रणाम!

मेरा शोध-कार्य संचार और मनोभाषाविज्ञान के अंतःसम्बन्ध पर है। मैं युवा राजनीतिज्ञों के संचारक-छवि और लोकवृत्त के अन्तर्गत उनके व्यक्तित्व, व्यवहार, नेतृत्व, निर्णय-क्षमता, जन-लोकप्रियता इत्यादि को केन्द्र में रखकर अनुसन्धान-कार्य में संलग्न हूं। मैंने अपने व्यक्तिगत प्रयास से अपने शोध-विषय के लिए हरसंभव जानकारी जुटाने की कोशिश की है। जैसे मनोविज्ञान के क्षेत्र में सैकड़ों मनोविज्ञानियों, मनोभाषाविज्ञानियों, संचारविज्ञानियों, समाजविज्ञानियों, राजनीतिविज्ञानियों, नृविज्ञानियों आदि को अपनी जरूरत के हिसाब से टटोला है, जानने-समझने की कोशिश की है। लेकिन भारतीय सन्दर्भों में ऐसे अन्तरराष्ट्रीय जानकारों-विशेषज्ञों का मेरे पास भारी टोटा है। अर्थात जितनी आसनी से हम कैसिरर और आई. ए. रिचर्डस का नाम ले लेते हैं; फूको, देरिदा, एडवर्ड सईद, ज्यां पाॅल सात्र्र को अपनी बोली-बात में शामिल कर लेते हैं वैसे हिन्दुस्तानी ज्ञानावलम्बियों(जिनका काम उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी में उल्लेखनीय रहा है और जिन्हें भारतीय अकादमिक अनुशासनों में विषय-विशेषज्ञ होने का विशेषाधिकार प्राप्त है) की हिन्दीपट्टी में खोज बहुत मुश्किल है। ऐसे में मुझ पर यह आरोप आसानी से आपलोग मढ़ सकते हैं कि मेरी निर्भरता मनोविज्ञान को समझने के लिए फ्रायड, एडलर, युंग, नाॅम चाॅमस्की पर अधिक है; भारतीय जानकारों-विशेषज्ञों पर कम। इसी तरह अन्य विषय अथवा सन्दर्भों में भी आपलोग यही बात पूरी सख्ती से दुहरा सकते हैं। अतः अपने शोध-कार्य की वस्तुनिष्ठता प्रभावित न हो इसलिए मैं आपको अपने शोध-कार्य में एक सच्चे शुभचिंतक के रूप में शामिल कर रहा हूं। आप के सहयोग पर हमारी नज़र है। कृपया आप मेरी मदद करें और सम्बन्धित जानकारी निम्न पते पर प्रेषित करें: rajeev5march@gmail.com या फिर डाक से उपलब्ध करायें: राजीव रंजन प्रसाद; हिन्दी विभाग; काशी हिन्दू विश्वविद्यालय; वाराणसी-221005

आप मेरे कार्य-क्षेत्र के दायरे में इज़ाफा कर सकें इसी प्रत्याशा में;
सादर,


भवदीय
राजीव रंजन प्रसाद


मंगलवार, 11 नवंबर 2014

पासआॅउट कैरेक्टर : अब तक जो जिया

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उस बड़े से हाॅल में कई मानिंद लोग बैठे हैं। मैं प्रतीक्षारत हूँ। यह अख़बार का दफ़्तर है। मुझे किसी कबूतरखाने से कम नहीं लग रहा है। पता नहीं कैसे इस माहौल में जीते-खाते हुए लोग जन-सरोकार की पींगे भरते हैं, सामाजिक दृष्टिकोण से पगे हुए वैचारिक लेख लिखते हैं....? ओह! मैं इसी उधेड़बुन के साथ दो बार कैंटीन का चाय गटक गया हूँ। अब तीसरे का इरादा नहीं है। ये डोरी टंगी चायपति वाली चाय देते हैं। हाथ लगी चाय को डोरी के सहारे ऊपर-नीचे करना अजीबोगरीब लगता है। लेकिन, कम्बख़त तलब ही ऐसी है कि ज़ल्लाद वाली भूमिका का भी निवर्हन करना पड़ता है। आजकल शहर में सबकुछ बदले हुए ‘पैटर्न’ और ‘मैनर’ का है। शौचालय तक अपने तरीके का नहीं है। किसी तरह निपटना ही पड़ता है। यह ‘माॅडलाइजेशन’ या कहें ‘माॅडर्नाइजेशन’ देशी मिज़ाज के लोगों को काफी भारी पड़ता है। खैर! पिछले तीन दिन से अपने दोस्त के यहाँ रूका हूँ। वह एक नामचीन अख़बार के वेब-संस्करण में है। कल वह नाइट-शिफ़्ट में देर रात लौटा था। उसके साथ उसकी महिला-मित्र थी। दोस्त ने परिचय कराया, तो उस लड़की ने बड़े लहज़े में ‘हाय!’ कहा था; फिर दोनों कुदक कर एक ही बिस्तर में सो गए। मैं चकित नहीं था; ये आधुनिक पत्रकारिता के भविष्य थे। पुराने ‘टाइप-फेस’ और ‘ले-आउट’ की जगह नए ढंग के डमी-निर्माण में दक्ष/प्रवीण वेबजाॅनी पत्रकार। इनकी दुनिया में ‘सेक्स’ एक शारीरिक जरूरत है जिसके लिए आपसी ‘अण्डरस्टैण्डिग’ होना जरूरी है और काफी भी।

उसी वक्त मुझे युवती रिसेप्सनिस्ट ने नजदीक बुलाया था।

‘‘सर! आप अन्दर जा सकते हैं...,’’ उसकी आवाज़ में खनक भरी मुसकान भी घुली थी।

‘‘याऽ! कम एण्ड सिट डाउन प्लीज!’’ कार्यकारी सम्पादक ने मेरी आवभगत करते हुए कहा था। मुझे अच्छा लगा।

अगली दो पंक्तियों में मैंने अपना परिचय दिया और साथ लाया पोर्टफोलियो आगे कर दिया। अलग से रेज़्यूमे भी उनकी ओर सरका दिया था। अन्दरखाने का माहौल टीप-टाॅप था। सुडौल और नक्काशीदार मेहराबों के साथ बना हुआ एक आधुनिक कमरा, सुसज्जित कक्ष। खिड़कियों में अलग-अलग किन्तु लम्बे-लम्बे कपड़ानुमा टुकड़े लटके थे। कई डोरियाँ भी आस-पास लगी हुई थीं। खिड़की के टुकड़े पोस्टआॅफिस के स्पीडपोस्ट काउंटर के प्रिंटर में लगने वाले कागज की चैड़ाई वाले नाप के थें। कमरे की ढेरों खासियत मैंने पढ़ ली थी। लेकिन, मैं मौन था। इस वक्त जिस शख़्स को बोलना था; मैं उसकी ओर टकटकी लगाए देख रहा था। इतने बड़े अख़बार के नामचीन सम्पादक से मैं रू-ब-रू था; इनके ‘बोल बच्चन’ पर मेरा भविष्य टीका था। 34 साल की उम्र में नौकरी की तलाश कितनी तक़लीफ़देह होती है, यह मेरे आँख में तैर रहा था। वह अनमने भाव से मेरा पोर्टफोलियो पलट रहे थे। मैंने जानबूझकर उस जगह पर अपनी निग़ाह टीका दी थी; लिखा था-‘अमेरिकी इरादों का डीएनए टेस्ट जरूरी’(राजीव रंजन प्रसाद); जबकि इस घड़ी मेरा डीएनए टेस्ट हो रहा था। मुझे उनके भाव पड़ते देर नहीं लगे। उनकी मनोभाषिकी का जो रुख मेरे समझ में आया; वह मज़मून कुछ खास नहीं था।

‘‘आपका रेज़्यूमे रख लेता हूँ, आपको इस बाबत मेल मिल जाएगी। और गुरुजी आपके कैसे हैं? स्वस्थ हैं न! उन्होंने आपके बारे में मुझसे आपकी तारीफ़ की थी; देखिए, मैं आपके बारे में क्या कर सकता हूँ? ओ.के. नाइस डे’’
......................

सम्पादक महोदय के केबिन से निकलते ही देखा, तो मेहरारू ने ताबड़तोड़ 4 काॅल कर डाले थे। मैं उसका नम्बर देखते ही भीतर से सहम गया था। लेकिन हिम्मत कर फोन उठाया और हैलो कहने के बाद समझाने के लहजे में बेलागलपेट कहा था-‘‘क्या हुआ का क्या मतलब! आज भी तो मिला ही हूँ; हर कोई आश्वासन दे रहा है। देखो यार! काम की तलाश में कुछ वक्त तो लगेंगे ही। बच्चों का ख्याल रखना। अबकी बार आता हूँ तो बच्चों का फीस एडवांस में ही तीन महीने का जमा कर दूँगा। मकान किराये का भी कुछ ऐसा ही इंतजाम कर दूँगा। सारी किचपिच दूर हो जाएगी। सुनो, टेंशन मत लो तुम!’’

दरअसल, रिसर्च के दौरान ही मैं अपने पूरे परिवार को बनारस ले आया था। यूजीसी की जेआरएफ-एसआरएफ थी, तो मौज से चली सब ठीक-ठाक। दीपू के कान के इलाज़ में जो खर्च हुआ था; उसे भी मैं बिना किसी दिक्कतदारी का वहन कर ले गया था, तो इसी वजह से कि स्काॅलरशीप मिल रही थी। मैंने कई मित्रों की मदद की थी; आज कई असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। लेकिन वे मेरे लिए कर भी क्या सकते हैं। उनकी अपनी दुनिया है की नहीं-फ्लैट, कार, घर के साज़ो-सामान आदि-आदि। 

कई मर्तबा सोचता हूँ। मेरा नाम डाॅ. राजीव रंजन प्रसाद हो जाना एक गाली है। इससे अच्छा है कि कोई मुझे राजू कहे, रजीबा कहे। ये डाॅक्टरी उपसर्ग बिलावज़ह टंग गया था। नाम में डिग्रियों की नक्काशी करने से आमदनी नहीं होती है; इतना तो मैं उस वक्त भी जानता था और इस वक्त भी जान रहा हूँ। काशी हिन्दू विश्वविद्यालये के जिस शोध-प्रबन्ध को तैयार करने में मैंने अपने जीवन का सारा सुख-चैन दाँव पर लगा दिया था; आज वे धूल के हवाले हैं। कई अकादमिक इंटरव्यू दिए, सब एक ही बात  दुहराते हैं-‘‘मेकअप इन इंग्लिश प्लीज!’ मैं अपना-सा मुँह ले कर रह जाता था।......

