रविवार, 7 सितंबर 2014

अपनी भाषा में ‘मर्दानी’

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गत रविवार को मैंने केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड द्वारा आयोजित एक परीक्षा दिया। इस परीक्षा का उद्देश्य दक्ष/प्रवीण, नवोन्मेषी चिन्तन-दृष्टि वाले बौद्धिक अध्येता की खोज करनी थी जो मौजूदा शैक्षिक कार्यक्रमों को अधिक व्यावहारिक, आनुभाविक, विद्याथी-केन्द्रित और अन्तरानुशासनिक विधाओं में निपुण बना सकें। यह जरूरी पहलकदमी है क्योंकि अरसे से यह महसूस किया जा रहा है कि समुचित एवं सर्वोचिंत संज्ञान-बोध, परामर्श और संवाद-सम्पर्क के लिए भारतीय शिक्षा पद्धति में आमूल-चूल बदलाव अत्यावश्यक है। गुणवत्तापूर्ण एवं वैश्विक नेतृत्व योग्य अध्ययन-अध्यापन की प्रणाली हमेशा हमारी प्राथमिकता में रहे हैं; विशेषत: भारतीय भाषाओं ने पूरी दुनिया में अपनी सर्वश्रेष्ठता सिद्ध किया हैं।

अफसोस! यह सब जानते हुए भी उस परीक्षा के नीति-नियंताओं ने हिन्दी भाषा को बाहर का रास्ता दिखाया और प्रश्न-पत्र सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी में परोस दिए। इस सम्बन्ध में परीक्षा-पूर्व ही मैंने एक ई-मेल किया था लेकिन किसी ने उस पर कान नहीं दिया। ये सब कारामात आजकल भारत में सायास/मंशागत तरीके से हो  रहा है; लिहाजा, हम अपने ही मुल्क में गैरों की तरह अपनी अभिव्यक्ति देने के लिए बाध्य तथा अभिशप्त है। यह जानते हुए कि यह सारा टिटिमा अधिक दिन और चलने वाला नहीं है। भारतीय भाषा अंग्रेजी-वंशवृक्ष की जन्मदात्री-भाषा है।  वे  अपनी भाषाओं को पितृभाषा कहते हैं जबकि हम मातृभाषा कहते हैं। ऐसा इन वजहों से कि भारतीय भाषा पश्चिमी/यूरोपियन भाषाओं की भी मातृभाषा मानी जाती रही हैं। यही नहीं आप श्रमपूर्वक अनुसन्धान करें और वस्तुनिष्ठ विश्वश्लेषण के पश्चात किसी ठोस निष्कर्ष पर पहुंचे तो यह बात अपनेआप सिद्ध हो जाएगी। सुकरात, प्लेटो, अरस्तू तक के दर्शन में भारतीय दिक्-भूगोल और ज्ञान-मीमांसा का छाप पड़ा हुआ है। अंग्रेजीभाषी पश्चिमी जन ज्ञानोदय को औद्योगिकी-प्रौद्योगिकी के लिहाफ़ में अर्जित करते हैं; जबकि हम भारतीयों ने इसका संरक्षण ज्ञानात्मक-संवेदन और संवेदनात्मक-ज्ञान की अंतःसृजन व समिधा द्वारा संभव किया है।

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