शनिवार, 8 नवंबर 2014

Indian Youth : Reflection of Actual Meaning, Perception and Expression

Y for Yew
O for Outvote
U for Unite
T for Trait
H for Helpfull
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Paper presented by
 Rajeev Ranjan Prasad
Senior Research Fellow(Mass Communication & Journalism)
Functional Hindi, Dept. of Hindi
Banaras Hindu University
Varanasi-221 005
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Contact : rajeev5march@gmail.com 
 
नोट: हमारे काम का तरीका इस बात पर निर्भर करता है कि हमें आगे बढ़ने का हौसला कौन दे रहा है, हिम्मत कौन बंधा रहा है और हमसे अपनी उम्मीद कौन बांध रहा है....अफसोस! हमारे मौजूदा अकादमिक जगत में इतना बेहायापन है कि आपको सिवाय रुसवाई के कुछ भी नसीब नहीं। हमारे काम तक को कौड़ियों के भाव लगाते हैं, क्योंकि हम अपनी हिन्दी भाषा में अपने होने का राग छेड़ते हैं, औरों को सीधी चुनौती देते हैं।
आपसब भी बहस-मुबाहिसे के लिए सादर आमंत्रित हैं!-राजीव रंजन प्रसाद

Political Mythology about Indian Youth : पूरा झूठ, पूरा फ़साना

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Paper presented by
 Rajeev Ranjan Prasad
Senior Research Fellow(Mass Communication & Journalism)
Functional Hindi, Dept. of Hindi
Banaras Hindu University
Varanasi-221 005
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Contact : rajeev5march@gmail.com

Permutations-Combinations of Indian Youth : Inner Base and Core Structure of 21st Centuary Life-Span

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Paper presented by
 Rajeev Ranjan Prasad
Senior Research Fellow(Mass Communication & Journalism)
Functional Hindi, Dept. of Hindi
Banaras Hindu University
Varanasi-221 005
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Contact : rajeev5march@gmail.com

गुरुवार, 6 नवंबर 2014

सुनो-सुनो प्रधानमंत्री सुनो

काशी से राजीव रंजन प्रसाद
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‘‘.....धरती को बौनों की नहीं
ऊँचे कद के इंसानों की जरूरत है

किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं
कि पांव तले दूब ही न जमे
कोई कांटा न चुभे, कोई कली न खिले

न बसंत हो, न पतझड़
हो सिर्फ ऊँचाई का अंधड़
मात्र अकेलेपन का सन्नाटा

मेरे प्रभु
मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना
गैरों को गला लगा न सकूं
इतनी रुखाई कभी मत देना।’’

मोदी जी प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से उस रोज एकदम सुबह मिले, जिस रोज उन्हें भावी प्रधानमंत्री के रूप में शपथ लेना था। 26 मई की संध्या मनमोहक थी; मनमोहन सरकार की विदाई के बाद जो सरकार सत्ता में काबिज़ होने जा रही थी; उसका आगाज़ सम्मोहक था। टेलीविज़न सुबह से सुरियाए हुए थे। हर तरफ मोदी। हर बात में मोदी। मोदी को ख़बरिया चैनल वालों ने क्षण अथवा पल के इतने टुकड़ों में बाँट दिया था कि कई मर्तबा ऊबकाई/मितली आ रही थी। प्रशंसा और तारीफ से परहेज़-गुरेज़ नहीं की जानी चाहिए; लेकिन उसमें अतिरेक हो या अटपटापन हो; शाब्दिक लफ्फ़ाजी और भड़ैतीपन हो, तो वह आपको निश्चित ही खिजा देती है। उस रोज गोरखधाम एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त हो गई थी। दर्जनों काल-कलवित हो गए थे। सैकड़ों घायल। लेकिन मीडिया मोदीनामी गाने में इस कदर मशगूल थे, मानों वे यह साबित करना चाहते थे कि कौन किससे कितना बड़ा भाट या चारण है। ज़मीन के पत्रकार आजकल मीडिया में नहीं हैं और जो हैं वे किस मिट्टी के बने हैं; जनता को सबकुछ समझ में आ रहा था।

उस रोज मैं विनती कर रहा था। मेरे मुँह से अटल बिहारी वाजपेयी की लिखी हुई उपर्युक्त पंक्तियाँ स्फूट हो रही थीं। मुझे लग रहा था कि देश को पहली बार कोई ज़बानदार नेतृत्व मिला है; हे मेरे  ईश्वर! इस व्यक्ति को सुबुद्धि देना कि यह जनता की सोचे, ज़मीन की सोचें और ज़माने के साथ अपने मजबूत पांव को दुनिया में टिकाने का हरसंभव अवसर तलाशे। मुझ जैसे साधारण लोग जिसे मताधिकार प्राप्त है; किन्तु अपनी बात सीधे देश के मुखिया तक नहीं पहुँचा सकते हैं; अपनी पीड़ा, तकलीफ़ या औरों के लिए सोचे जाने वाले विचारों को साझा नहीं कर सकते हैं; उनके लिए मौन-याचना रामबाण है। मोदी जी ने कुछ दिनों के अन्दर ही अपनी मंशा जतानी शुरू कर दी-‘अपनी बात सीधे प्रधानमंत्री से साझा करें।’ यह डिजीटल इंडिया के प्रस्तावक द्वारा प्रत्येक भारतीयों को दिया जाने वाला एक बड़ा मौका था। लेकिन मोदी जी देश की एक बड़ी आबादी ऐसी भी है जो अपनी जान दे देती है लेकिन अपनी दुःखों की डफली नहीं बजाती; वह जंतर-मंतर पर धरना प्रदर्शन नहीं करती। वह जानती है कि आंख-दीदा वाली सरकार देर-सबेर जब आएगी; उनका दुख जरूर हर लेगी। बिना कुछ कहे, बिना कुछ मांगे।

प्रधानमंत्री ‘मेक इन इंडिया’, ‘डिजीटल इंडिया’, ‘रन फाॅर यूनिटी’, ‘स्वच्छ भारत’, ‘जन-धन योजना’, ‘सांसद ग्राम गोद योजना’ आदि मसलों पर गंभीरता से विचार कर रहे हैं। लेकिन इन विचारों  का लाभ कितना विकेन्द्रीकृत है; इस पर प्रमुखता से विचार किया जाना चाहिए। यह भारत उभरते हुए मध्यवर्ग का सिर्फ नहीं है। यह भारत उन पूँजीपतियों का ही सिर्फ नहीं है जो समाज-सेवा की सार्वजनिक छवि के समानांतर अनगिनत ऐसे काम करते हैं जिसे सही मायने में ‘करतूत’ की संज्ञा दी जानी चाहिए। लेकिन बोलेगा कौन? ख्यातनाम साहित्यकार-कवि शमशेर बहादुर सिंह कम हैं जो यह कह सकें-‘प्राण का है मृत्यु से कुछ मोल-सा; सत्य की है एक बोली, एक बात।’

नरेन्द्र मोदी अब भाजपा के चेहरे नहीं रहे। वे अब भारत का भविष्य गढ़ने वाले निर्माता हैं। उन्हें अपनी वैयक्तिकता से ऊपर उठना होगा। टेलीविज़न और नवमाध्यमों की चालाकियों के बिसात पर ‘फ्लैट’ होने की जगह उन्हें अपनी आन्तरिक शक्ति, साहस और संकल्पनिष्ठा के द्वारा सवा अरब की आबादी वाले इस मुल्क को आश्वस्त करना होगा कि वे भारत के सच्चे कुम्हार हैं; एक ऐसा सर्जक जो अपने गढ़े पात्र में इतनी पात्रता पैदा कर देने की अकूत क्षमता रखता है कि-‘औरन को शीतल करें....आपहूं शीतल होय’।
.......

पी.एम. आज काशी विराजै

कार्यक्रम आज: 07/11/2014
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प्रधनमंत्री नामचीन नहीं हैं। कहा जाता है कि वे काम को वरीयता देते हैं और काम करने वाले को अहमियत। काशी में उनका ‘परफार्मेंस’ कैसा रहा है; यह उनके आगमन की अगुवाई में काशी द्वारा दी गई प्रतिक्रियाओं से ही जाना जा सकेगा।

 यह तय है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का ‘प्रधानमंत्री के रूप में’ काशी का यह पहला दौरा है। देव-दीपावली के बिहान ही वे इस पावन-पवित्र नगरी में पहुंच रहे हैं। उन्हें यहां पर गंगा नदी का 'हाल-ए-हक़ीकत' देखना है। यह जानना है कि उनके कार्यकत्र्ता और मातहत लोग बनारस को जापान के ‘क्योटो शहर’ से मुकाबला कराने में कैसे और कितने जी-जान से जुटे हैं?  ‘एक गांव हर सांसद की गोद में’ योजना के अन्तर्गत उन्होंने जिस गांव को चुना है; वह रातों-रात बदल रहा है, तो क्यों नहीं दूसरे गांवों का इसी तरह कायाकल्प हो सकता है? इच्छााशक्ति, संकल्प, निष्ठा, समर्पण, ईमानदारी, प्रतिबद्धता, निष्पक्षता आदि शब्द राजनीतिक कार्यों में एक उत्साही और उमंगदार शुरुआत के बाद क्योंकर निरर्थक हो जाते हैं? इन सारे तथ्यों और जानकारियों से प्रधानमंत्री को रू-ब-रू होना होंगा।

बीते महीनों में अपने काशी केन्द्रित जनसम्पर्क-कार्यालयों के किए-धराए को भी उन्हें जांचना-परखना होगा। यह जनता भी जानती है और स्वयं प्रधानमंत्री भी जानते हैं कि प्रायोजित नारों के उद्गार और ‘मोदी-मोदी’ के शोर से जनता का भला नहीं होने वाला है या कि उनकी सामाजिक प्रतिबद्धता और राजनीतिक कौशल, नेतृत्व और निर्णय-क्षमता साबित नहीं होने वाली है। चलिए, आज हम भी उनके साथ दो-कदम चलते हुए उनकी कर गुजरने की तबीयत को नजदीक से देखें!

हत्या के विरुद्ध आत्महत्या

:: भारत में सत्यानाशी विकास में अविनाशी पूंजीवाद का बढ़ता महाप्रकोप यदि दिखाई नहीं देती, तो समझिए हमारी चेतना का सामूहिक वध होना तय है! ::
हमारी मौत को
आत्महत्या माना जाएगा
क्योंकि हम सामूहिक वध अथवा सरकारी हत्त्याओं के खिलाफ लामबंद होना चाहते हैं
अपने लिए रोटी, कपड़ा और मकान चाहते हैं
हम अपनी ज़मीन के साथ
अपनी हवा-बतास के साथ
नल-कल-कुओं के साथ
ताल-पोखर और नदियों के पूजन-पाठ के साथ
समूह में और निर्भीक जीना चाहते हैं!

सोमवार, 3 नवंबर 2014

'Cast Censorship' promoted as a UNIQUENESS of Indian Democracy : Rajeev Ranjan Prasad

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'caste censorship' is exist in Indian democracy  with much powerfully and majority. I have proposed it on the basis of research and collecting materials/samples. This is use as uniqueness and specialty of Indian Social-Culture. It's governed by social hierarchy. Attention please, it has no part of social freedom, it is no part of similarity. In real meaning it is part of heterogeneous tradition.   

सोचिए, क्या आपके बच्चे सलामत बचे रहेंगे!


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एक स्कूल जाती बच्ची को ‘सेक्स आइटम’ की तरह ट्रीट किया जाता है। हम-आप-सबलोग खामोश बने रहते हैं। सबको अपनी खामोशी पर गाढ़ा विश्वास है। सबलोग अच्छे दिन के इंतजार में हैं।.....

मोदी जी को सरदार फिर पटेल बनाया जाना!

2014

 कल मोदी जी रेडियो पर दिल से बोले। देसी सीमा में ज़िन्दा मानुषों ने उन्हें सुना और सराहा भी खूब। मोदी बोलते वक्त ज़बानी टोन में एकदम विनीत हो जाते हैं। यह बड़ी खासियत है जो पहले के वक्तृतापूर्ण राजनीतिज्ञों के बोली-बात  एवं कहनशैली से इन्हें भिन्न साबित करती है और अपेक्षाकृत अधिक नजदिकीयात भी महसूस कराती है। संचार का मुख्य उद्देश्य भी यही है। हमारे द्वारा भेजे गए ‘अर्थपूर्ण संदेशों’ का प्रभाव दूसरे लोगों पर होना चाहिए, वे कुछ प्रतिक्रिया दें, उनमें कुछ बदलाव आए, उनके और हमारे बीच एक साझेदारी या समझ बने; यह आवश्यक है। संचारविज्ञानियों एवं मनोभाषाविज्ञानियों ने भी इन्हें ‘पर्सन विद डिफरेंस’ के साथ वर्तमान राजनीति में नोटिस लिया है। उनकी दृष्टि में नरेन्द्र मोदी की स्नायु-शक्ति बहुत मजबूत है जो कि आन्तरिक स्नायु-मंडल द्वारा संचालित-अभिप्रेरित है। स्नायु-मंडल के अन्तर्गत आते हैं: 1) उत्तरदायित्व, 2) समयनिष्ठा, 3) सांवेगिक स्थिरता, 4) आत्मविश्वास और 5) अहम्-शक्ति। दरअसल, जनता के सामने बोलना जितना आसान है; उसके मिज़ाज को भांपना बिल्कुल कठिन।

दिनोंदिन नरेन्द्र मोदी की बढ़ती लोकप्रियता उनके व्यक्तित्व-व्यवहार का साधारण ब्याज है। इसे काॅरपोरेट प्रचार-प्रबंधकों के झांसे में पड़ चक्रवृद्धि ब्याज नहीं समझना चाहिए। यदि वे इस लोप्रियता को जन-उगाही का जरिया समझने की भूल किए, तो अधिक संभव है कि उन्हें धर्मगुरु और धर्म-प्रचारक भी नहीं माफ करेंगे। ईष्र्या(कई बार यह प्रशंसातिरेक के मुलम्मे में जाहिर-प्रदर्शित होती है) बड़ी बलवती चीज है; और मोदी के इर्द-गिर्द इसका जबर्दस्त गुब्बार-अंबार जमा होता दिख रह है। भाजपा में कुछ नहीं है। पार्टी में आया ये सारा चमक मि. प्राइम मिनिस्टर की निष्ठा, उनके बेलागपन और जन-संवाद को सबसे अधिक प्राथमिकता देने का सुफल है। इसे कृपया नकदी हस्तांतरण का विषयवस्तु नहीं समझा जाना चाहिए।

कहना न होगा कि नरेन्द्र मोदी को लेकर बौद्धिक-कहकहे खूब हैं, लेकिन स्पष्ट, पारदर्शी और वैकल्पिक अंतःदृष्टि वाले सुझाव-विचार और मत का सर्वथा अभाव भी दिख रहा है। अधिसंख्य नरेन्द्र मोदी को ललकार रहे हैं या फटकार रहे हैं या कि कुछ बिल्ला-बहादुर तो फूंफकार के तेवर और भाषा में तनतना भी रहे हैं। यह सब अनावश्यक कसरत है। साथ मिल-बहुर कर राष्ट्रीय चेतना और कर्तव्यनिष्ठा के साथ विभिन्न मिशनरी पहलकदमियों में सहभागी और सक्रिय बनने की जरूरत है।

स्वयं मोदीजी को भी जरूरत है कि वे अपने ग्रहीता-भाव को अधिक व्यापक और बहुआयामी बनाए। ‘यूनिटी फाॅर रन’ जैसे लोकप्रियतावाही आयोजन से शारीरिक कसरत जरूर थोड़े-बहुत हो जाएंगे; किन्तु उससे चारित्रिक शुद्धता, प्रतिबद्धता और समाजोन्मुख चिन्तन-दृष्टि नहीं पनप सकती है। इसके लिए विशाल-विराट मूर्तियों के अनावरण की भी जरूरत नहीं है; क्योंकि सरदार पटेल की आदमकद मूर्ति देखकर किसी भारतीय नागरिक का हित न तो सधने वाला है और न ही मोदी जी की भीतरी इच्छाशक्ति एवं संकल्पशक्ति में ही बढ़ोतरी संभव है।

एक बात और इत्तला करना जरूरी है कि मि. प्राइम मिनिस्टर को अपनी मौलिक संकल्पना, विचार-दृष्टि एवं जन-प्रतिबद्धता के माध्यम से लोकतांत्रिक व सांविधानिक दायित्व का निर्वहन करना होगा। विदेशी प्रचारकों का कलात्मक-सर्जनात्मक सम्मोहन दस्तावेजी रंगरोगन और चित्रांकन-रंखांकन के लिए ठीक है; किन्तु वैयक्तिक व्यक्त्वि, व्यवहार, नेतृत्व, निर्णय-क्षमता, समस्या-समाधान् आदि की दृष्टि से अपने कान-आंख और इन्द्रिय-बोध पर निर्भर रहना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।

काफी पहले सन् 2002 में भी सरदार पटेल को लेकर नरेन्द्र मोदी की खुब खींचतान हुई है।
2002
कइयों ने उन्हें ‘पटेल का वारिस’ कहकर भी उन दिनों सम्बोधित किया था जिसे लेकर कई  राजनीतिज्ञों को घोर आपत्ति थी; मुझे भी है। यह बहुत बौनी लालसा  और दुर्बलता है। इससे औरों को संतुष्ट होने देना चाहिए। मि. प्राइमिनिस्टर को तो उस जनाकर्षण को महत्त्व देना चाहिए जो आप पर विश्वास करता है। कांग्रेस विश्वास छलकर जनता के 'डीएनए' से भी बाहर हो गई....मोदीजी इससे सीख लेंगे और इस ढर्रें को परम्परा बनने से रोकेंगे।

अंतिम बात, जनता जल्दी में नहीं है; बल्कि हड़बड़ी में हैं भाजपा के वे ज़मीनछोड़ राजनीतिज्ञ जो ‘मोदी’ पर कायम जनास्था को कभी लहर कहते हैं, तो कभी सुनामी। ये ऐसे मौकापरस्त लोग हैं जिनका एक ही काम रहा है अब तक-‘हम तो डूबेंगे ही सनम, तुम्हें भी ले डूबेंगे!’  


धन-ऋण

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मेरी समझ से तो हमारे भीतर एक कुदरती/प्रकृतिप्रदत टरबाइन है जो भीतरी
द्रव-अंश में घूर्णन करता है। इसी से निकसित होता है: धन-ऋण। धन-ऋण का यह
पारस्परिक संयोजन-संगुफन ही आत्मा है जो चेतना का सूचक है और शक्ति का
निर्माता। धन का बढ़ना दिव्य होना है, जबकि ऋण-अंश बढ़ने का तात्पर्य है
चेतना-शून्य, संज्ञाशून्य, जड़ और अंततः पदार्थ रूप होना है। जहां
द्रव-अंश नहीं है वह चित्तशून्य है। यथा-नाखून, बाल इत्यादि। शिशु को
पैदा होते ही सर्वप्रथम द्रव-अंश चाहिए होता है ताकि नाल कटाई के बाद की
खुराक उसके भीतरी अंतःप्रक्रिया से स्वतः प्राप्त हो सके।  वास्तव में यह
टरबाइन ठीक वैसी ही है जैसे प्यारी छोटी घड़ी में भीतरी यांत्रिकी का
दोलन-कंपन मिनट, घंटा और समय बताते हैं। अतः मानव-शरीर के रचना में पूरी
विज्ञान कार्य-कारण-सम्बन्ध के साथ समाहित एवं उपस्थित है। बस नहीं है तो
ईश्वर। जो स्वयं को सर्वाधिक असुरक्षित मानता है अथवा भयाक्रांत होता है;
ईश्वर सबसे ज्यादा उसी के चिंतन में रहते हैं। जो दृश्य है उसका विज्ञान
आपरूप घोषित है। इसलिए उसमें न माया है और न ही सम्मोहन। लेकिन जो समक्ष
है ही नहीं उसे लेकर पंडिताई-ओझाई सर्वथा उपयुक्त राह-दिशा है। यदि
धर्मखाने न हो तो स्पर्धा निष्पक्ष, वस्तुनिष्ठ और पारदर्शी हो जाएगी।
फिर सामंती ललाओं, मठ-मठीसियों का क्या होगा? इस कारण ईश्वर को बनाए रखना
ऐसे सभी लोग चाहते हैं। उसके होने या न होने पर वैज्ञानिक चिंतन-संवाद कम
ही लोग करने को राजी होते हैं।

रविवार, 2 नवंबर 2014

GPR>IPR IN GENOPOLITICS!


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  प्रस्तुति : राजीव रंजन प्रसाद
वरिष्ठ शोध अध्येता(जनसंचार एवं पत्रकारिता)
प्रयोजनमूलक हिन्दी, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय


First You Know that : GPR & IPR.

GPR stands for 'Generic Property Right' is better run in Indian context(Genopolitics) as a Golden Rule.
& IPR stands for 'Intellectual Property Right' यह शब्द तो इतना बहुप्रचारित है कि आप जानते ही होंगे। ‘जेनोपाॅलिटिक्स’ शब्दावली एवं प्रयोग में थोड़ा नया है जो भारतीय लोकतंत्र की एक प्रकार से कहें, तो जीवन-शक्ति है। अभिजात राज करेंगे, यह बात भारतीय लोकतंत्र में पूर्णतः प्रथारूढ़ रूप में अक्षत बनी हुई है। ‘जेनोपाॅलिटिक्स’ यानी इस अनुवंशी राजनीति का तीन ध्येय स्पष्ट है : पहला सामंतीपन, दूसरा कूटनीतिपन और तीसरा जातीय सुरक्षापन का भाव व विचार-बोध।....


(Making proposal for 'NEXT TOUR')

NEXT TOOR!




Option's are open in Global World!

मेट्रो-लाइफ@हिन्दी सिनेमा



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राजीव रंजन प्रसाद

विषय सूची:

भूमिका: कंक्रीटों तले म्हारा देश!

1. महानगर: अवधारणा एवं स्वरूप
>सामूहिक आवास की विविध इकाइयां
>महानगर: अवधारणा
>महानगर: सामाजिकता एवं संस्कृति
>समकालीन महानगर: विशिष्ट जीवन स्थितियां
>महानगरीय मध्यवर्ग
>महानगरीय झुग्गियां
>महानगरीय व्यक्ति: जीवन दर्शन, मनोविज्ञान एवं जीवनशैली

2. समकालीन हिन्दी सिनेमा
>सामान्य परिचय
>नवपूंजीवादी भूमंडलीकरण के प्रभाव
>लोकप्रियतावाद: मनोरंजन का रुचि बोध
>सिनेमा में हस्तक्षेप

3. समकालीन हिन्दी सिनेमा में महानगरीय जीवन
>समकालीन हिन्दी सिनेमा में महानगर
>मुंबई की केन्द्रीयता
>महानगर: सामाजिकता एवं संस्कृति
>समकालीन महानगर: विशिष्ट जीवन स्थितियां
>महानगरीय मध्यवर्ग
>महानगरीय झुग्गियां
>महानगरीय व्यक्ति: जीवन दर्शन, मनोविज्ञान एवं जीवनशैली
>महानगरीय बच्चें
>महानगरीय स्त्री

उपसंहार : आ जा...जरी वाले नीले आसमानों के तले

शनिवार, 1 नवंबर 2014

राजीतिक संचारक की भाषिक एवं कायिक पटकथा


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शोध पत्र प्रस्तुति : राजीव रंजन प्रसाद
वरिष्ठ शोध अध्येता(जनसंचार एवं पत्रकारिता)
प्रयोजनमूलक हिन्दी, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय

संचार : अर्थ, भूमिका, अनुप्रयोग, समकालीन महत्त्व, ग्लोबल नेतृत्व आदि

भाषा :
>भाषिक रूप, स्थिति, प्रयोग, प्रभाव,
>कायिक रूप, स्थिति, प्रयोग, प्रभाव

राजनीतिक संचारक : व्यक्तित्व, व्यवहार, नेतृत्व

प्रतिनिधि राजनीतिक संचारक : राहुल गाँधी, अरविन्द केजरीवाल, नरेन्द्र मोदी

राजनीतिक भाषणों का विश्लेषण :           
>वाग्मिता, वक्तृता
>विशिष्ट संचारक गुण
>साम्य-वैषम्य
>राजनीतिक अंतःदृष्टि
>ज़मीनी जुड़ाव
>सामाजिक सरोकार
>सम्बद्ध भूमिका
>दायित्व का निर्वहन
>निर्णय-क्षमता
>क्रियान्वयन
>सफलता
>नेतृत्व

अन्य युवा राजनीतिज्ञों से संक्षिप्त तुलनात्मक अध्ययन-विश्लेषण

निष्कर्ष
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Walk With Mirror 
राजनीतिज्ञ संचारक का वैयक्तिक दायित्व
मेरे आलोचनात्मक निकष

1. सक्रिय आलोचनात्मक दृष्टिकोण
2. विवेकसम्मत चेतना
3. जनांकाक्षा के प्रति अटूट निष्ठा
4. नैतिक समझदारी और चारित्रिक बरताव
5. जन-बहुलता और जन-शक्ति को श्रेष्ठ-सर्वोपरि सत्ता मानने की धारणात्मक/संकल्पनात्मक प्रवृत्ति
6. जन-समस्याओं के हल अथवा निराकरण हेतु उच्च मनोबल, दृढ़इच्छाशक्ति और सेवा-समर्पण भाव
7. सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक मोर्चे पर ठनी वर्गीय अंतद्र्वंद्वों एवं अंतर्विरोधों का समाधान
8. सामाजिक यथार्थ को केन्द्रीय भूमिका में रखते हुए जन-अभिमत तैयार करना।
9. राज्य-राष्ट्र की जनातांत्रिक संकल्पना को भौगोलिक चैहद्दी के सीमांकन-रेखांकन से ऊपर उठाना
10. नवाधुनिक, नवीन अथवा नवाचारयुक्त चेष्टाओं का अधिकाधिक आत्मसातीकरण
11. मानवीय-कौशल,अभिवृति एवं तकनीकी-प्रौद्योगिकी आधारित अनुप्रयोग को प्रोत्साहन 
12. ग्लोबल नेतृत्व हेतु स्वतंत्र मानस एवं आत्मनिर्भर समाज का निर्माण
13. परम्परा एवं संस्कृति में अनुस्यूत अरध्यात्मिक चेतना एवं दृष्टिकोण को अक्षुण्णय बनाए रखना
14. ‘अपनी मूल चारित्रिक सत्ता में अपना सर्वांगीण विकास’ का बहुद्देशीय एवं बहुआयामी लक्ष्य रखना
15. सामाजिक समरसता से वैश्विक-मिलाप तक में ‘सत्य’, अहिंसा’ और 'मानव-सेवा धर्म’ को अपनाना
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* तवज्जों या तरजीह देने की बात करना बेमानी है; लेकिन गंभीर तथ्याों, विचारों और विश्लेषणों पर गौर फरमाना बेहद जरूरी है।

गुरुवार, 30 अक्तूबर 2014

Assistant Professor

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भारत में अनगिन सहायक प्राध्यापक
अनगिन प्राध्यापक
बीच वाले मध्यमार्गी भी ढेरों हैं
छठवें वेतन आयोग से साठवीं तक
इन्हें सिफ़ारिशी  भुगतान पाना है
ये ‘भारत भाग्य विधाता’ हैं
इन्हें काफी आगे जाना है

यहां तुम्हारी जरूरत नहीं है
......दूसरी ठौर देखो!

कहो-सुनो

..........

बहुत सोचो
नहीं बोलने के बारे में
लेकिन सुनने के लिए
अपनी कान हमेशा सजग रखो

सामने से गुजरते साईकिल की टायर देखो
पर बोलो मत
पड़क कर एकदम नजदीक आ गई
बच्चों की गेंद देखो
पर बोलो मत

बस कहने से बचो
सुनने के लिए अभ्यस्त बनो

यह दुनिया जब थक जाएगी
बोलना तुम्हारा वहां से शुरू होगा
आमीन! आमीन!! आमीन!!!

सोमवार, 27 अक्तूबर 2014

ठेंगे पर प्रमाण-पत्र

प्रमाण पत्र
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मुझे यह प्रमाणित करते हुए हर्ष का अनुभव हो रहा है कि हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रयोजनमूलक हिन्दी(पत्रकारिता) विषय के अनुसंधित्सु राजीव रंजन प्रसाद से मैं विगत 7 वर्षों  से परिचित हूँ। अपने शोधकार्य के दौरान इन्होंने स्तरीय सेमिनार-प्रस्तुति दी है। अपने कठोर परिश्रम, निष्ठा, सेवा-भावना एवं संकल्प-शक्ति के बल पर इन्होंने अपने शोध-कार्य की गुणवत्ता को उत्तरोत्तर संवृद्धि एवं स्तरीयता प्रदान की है। इनका मुख्य जोर/बल प्रयोजनमूलक हिन्दी भाषा को तकनीकी-प्रौद्योगिकी से जोड़ने एवं हिन्दी भाषा को अधिकाधिक नवाचारयुक्त बनाने की रही है। आधुनिक अभिसरण/अनुप्रयोग से संयुक्त हिन्दी की प्रयोजनीयता एवं भाषा-सम्बन्धी प्रयुक्तियों को समकालीन विषयों/सन्दर्भों/मुद्दों से जोड़ने में इनकी सम्बद्धता और सक्रियता विशेष रूप से विचारणीय है। इनके विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखन-सामग्री से इनकी पत्रकारीय-क्षमता और तद्विषयक अंतःदृष्टि पर भी प्रकाश पड़ता है।

भावी जीवन में राजीव रंजन प्रसाद के उत्तरोत्तर विकास एवं स्वस्थ-जीवन की मैं मंगलाशा करता हूँ

औसत


.....

सब के वजन को जोड़ और
सभी के कुल संख्या से भाग दे दें
प्राप्त संख्या ‘औसत’ मान होगी

इत्ती-सी बात/फार्मुला/गणित
नहीं पता.....ओह नो!

मंगलवार, 21 अक्तूबर 2014

पिता का पत्र अपने पुत्रों के नाम

प्रिय देव-दीप,

दशहरे में गए अब तक नहीं आये। मन नहीं लग रहा है। आज धनतेरस है। सीमा रहती, तो कुछ खरीदती भी-कटोरी, प्लेट या चम्मच कुछ भी। बहुत हिसाबी है। उसकी सीमाएं जानता हूं। गरीब घर की बेटियां चांद को हीक भर देखती हैं; लेकिन उन पर आशियाना बनाने की कभी नहीं सोचती हैं। चांद सिफारिश भी उनकी जात के लिए नहीं होता है। हम जिस घराने से हैं; वहां सबसे मिल-बहुर कर रहना ही हमारी असली हैसियत और पहचान है। गाड़ी-बंगला वाले चाहे जितना जी लें; आपस में उनका प्रेम भी दिखावटी होता है। हमारे लिए प्रेम का मतलब है सबकी आंखों में एकसमान मानुष होना।

देव-दीप, आजकल पैसे के मोल पर ज़िन्दगी को बड़ा-छोटा कहते हैं लोग। खूब भागमभाग में फंसे-धंसे लोग सबकुछ कमाते हैं; लेकिन औरों की नज़र तो छोड़िए अपनी नज़र में भी संतुष्ट नहीं रह पाते हैं। खैर!

इस बार स्काॅलशिप नहीं मिली। दिवाली बाद आएगी। इसलिए भी मैं तुमलोगों को लाने से बचा। तबतक दादा जी के यहां रहो; फिर नाना-नानी के घर चले जाना। उस दिन सीमा बता रही थी कि तुमलोगों आपस में लड़-भिड़ गए, तो तुम्हारी मम्मी ने हाथ उठाया। यह देख तुम्हारी दादी रोने लगी। बाबू अपनी मम्मी और दादी को क्यों तंग करते हो। तुम्हारी दादी, तो टीवी में समाचार देखते हुए हर-हर रोने लगती हैं। कोई भी घटना, मौत, हत्या अथवा मार-काट उन्हें बुरी तरह तकलीफ़ देता है। लेकिन उन्हें क्या पता कि दुनिया की यही असली रीत है। मनुष्य के बुद्धिशाली होने का सबूत है।

देव-दीप, कल मेरी ही तरह नये शोध में आए विद्यार्थियों की परीक्षा थी। मेरी ही ड्यूटि लगी थी। बिना खाए-पीए शाम 5 बजे तक रह गया। परीक्षा क्या मजाक करते हैं लोग। काहे का प्रोफेसर हैं। समझ में नहीं आता है। हम बच्चों को पकड़ा और बस नाध दिया। विनम्र और अपने काम के प्रति ईमानदारी दिखलाने वालों की कम फ़जीहत नहीं होती है। उन्हें लोग आसानी से पकड़ लेते हैं; और काम निकलने के बाद ईख की तरह रस चूस कर फेंक देते है। जाने दो, खुशी है कि वे हमें किसी काम के लायक तो समझते हैं। आजकल नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले प्रोफेसर कैसे पद पाते हैं; क्या कहना?

देव-दीप, सत्य और अहिंसा की बात करने वालों की चांदी है; जीने वाले मरघटिए पर हैं। मुझे मेरे लिए कोई सिफारिश नहीं कर सकता है। जाति की बलिहारी है। धर्म की मनसबदारी है। है बहुत कुछ। दुनिया इन्हीं सब चीजों से चलती है। जाने दो; मुझे खुशी है कि मैं किसी के चरणों पर लोटने का अभ्यस्त नहीं हूं। मनाता हूं कि मरूं भी, तो ऐसे ही खड़े-खड़े। और तुमलोगों के लिए...अंग्रेजी सीख रहा हूं। जिस हिन्दी को मैंने हर रोज 14-16 घंटे दिये उससे कुछ होने से रहा, तो चलें कुछ अंग्रेजी में भी हाथ आजमा लें।

देव-दीप, मैं शारीरिक रूप से इतना कमजोर या कि कृशकाय हूं कि सब कहते हैं कि आप किसी तरह खुद की और अपने परिवार की रोजी-रोटी चला लें; वही शुक् की बात है। दरअसल, ठीक कहते हैं लोग। समाज के बारे में सोचने के लिए सिर्फ सोच और दृष्टि ही नहीं; चेहरा-मोहरा, फैशन-वैशन, टीप-टाॅप.....मार्का स्टाइल-वुस्टाइल भी चाहिए होता है। अतः मेरी यहां भी दाल गलने से रही।

देव-दीप, अपनी इन्हीं सीमाओं को देखते हूं मैंने फैसला किया है कि दो पैसे कमाने भर काम करू; उससे अधिक कुछ कर भी सकूं, तो मौन रहूं। देखना, इस बार शोध-प्रबंध जमा करने में यही होगा। लोग कहेंगे-आपसे यह उम्मीद नहीं थी; खोदा पहाड़ निकली चुहिया। कहने दो रजीबा क्या है; वह खुद जानता है...वही काफी है। जब खरगोश निकलता था; तब भी नहीं बोले...अब क्या मेरा सर?

दीवाली मुबारक! तुमदोनों दादा-दादी और पूर घर के साथ इस बार दीपावली में शरीक हो...यही मेरी हसरत है।

तुम्हारा पिता
राजीव

सोमवार, 20 अक्तूबर 2014

ज़िन्दगी


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हर सबक कुछ सिखलाये
...कुछ नया हम पाये,
ये ज़िन्दगी है अपनी यारों
...रौ में रहना आऽऽऽ जाये,

 हू-नु-हुऽनुऽनुनु.... हू-नु-हुऽनुऽनुनु, 

हर लम्हें कुछ नया बटोरें
....औरों के संग बतियाये,
बात-बात में जी लें ऐसे
....ज़िन्दगी मस्त होऽऽऽ जाये,

 हू-नु-हुऽनुऽनुनु.... हू-नु-हुऽनुऽनुनु

मंगलवार, 14 अक्तूबर 2014

ईश्वर के नाम एफआईआर


................... 

मुझे जहां शामिल किया गया
परीक्षा देने के लिए
परीक्षक ने मुझे सर्वथा योग्य कहा
मैं आगे बढ़ गया
लोगों ने कहा-ईश्चर कृपा रही!


मुझे जहां लिखने के लिए कहा गया
मैंने ऐसा लिखा कि
मेरे लिखे को मुद्रण के सर्वथा योग्य समझा गया
मैं आगे बढ़ गया
लोगों ने कहा-ईश्चर कृपा रही!

मुझे जिन के बीच रहने को कहा गया
मैं इस सभ्यता से विनम्र होकर रहा कि
मेरे रहने की दैनंदिनी पर कसीदे काढ़े जाने लगा
मैं आगे बढ़ गया
लोगों ने कहा-ईश्चर कृपा रही!

मुझे जिन लोगों का नेतृत्व करने के लिए कहा गया
मैंने अपनी कंमाडर होने की भूमिका ऐसे निभाई कि
सबने लोहा मानी और पीठ पर शाबसी की धौल दी
मैं आगे बढ़ गया
लोगों ने कहा-ईश्चर कृपा रही!

इतना आगे बढ़ जाने के बाद
आज मुझसे कहा जा रहा है:
‘भाषा बदल दो’
‘जाति बदल दो’
‘धर्म बदल दो’
‘वेशभूषा बदल दो’
‘खान-पान बदल दो’
'बोलचाल-व्यवहार बदल दो’
‘स्वभाव बदल दो’
‘चरित्र बदल दो’
क्योंकि यह ईश्वर के बनाए शासकों के कृपापात्र बनने के सर्वथा प्रतिकूल है

मैं दृढ़निश्चयी, मैं संकल्पजीवी....मैं आत्मस्वाभिमानी
मैं इन सबको नकारने पर तुला हूं
....और जैसे अनाम लोगों के नाम
दर्ज होते हैं एफआईआर
मैं ईश्वर के नाम एफआईआर दर्ज़ कराता हूं!!!

होना

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मेरा होना साबित हो
तो दुश्मन की तरह
जो प्रतिरोध से रचता है अपना व्यक्तित्व
न कि भाट-चारण की तरह

मेरा होना साबित हो
तो मेज पर रखे पानी के कंपन की तरह
जो मेज के पूरे वजूद को  थर्राता है
न कि पेपरवेट की तरह

मेरा होना साबित हो
तो उस स्त्री की तरह
जिसे सिर्फ मानचित्र में नहीं भूगोल में होना जंचता है
न कि नवउगनी कवियित्री की तरह

मेरा होना इस बात से तय हो कि
मेरे भीतर आदमीयत कितनी बची हुई है
न कि सब गुनाह माफ़ की तरह

रविवार, 12 अक्तूबर 2014

गोली मार दो


.............

उत्तर आधुनिक वेदोपदेश


यदि वे तुम्हें टक्कर दे
अपनी योग्यता से कर दे तुम्हें मात
तो इंतजार न करो
उन्हें गोली मार दो
या काट दो फिर ज़बान
या कि कर दो लूल-लांगड़

दरअसल,
भारत में योग्य होना
सिर्फ और सिर्फ
ब्राह्मणों और क्षत्रियों के लिए
सर्वाधिकार सुरक्षित है!!!

यह जानों कि-
वेद शूद्रों ने लिखा है
और किसानों, श्रमिकों और मेहनतकश अनगिनत हाथों ने
उसे हर राग, लय, सुर और ताल में गाया है
ध्वनि-मिश्रित स्वर, शब्द और भाषा में स्फोट किया है

याद रखों कि-
हम ब्राह्मणवादियों और मनुवादियों ने तो उसे हथिया भर लिया है
नमस्तस्यै...नमस्तस्यै...नमस्तस्यै...नमों नमः...
कहते हुए, गाते हुए, बखानते हुए
और यही नहीं इन नीच-कूल-अधर्मियों का, शूद्रों का
हांड़-मांस-हाथ-हथेली....उनका सर्वस्व
अपने शोषण के बहुविध औजारों से उधेड़ते हुए

प्रतिरोध में सर उठाते ही उनका सर कलम करते हुए
अपनी बात न मानने पर उनकी आंख फोड़ते हुए
उनकी बेटी-बहू और औरतों का अस्मत लूटते हुए

यह अलग बात है कि हम उन पर जितना ही बोझ डालते हैं
उनकी विद्रोह की चेतना को बांझ बनाते हैं
उनकी आवाज़ की भूमिका पर स्टिकर चिपकाते हैं
उन्हें धर्म की बिसात पर मौनी-अन्धेरे में धकेलते हैं
थोड़ा भी भयातुर होते ही अपनी शास्त्रीय भाषा तक बदल देते हैं
किन्तु वे फिर-फिर ज़िन्दा होते हैं
....वे फिर-फिर हम पर भारी पड़ते हैं

अतः शासन के बहाने अपत करने वालों को चाहिए कि-
थोड़ी भी आशंका होते ही
उन्हें तत्काल गोली मार दो....उनका वध कर दो
यही भारतीय परम्परा रही है
और हमारे शासक-शोषक होने/बने रहने की वास्तविक सबूत
वीर भोग्या वसुन्धरा!!!


शनिवार, 11 अक्तूबर 2014

पानी

....
बंधु! खुले आसमान में
प्रकृति की कोख में पानी पलते हैं
वे अपनी इसी कोख से पानी जन्मते है

ज़मीन पर पानी को दुख कचोटता है, तो प्रकृति
आत्मविह्वल माँ-बाप की तरह
लोर भी पानी की ही भाषा में उड़ेलती है
प्रकृति अपना खून चूसकर और अतंड़ियां जलाकर
अपनी कोशिकाओं को सोखकर पानी पैदा करती है
ताकि मनुष्य को पैदा करने वाली माँ की कोख में
किसी भी सूरत में पानी बची रहे पर्याप्त

दरअसल प्रकृति वसुंधरा से अधिक मनुष्य की चिंता करती है
मानों उसके लिए मनुष्य मुख्य उत्पाद है और बाकी बचे सब बाई-प्रोडक्ट
इसीलिए प्रकृति स्वभावतः हिंस्र पशु नहीं होती...शेर, चिता, बाघ नहीं होती
वह पानी की तरह रंगहीन, स्वादहीन, रूपहीन लेकिन सबसे अहम खुराक होती है
हां, किसी के लिए ऐशगाह तो किसी के लिए जीवनदाह होती है

बंधों, प्रकृति अपनी तक़लीफों से ही धार पाती है
संकट की दुश्चिंताओं और प्रोपेगेण्डाओं के बीच पनाह पाती है
तिस पर भी वह ठठा कर बरसती है
धरती के नस-नस में घुलती-मिलती, रींजती-भींजती है
यह पानी ही कहीं नदी, तो कहीं तालाब
कहीं सागर, तो कहीं समुद्र और सैलाब का नाम पाती है
रूपासक मनुष्य कहीं सुख से बिछलाते हैं
कहीं अपना करेजा तर करते हैं
तो कहीं पितरों को तारने के बहाने भरी-पूरी नदियों को ही तार देते हैं
आज प्रकृतिदेय इसी पानी के लिए कहीं जंग, तो कहीं संगोष्ठी जारी है
कहीं अनशन, तो कहीं आन्दोलन का गुमान तारी है
साधो, आदमी के भीतर ‘आदमियत का पानी’ जितना नीचे उतर रहा है
सूरज का पारा उतना ही सातवें आसमान पर चढ़ रहा है
प्रकृति जब इस कदर सब जगह मरती है, तो भाप बन उड़ती है

शासक भौंक रहा है-‘प्रकृति बचाओ...जीवन बचाओं...पानी बचाओ’
आदमी भी बिसूर रहा है और तकनालाॅजी भी फनफना रही है
भीतर-बाहर हर जगह पीब-मवाद, फेन-गाज....बजबजा रहे हैं
आप खुद ही देखिए कि हम-आप-सब कौन-कितना प्रकृति बचा रहे हैं
आदमी फिर-फिर पैदा होता है...क्या प्रमाण है?
फिर मानिंद काफ़िर क्यों चिल्ला रहे हैं: बारिश....बारिश...बारिश!!! 

शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2014

डर


...

हम अपनी सभ्यता के खोने से
और संस्कृतियों के मिट जाने से नहीं डरते हैं
जितना कि
सभ्य और सांस्कृतिक मनुष्य होने से

भूमिका में बच्चें

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दीपू
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बच्चें
अपनी मां से
हीक भर लिपटने का चाहत लिए
जगतें है पूरी रात

बच्चें
नहीं सोतें तबतक
जब तलक चलती है मैराथन दौड़
उसके पिता की रात संग

बच्चें
अपने माँ-पिता के संघर्षों में
शामिल होते हैं
पूरी ईमानदारी के साथ

किन्तु सहज, तरल, बेआवाज़
मौन की भाषा में!

गुरुवार, 9 अक्तूबर 2014

सब कुछ हुआ साफ अबकी बार...क्यों?

अब क्या लिखना, पढ़ना और बोलना.....रामराज्य आ गया देश में बड़ी जल्दी। अहो रूपम....अहो ध्वनि!! जिसके पास है सबकुछ वह करे जय-जय; और जिसके पास नहीं है वह धार्मिक जाप करे, सत्संग करे, आरती करे....उसके भी दुःख के दिन उबरेंगे ही। देश को निमोनिया(मोदीकरण) से अमोनिया(अमेरिकीकरण) में रूपान्तरण हो ही चुका है; भाई स्वाद तो चखिए।

शायद! इसी से मेरी भी भला हो जाए। जय मोदी, जय मोदी। यह अलग बात है कि-'सांच कहे, तो मारन को धावे।' इससे अच्छा है; न कहो। वैसे भी मेरे कहने से जन-जन के 'अच्छे दिन' थोड़े आयेंगे। उसके लिए तो मोदीनुमा जन-धन चाहिए। मुझे भी। मैं कौन बिल्ला बहादुर हूं?

बुधवार, 1 अक्तूबर 2014

माननीय प्रधानमन्त्री के नाम सन्देश

  02 अक्तूबर, 2014; गांधी जी का जन्म दिवस

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स्वच्छता का वंशवृक्ष लगाएं, भारत को स्वस्थ, सानंद व समृद्ध बनाएं

‘स्वच्छता का नारा बुरा नहीं है। यह अभियान ग़लत नहीं है। यदि इच्छाशक्ति और संकल्पशक्ति सात्त्विक हो, तो राजनीतिक शुचिता, पवित्रता और स्वच्छता के सन्दर्भ में इसकी प्रयोग/प्रयुक्ति निरर्थक नहीं है। लेकिन यदि पूर्व-सरकारों की तरह मंशागत लक्ष्य में ही नीतिगत दोष हो या कि लक्ष्य-निर्धारणकर्ताओं द्वारा वह प्रचारित ही कुछ इस तरह हो कि इसमें सतहीपन और उथलापन साफ दिख जाये, तो शेष अलग से कुछ कहने को क्या रह जाता है। जो कुछ दिखाई देगी; जनता उसी को न सत्य और प्रामाणिक आधार मानेगी। बाकी का क्या ठिकाना!
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तुरंत उधर से जवाब आया:

thank you for writing to the Hon’ble Prime Minister.

Your message is valuable to us!  PMO look forward to your support and
active participation in good governance.

मंगलवार, 30 सितंबर 2014

किसके सपनों के वारिस हैं मि. प्राइममिनिस्टर?



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 समस्त चित्र ‘इंडिया टुडे’ और ‘आउटलुक’ से साभार

‘केम छो मिस्टर प्राइम मिनिस्टर’: बराक ओबामा
‘थैंक यू वैरी मच मिस्टर प्रेसिडेंट’: नरेन्द्र मोदी
 

यह वार्तालाप अमेेरिका स्थित व्हाइट हाउस में उस समय घटित हुए जब अमेरिकी राष्ट्रपति इण्डियन प्राइम मिनिस्टर से मिले। बराक ओबामा ने गुजराती भाषा-टोन में नरेन्द्र मोदी की अगुवाई और स्वागत जिस गर्मजोशी के साथ की; वह गौरतलब है। यह सही है कि यह संवाद जब दो देशों के प्रमुख जन-मानिन्दों के बीच हो रहे थे; पूरी दुनिया की मीडिया इस क्षण को अपने कैमरे अथवा मस्तिष्क में कैद कर लेने को आतुर, व्यग्र और बेचैन दिख रही थी। सीमित और दायरेबन्द विवेक-चेतना वाली भारतव्यापी मीडिया(विशेषतया अंग्रेजी नस्ल वाली हिंदी चैनल) की हैसियत-औकात इतनी नहीं है कि वह इस भाषिक-प्रयोजन का निहितार्थ-लक्ष्यार्थ समझ सके; और सही-सही विश्लेषण के माध्यम से अपनी देसी जनता को यह बतला सके कि आखिरकार कथित रूप से अमेरिका जैसे ढीठ एवं अड़ियल रूख वाले राष्ट्राध्यक्ष को यह क्योंकर सूझी कि वह गुजराती में पूछे-‘कैसे हैं माननीय प्रधानमंत्री?’ और सवा अरब की आबादी वाले देश का प्रतिनिधित्वकर्ता प्राइम मिनिस्टर अपनी मूल ज़बान तो छोड़िए अपनी  उस करिश्माई वक्तृता की भाषा में भी जवाब न दे सके-‘मैं बिल्कुल चंगा, दुरुस्त और स्वस्थ हूँ माननीय राष्ट्रपति।’

‘मेक इन इंडिया’ के सर्जक-धर्जक क्या इस घटना पर अपनी कान देंगे? क्या वह यह मानेंगे कि यह अमेरिकी मनोव्यवहार, मनोभाषिकी और नीतिगत संचार शैली का कुटनीतिक हिस्सा है? यही अमेरिकी समाज के नेताओं का वास्तविक चारित्रिक-वैशिष्ट्य और अहंभाव है?  क्या भारीय राजनीतिक विश्लेषक-राजनयिक और उच्च पदस्थ आला अधिकारीगण यह समझ पाने की स्थिति में हैं कि अमेरिकी निगाह में अपनी सर्वश्रेष्ठता को हर हाल में प्रदर्शित कर ले जाना ही उसकी अपनी खूबी-खाशियत है? क्या इण्डियन एडवाइजर/मैनेजर/काउंसलर/टेक्नोक्रेट/ब्यूरोक्रेट/कारपेट/काॅरपोरेट आदि के नामचीन शेखों को इसका तनिक भी अंदाज था कि जिस प्राइम मिनिस्टर ने मैडिसन स्कावयर में एक दिन पहले बोलते हुए वहाँ मौजूद हजारों मूल भारतवंशी अमेरिकियों को अभिभूत कर दिया था; वह महान शख़्सियत जब अमेरिकी राष्ट्रपति के समक्ष प्रकट होगा तो वह अपनी उस वाक्पटुता, वाक्कौशल अथवा अंदाजे-बयां को भी प्रत्युत्तर रूप में शामिल कर पाने में असमर्थ सिद्ध होगा। याद कीजिए इस मोड़ पर महात्मा गांधी होते तो दृश्य और स्थिति क्या होती?

(राजीव रंजन प्रसाद लिखित आलेख ‘किसके सपनों के वारिस हैं मि. प्राइममिनिस्टर?’ से)

नोट: लेखक बीएचयू में भारतीय युवा राजनीतिज्ञों के संचार विषयक मनोव्यवहार एवं मनोभाषिकी पर शोधकार्य कर रहे हैं।

मंगलवार, 23 सितंबर 2014

भाषा की मुश्किलों का मसला

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21 सितम्बर को प्रकाशित ‘जनसत्ता’ अख़बार के आलेख ‘हिंदी की मुश्किलें’ पर राजीव रंजन प्रसाद की टिप्पणी
 
कई मर्तबा स्तंभ लेखकों की समझ सम्बन्धी कच्चापन/बौनापन को देख-पढ़ कर मन
खराब हो जाता है। दिलीप खान का लिखा ‘हिंदी की मुश्किलें’(21 सितम्बर)
इसका एक उदाहरण है। वे लिखते हैं-‘सामाजिक विज्ञान से लेकर दूसरे
अनुशासनों में अनुवादों को छोड़ दें तो हिंदी में कितना मूल-लेखन हुआ है?’
इसी में आगे वह अपनी पुरोहिताई(?) का फतवा जारी करने से भी नहीं
हिचकते/चूकते हैं-‘हिंदी के लिए चिंता करने के बजाए इस भाषा को
जानने-समझने वाले लोग इसमें ज्ञान सृजन करें। यह सृजनात्मकता अगर स्थगित
रही, तो बहुत मुमकिन है कि भविष्य में हिंदी का कोई भी बेहतर लेखन पाठकों
को यह भरोसा दिलाने में नाकाम रहेगा कि वह सचमुच मौलिक और बौद्धिक मानदंड
पर खरा उतरने वाला लेखन है। हिंदी में लद्धड़ किस्म की किताबों का इसी
रफ़्तार से छपना जारी रहा तो सचमुच हिंदी में इन अनुशासनों को पढ़ने से
विश्वास ही उठ जाएगा।’

प्रश्न है, आप इतने आशंकित और निराश क्यों हैं? आपने स्वयं कितना पढ़ा और
जाना है, हिंदी भाषा के लुर-लछन, बोल-बर्ताव, गति-मति, भाव-अनुभाव,
ज्ञान-विज्ञान, संस्कार-सरोकार इत्यादि को। क्या आपने हिंदी में छपी
सीएसडीएस की पत्रिका ‘प्रतिमान’ का एक अंक भी पढ़ा है? हम उसके लिए साढ़े
तीन सौ रुपए तक खरच देते हैं। क्या वह आपकी दृष्टि में लद्धड़ लेखन का
हिस्सा-हासिल है? रहने दीजिए महराज! आपके भीतर हंसी, विस्मय, जुगुप्सा
पैदा करती हिंदी का जो प्रेत वास कर गया है वह शायद लद्धड़ लेखन के झरोखे
से ही दाखिल हुआ हो। हिंदी में लद्धड़ लेखन है; लेकिन इसे
इंटरनेटी-वेबसाइट का ‘रेड ट्यूब’ कहा जाता है जो अंग्रेजी में कितनी
विपुल और विशाल है, आप अवश्य परिचित होंगे। आपने यदि गम्भीरतापूर्वक बिना
किसी पूर्वग्रह के अध्ययन-अवलोकन किया हो, तो आप जान पाए होंगे कि हमारे
यहाँ हिन्दी में ज्ञान आधारित प्रभूत सामग्री मौजूद है; तब भी हम
वास्तविक चर्चा-विमर्श कम विलापी-बतकुचन अधिक करते हैं। हिन्दी भाषा के
प्रति ज़ाहिर/उजागर इस किस्म के प्रायोजित रुदन से हिंदी की मुश्किलें हल
नहीं होने वाली हैं; और न ही ऐसे ढपोरशंखी रवैयों से हमारे ज्ञान-आधारित
विवेक-विश्वास का स्तर ऊपर उठ सकता है। आज नई पीढ़ी और नवाचारयुक्त सोच के
अगुवाजन सप्रयास अपनी भाषा को तकनीकी-प्रौद्योगिकी के हर
खाँचें(यूनीकोडीकरण) में संजोने-सहेजने में जिस तरह लट हैं; उनकी सुध
लेने वाले सरकार के सटोरिए और पुरस्कार के बंदरबाँट मचाने वाले कहाँ-कहीं
दिखाई पड़ते हैं? अतएव अंग्रेजी भाषा के जानकार जो स्वयं अपनी मातृभाषा,
साहित्य, ज्ञान, विज्ञान, सूचना, संस्कृति, मूल्य आदि की संचारयुक्त
तकनीकी अनुप्रयोगों और उपादानों से मीलों दूर हैं; उन्हें यह कहने-सुनने
का कोई अधिकार-हक़ नहीं बनता है कि हिन्दी लेखन के नाम पर लद्धड़ लेखन हो
रहा है या कि उनमें बौद्धिक स्तर का अभाव, सिद्धान्तों-अवधारणाओं का लोप
और सतहीपन तारी है।

मैं यहाँ यह भी ताकीद कर देना चाहता हूँ कि सिर्फ लिपियों के
लिपिस्टक-पुते(रंगीन-आकर्षक मुद्रण व छाप-छपाई वाला अंग्रेजी
टिप्स-टेक्नीक) चेहरों से सर्जनात्मकता नहीं आती है; विज्ञापनों के खोल
में लपेटकर सतही विचार परोसने से ज्ञान एवं समझ की मीयाद नहीं बढ़ती या
विकसित होती है। उसके लिए तो मुक्तिबोध की शब्दावली वाली ‘ज्ञानात्मक
संवेदन’ और ‘संवेदनात्मक ज्ञान’ का सहृदय तल व धरातल चाहिए। इसके
अतिरिक्त भाषा में बरती जाने वाली भाव, संवेदना, संज्ञान, चिन्तन, तर्क,
विचार, कल्पना, स्वप्न आदि का महीन बोध और लोक-प्रत्यक्षीकरण आवश्यक है।
यह काबीलियत ज्ञान-वर्चस्व अथवा बौद्धिक संपदा अधिकार की
अमेरिकन-योरोपियन प्रणाली/प्रक्रिया से नहीं आ सकती है जिसके मूल में ही
है कि किसी सम्प्रभु राष्ट्र के आत्मगौरव और आत्मसम्मान को कुचल देना;
दृढ़संकल्पित भावना और कर्तव्यनिष्ठ इच्छाशक्ति रखने वाले सहज मनुष्य और
उनकी मातृ-भाषाओं को विश्व-बाज़ार में निलाम कर देना; मुल्क की अस्मिता,
संस्कृति और विरासत को सियासी प्रभावातिरेक और नवसाम्राज्यवादी गठजोड़
द्वारा कुंठित/दमित कर देना आदि-आदि।

दरअसल, आज जनसाधारण में अंग्रेजी भाषा को लेकर सनक नहीं बल्कि हदस समायी
हुई है। यह सरकारी हनक, हुरपेट और हीनताबोध का नतीजा है। आज ग्रामीण
परिवेश के आमजन अपने बच्चों को अंग्रेजी विद्यालयों में भेज रहे हैं;
ताकि उनका बच्चा कमाने लायक कुछ सहूर सीख सके; क्योंकि यह बात चहुँओर
फैलाई जा रही है कि हिन्दी भाषा जानने वालों के भीतर दक्षता-कौशल निर्माण
की गुंजाइश  न के बराबर है। उन्हें धीरे-धीरे यह भान हो चला है कि अपनी
चारित्रिक निष्ठा और लोकतांत्रिक चेतना से बरी हो चुकी सरकारी मिशनरियों
के मुआफ़िक अंग्रेजी का ज्ञान न हो, तो उन्हें अपनी आजीविका के लाले पड़
जाएंगे; अंग्रेजीदां बिरादरी उनकी सोच, समझ और दृष्टि को खारिज कर देंगी
वगैरह-वगैरह। गोकि यह विडम्बना इतनी प्रबल-प्रचण्ड है कि आज भी
सरकारी/गैर-सरकारी दस्तावेज पर यह स्पष्ट निर्देश मिल जाएगा कि-‘अंग्रेजी
का लिखा ही अन्तिम रूप से सच और शुद्ध रूप से मान्य है’। अर्थात अंग्रेजी
का लिखा-छपा हर शब्द और वाक्य वेद है, ब्रह्म है और उसके वाचक-प्रवंचक
मठाधीश वेदांची। इस चुनौतिपूर्ण समय में हिंदी की असल मुश्किलों की
खोजबीन और पड़ताल आवश्यक है; लेकिन उसके लिए सर्वप्रथम हमें अपने
दुराग्रह/पूर्वग्रह के केंचुल को उतार फेंकना होगा। आमीन!
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-राजीव रंजन प्रसाद, बीएचयू, वाराणसी
 

रविवार, 21 सितंबर 2014

‘इस बार’ की स्मृति में

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तुम्हारे चले जाने का अत्यंत दु:ख है; लेकिन खुशी भी कि मैं तुम्हारे शब्दों और अर्थों की गिरफ्त से मुक्त हो गया...स्वतन्त्र हो गया....अहा! यह मेरा क्षणिक भावोद्रेक........


रविवार, 7 सितंबर 2014

यह ज़िन्दा गली नहीं है!


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माही का ई-मेल पढ़ा। खुशी के बादल गुदगुदा गए।

जिस लड़की के साथ मेरे ज़बान जवान हुए थे। बुदबुदाए।

‘‘बिल्कुल नहीं बदली....’’

अंतिम शब्द माही का नाम था, उसे मन ने कह लिया था। लेकिन, मुँह ने मुँह फेर लिया।
(आप कितने भी शाहंशाह दिल हों....प्रेमिका से बिछुड़न की आह सदा शेष रहती है)

उस घड़ी मैं घंटों अक्षर टुंगता रहा था। पर शब्द नहीं बन पा रहे थे। रिप्लाई न कर पाने की स्थिति में मैंने सिस्टम आॅफ कर दिया था। पर मेरे दिमाग का सिस्टम आॅन था। माही चमकदार खनक के साथ मानसिक दृश्यों में आवाजाही कर रही थी। स्मृतियों का प्लेयर चल रहा था।

‘‘यह सच है न! लड़कियाँ ब्याहने के लिए पैदा होती हैं, और लड़के कैरियर बनाने के लिए ज़वान होते हैं। मुझे देखकर आपसबों को क्या लगता है?’’

बी.सी.ए. की टाॅप रैंकर माही ने रैगिंग कर रहे सीनियरों से आँख मिलाते हुए दो-टूक कहा था। तालियाँ बजी थी जोरदार। उसके बैच में शामिल मुझ जैसा फंटुश तक समझ गया था। माही असाधारण लड़की है। लेकिन, मैं पूरी तरह ग़लत साबित हुआ था। माही एम.सी.ए. नहीं कर सकी थी। पिता ने उसकी शादी पक्की कर दी थी। उस लड़के से जो एम. सी. ए. का क...ख...ग भी नहीं जानता था। माही ने एकबार भी इंकार नहीं किया था।(अपने माता-पिता या अपने अभिभावक का सबसे अधिक कद्र आज भी लड़कियाँ ही करती(?)हैं।)

माही का पति बिजनेसमैन है। स्साला एकदम बोरिंग। हमेशा नफे-नुकसान की सोचने वाला। शादी के बाद भी माही से जिन दिनों बात होती थी। वह बताती थी-‘‘राकेश की सोच अज़ीब है, वह मानता है कि सयानी लड़कियों को लड़कों से दोस्ती नहीं करनी चाहिए; लड़कियाँ ख़राब हो जाती है।’’

‘‘ये सामान बेचने वाले हमेशा ख़राब-दुरुस्त और नफे-नुकसान की ही सोचते हैं...,’’

मैंने कहा। माही तुरंत फुलस्टाॅप लगा दी। विवाहित लड़कियाँ चाहे कितनी भी पढ़ी-लिखी हों अपने सुहाग(?)के बारे में ज्यादा खिंचाई बर्दाश्त नहीं कर सकती हैं। वैसे हम दोनों हँसे खूब थे।

अब तो उसकी हँसी सुने अरसा हो गया है। आज उसने ई-मेल किया है। वह भी यह बताने के लिए कि बच्ची हुई है...और स्वभाव में बिल्कुल मुझ पर गई है।

माही के बिल्कुल न बदल सकने वाली बात ऊपर के पैरे में मैंने इसीलिए कहा था।

‘‘ओए मंजनू के औलाद...सो गए,’’

‘बोल न कम्बख़्त, क्या मैं किसी को चैन से याद भी नहीं कर सकता...., दो मिनट!’’

‘‘खुद तो माही महरानी बन गई...अब माताश्री भी; मजे लो...।’’

पार्टनर जीवेश और मेरी खूब बनती थी। उसने मुझे माही पर एतबार करते हुए, उसके लिए अपना सबकुछ लुटाते हुए देखा था...अब उन्हीं आँखों से मुझे लूटते हुए भी देख रहा था।.....
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(कहानीकारों की ज़िन्दा कौमे हैं....अफ़सोस गलियां ज़िन्दा नहीं हैं.....खै़र! फिर कभी...)

अपनी भाषा में ‘मर्दानी’

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गत रविवार को मैंने केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड द्वारा आयोजित एक परीक्षा दिया। इस परीक्षा का उद्देश्य दक्ष/प्रवीण, नवोन्मेषी चिन्तन-दृष्टि वाले बौद्धिक अध्येता की खोज करनी थी जो मौजूदा शैक्षिक कार्यक्रमों को अधिक व्यावहारिक, आनुभाविक, विद्याथी-केन्द्रित और अन्तरानुशासनिक विधाओं में निपुण बना सकें। यह जरूरी पहलकदमी है क्योंकि अरसे से यह महसूस किया जा रहा है कि समुचित एवं सर्वोचिंत संज्ञान-बोध, परामर्श और संवाद-सम्पर्क के लिए भारतीय शिक्षा पद्धति में आमूल-चूल बदलाव अत्यावश्यक है। गुणवत्तापूर्ण एवं वैश्विक नेतृत्व योग्य अध्ययन-अध्यापन की प्रणाली हमेशा हमारी प्राथमिकता में रहे हैं; विशेषत: भारतीय भाषाओं ने पूरी दुनिया में अपनी सर्वश्रेष्ठता सिद्ध किया हैं।

अफसोस! यह सब जानते हुए भी उस परीक्षा के नीति-नियंताओं ने हिन्दी भाषा को बाहर का रास्ता दिखाया और प्रश्न-पत्र सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी में परोस दिए। इस सम्बन्ध में परीक्षा-पूर्व ही मैंने एक ई-मेल किया था लेकिन किसी ने उस पर कान नहीं दिया। ये सब कारामात आजकल भारत में सायास/मंशागत तरीके से हो  रहा है; लिहाजा, हम अपने ही मुल्क में गैरों की तरह अपनी अभिव्यक्ति देने के लिए बाध्य तथा अभिशप्त है। यह जानते हुए कि यह सारा टिटिमा अधिक दिन और चलने वाला नहीं है। भारतीय भाषा अंग्रेजी-वंशवृक्ष की जन्मदात्री-भाषा है।  वे  अपनी भाषाओं को पितृभाषा कहते हैं जबकि हम मातृभाषा कहते हैं। ऐसा इन वजहों से कि भारतीय भाषा पश्चिमी/यूरोपियन भाषाओं की भी मातृभाषा मानी जाती रही हैं। यही नहीं आप श्रमपूर्वक अनुसन्धान करें और वस्तुनिष्ठ विश्वश्लेषण के पश्चात किसी ठोस निष्कर्ष पर पहुंचे तो यह बात अपनेआप सिद्ध हो जाएगी। सुकरात, प्लेटो, अरस्तू तक के दर्शन में भारतीय दिक्-भूगोल और ज्ञान-मीमांसा का छाप पड़ा हुआ है। अंग्रेजीभाषी पश्चिमी जन ज्ञानोदय को औद्योगिकी-प्रौद्योगिकी के लिहाफ़ में अर्जित करते हैं; जबकि हम भारतीयों ने इसका संरक्षण ज्ञानात्मक-संवेदन और संवेदनात्मक-ज्ञान की अंतःसृजन व समिधा द्वारा संभव किया है।

शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

अपने बच्चों के शिक्षक/शिक्षिका के नाम ख़त



हवा के इस विपरीत रूख को देखते हुए ही मैंने अपने बच्चों को उन कतरनों से दूर रखा है जो मुझे बेइंतहा पीड़ा देते हैं; दर्द को असहनीय और गहरा बनाते हैं। मैंने अपना अधिकांश जीवन जिन चीजों में नष्ट(?) किया उसे देखकर कभी मुझे ग्लानी नहीं हुई; लेकिन जब उनको ही मेरे बेकार/बेरोजगार होने का जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है तो भारी तकलीफ़ होती है। वह वह समय था जब मैं मैट्रीक यानी हाईस्कूल पास किया था। इस दुनिया के बारे में हमारी समझ बौनी थी लेकिन विचार कुंठित नहीं थे। हम 16 वर्ष की अवस्था में चारित्रिक मूल्य एवं नैतिक निष्ठा का अर्थ-आशय समझते थे। आज उसी राह के सिरे पकड़े हम और हमारी सोच कूड़ा-करकट हो गए हैं। अपनी लिखी दर्जनों कहानियों के शब्द, भाषा, विचार और अर्थ मुझे काट खाने को दौड़ते हैं; क्योंकि वे अब मेरे मस्तिष्क के कोने-अंतरे से गायब हो चुकी हैं; सायास उन्हें विस्मृत कर चुका हूँ। पुरानी कागज की कतरने न संजोने/सहेजने के कारण लापाता हो गई हैं...और हम भी अपने भीतर अपनी मौत मर रहे हैं; जबकि सारी दुनिया जगमग-जगमग कर रही है। लिहाजा, ज़िदगी की व्यावहारिकता मुझे यह छूट नहीं देगी कि जो अब तक हमारे लिए ‘यूटोपिया’ ही साबित होता रहा है; उसके लिए अपने बच्चों को खेत हो जाने की सीख अथवा तालीम दूं।


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आदरणीय शिक्षक/शिक्षिका

यह ख़त हिन्दी भाषा में है। वह भी तब जब मेरे बच्चों के ‘टेक्सट बुक’ में अंग्रेजी शब्दों के अर्थ तक हिन्दी में नहीं मौजूद है। वे अंग्रेजी की शब्दावली में ही अर्थों का आइस-पाइस खेलते हैं; असेरी का पसेरी मायने बताते हैं। हम ऐसे नहीं पढ़े हैं, अतः ज्ञान का यह नया उबटन थोड़ा अजीबोगरीब लगता है। मैं जानता हूँ इस बारे में आश्चर्य व्यक्त करने की भी मनाही है क्योंकि आधुनिक समाज में इसे ख़ालिस भारतीयों का पिछड़ापन मान लिया गया है। समय तेजी से बदल रहा है। अब नरेन्द्र मोदी माफ़िक राजनीतिक गुरु हमारे भाग्य विधाता हैं जिनका भारी जोर सबकुछ पेपरलेस करने अथवा डिजिटल बनाने पर है। रचाव-बनाव की इसी प्रक्रिया में मैंने अपने बच्चों को आपके विद्यालय में सुपूर्द किया है। आशा है, जिस ओर ज़माने की हवा है उधर की ओर अपनी नाक करने की सीख आप मेरे बच्चों को दे रहे होंगे।

प्रिय शिक्षक/शिक्षिका, मेरे बच्चों को आप बता रहे होंगे कि पैसा कमाना हर सूरत में जरूरी है। यह भी बताना आप नहीं भूलते होंगे कि दुनिया में कोई ऐसी जगह नहीं है जहाँ बीमार, गरीब, भूखे, नंगे, पीड़ित, लाचार, बेबस जैसे लोग न हो। अतः  प  उन्हें यह सख़्त हिदायत दे रहे होंगे कि दुनिया को बदलने का ख़्वाब देखने से अच्छा है कि खुद की ज़िन्दगी बदल ली जाए। आज ज़माने का मिज़ाज ही कुछ ऐसा है कि मेरे बच्चे फादर्स डे, मदर्स डे, टीचर्स डे मनाना या कहें सेलीब्रेट करना अपनी आज़ादी का सबसे बड़े जश्न में शामिल होना मान लेंगे।

लेकिन एक सच बताऊँ...जबकि इस बात पर आपसब मेरी ‘बाबा जी का ठुल्लू’ टाइप हँसी उड़ा सकते हैं; अपने समय में मैंने दुनिया को बनाने का हसीन सपना देखा था। हम अपनी उम्र में स्वयं के भीतर एक मूल्य रोप रहे थे अपनी समाज ख़ातिर; उसी की चिंता में रात-दिन घुल रहे थे, विचारों की दुनिया में मर-खप और पंवर रहे थे; आज हमारी दशा बुझे जलावन की राख जैसी हो गई है। आज हम अपनी कीमत में ‘प्राइस-लेस’ हैं; जबकि अपनी मौज में रहने वाले हमारे ही साथी गाड़ी-बंगलों  साथ इंतमिनान की रोटी तोड़ रहे हैं। वे साफ़ कहते हैं कि आज की दुनिया उसी की सुनती है जिसके पास दुनिया को दिखाने के लिए कुछ हो; फ़कीरों के आदर्श कभी कोई उदाहरण नहीं बनते हैं। उन सबका यह भी कहना है कि मोदी जी की तरह ऐसा 'मास्टरपीस' बनो कि जो राजनीतिक अर्थों में तय गरीबी-रेखा की परिधि में नंगा/अधनंगा है वह भी फ़िदा हो; और जिसके भीतरी-बाहरी आचरण-व्यवहार में नंगई कूट-कूट कर भरी हो; वह भी मुसकाना न भूले। मेरा अपना मूल्यांकन तो यह है कि मोदी जी यदि श्रीगणेश जी के लिए रोज मोदक-लड्डू बनाना शुरू कर दें और उसका लाइव-टेलीकास्ट संभव(भारत में कुछ भी होना असंभव नहीं है) करा दिया जाये, तो जनता के अच्छे दिन यों ही पूरे आ जाएंगे। वैसे  भी गणेशपूजक जनता अमीर अथवा संपन्न होना कहाँ चाहती है? आप वोट कराके देख लीजिए, सिविल सोसायटीयन इस जनता(नई पीढ़ी) को तो बस स्मार्ट फोन, एलईडी टीवी, ओ.एल.एक्स. टाइप आसानी से सामान बेचू साइटों का नाम पता, अच्छी सड़के, बुलेट ट्रेन, ए.सी. कमरे, बिग बाज़ार, मल्टीप्लेक्स सिनेमा....भर चाहिए। जबकि बहुसंख्यक भारतीय जनमानस का जनमत मास-कम्युनिकेशन की शब्दावली में ‘स्पाइरल आॅफ साइलेंस’ के हवाले है।

अतः हवा के इस विपरीत रूख को देखते हुए ही मैंने अपने बच्चों को उन कतरनों से दूर रखा है जो मुझे बेइंतहा पीड़ा देते हैं; दर्द को असहनीय और गहरा बनाते हैं। मैंने अपना अधिकांश जीवन जिन चीजों में नष्ट(?) किया उसे देखकर कभी मुझे ग्लानी नहीं हुई; लेकिन जब उनको ही मेरे बेकार/बेरोजगार होने का जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है तो भारी तकलीफ़ होती है। वह वह समय था जब मैं मैट्रीक यानी हाईस्कूल पास किया था। इस दुनिया के बारे में हमारी समझ बौनी थी लेकिन विचार कुंठित नहीं थे। हम 16 वर्ष की अवस्था में चारित्रिक मूल्य एवं नैतिक निष्ठा का अर्थ-आशय समझते थे। आज उसी राह के सिरे पकड़े हम और हमारी सोच कूड़ा-करकट हो गए हैं। अपनी लिखी दर्जनों कहानियों के शब्द, भाषा, विचार और अर्थ मुझे काट खाने को दौड़ते हैं; क्योंकि वे अब मेरे मस्तिष्क के कोने-अंतरे से गायब हो चुकी हैं; सायास उन्हें विस्मृत कर चुका हूँ। पुरानी कागज की कतरने न संजोने/सहेजने के कारण लापाता हो गई हैं...और हम भी अपने भीतर अपनी मौत मर रहे हैं; जबकि सारी दुनिया जगमग-जगमग कर रही है। लिहाजा, ज़िदगी की व्यावहारिकता मुझे यह छूट नहीं देगी कि जो अब तक हमारे लिए ‘यूटोपिया’ ही साबित होता रहा है; उसके लिए अपने बच्चों को खेत हो जाने की सीख अथवा तालीम दूं।

प्रिय शिक्षक/शिक्षिका, यह भी सचाई है कि आपसब की मार्गदर्शन में मेरे बच्चे इसी तरह पढ़ते-लिखते रहे, तो वे जल्द ही इस काबिल बन जाएंगे कि मुझे अपनी भाषा में पागल समझने लगें या कि हमारी आलोचना करने लगें, नीचा दिखाने लगें...क्योंकि आपसब उसकी निर्मिति काल में जिस भाषा को सबसे कमत्तर आंक रहे हैं....वह हमारी मातृभाषा है जो भीतरी संस्कार विकसित करने के लिए सामाजिक वातावरण-परिवेश का अवलम्ब अधिक लेती रही है; सरकारी नियामक इस कार्य के लिए सर्वथा अक्षम साबित होते रहे हैं। वैसे भी हिन्दी भाषा के जो अकादमिक/सांस्थानिक करमधार हैं उन्हें इसकी रोटी खाते और गाल बजाते हुए देखा जा सकता है। भाषा की तीमारदारी में जुटे ऐसे नामचीन और झंडाबदार लोग नौकरी लगते ही  बंगला-गाड़ी की व्यवस्था में भीड़ जाते हैं;जिनके घरों के दीवारों के रंगरोगन मात्र लाखों में होते हैं; तो बाथरूम शीशमहल जैसा आलीशान होता है। उनकी नवगढ़ित भाषा में ज्ञान का अर्थ ही है-वास्तविक जीवन का गौण होना; जबकि जीवन से जुड़ी  वेराइटियों/फ्लेवरों का विविध होना। आज ‘वैरिएशन आॅफ टेस्ट’ बहुत है लेकिन अपनी भाषा में खुद को अभिव्यक्त करने योग्य शब्दावली की आवश्यकता/औचित्य एकदम नगण्य।

प्रिय शिक्षक/शिक्षिका, हम अपनी भाषा के भगौड़े नहीं हैं; लेकिन हमारी उपस्थिति का अर्थ भविष्यसूचक नहीं है। हम अपनी भाषा से बहिष्कृत ऐसे लोग हैं जिन पर ठेठ गंवारूपन तारी है। हम जातीय-वर्चस्व की सामन्तदारी रवायतों का मुखालफ़त  करने वाले लोग हैं। हम जानते हैं कि शंतरंज के खेल में चैपड़ बिछे मोहरों संग चाहे जितनी मार-काट और हिंसा-हत्या का नृशंस खेल क्यों न खेल लिया जाए, यह जुर्म या संगीन अपराध की किसी परिभाषा में बासबूत नहीं आ सकते हैं। आज संस्कृति, कला, साहित्य, राजनीति, अर्थ-जगत, वैश्विक बाज़ार आदि में यही खेल हर रोज खेला जा रहा है। आम-अवाम की ज़िदगी की भाषा के अर्थ-अभिव्यक्ति का स्वर-ध्वनि छिना जा चुका है; वह जो बोल रही है उसे कहीं कोई दर्ज नहीं कर रहा है और जो उन तक आ रहा है उसमें उनकी कोई उपस्थिति अथवा अहमियत नहीं है। आज भाषा नियोजन की प्रबंधकीय शब्दावली में हम विक्षिप्त मालूम दे रहे हैं, या हम पर न्युगी वा थ्योंगे की मानसिकता हावी होने का जुनून चस्पा है। निश्चय ही हम अपने बच्चों के साथ ताज़िन्दगी नहीं रहेंगे; लेकिन आपसब हमारी बच्चों के भविष्य की क्या गारंटी ले रहे हैं; यह जानने का इस समय तो हमें पूरा अधिकार हैं ही? आशा है, इस आशय से सम्बन्धित आप अपना स्पष्टीकरण हमें जरूर देंगे। हम आतुर मन से प्रतीक्षा करेंगे।
सादर,

आपका विश्वासभाजन,
एक सहृदय पिता
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