शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

अपने बच्चों के शिक्षक/शिक्षिका के नाम ख़त



हवा के इस विपरीत रूख को देखते हुए ही मैंने अपने बच्चों को उन कतरनों से दूर रखा है जो मुझे बेइंतहा पीड़ा देते हैं; दर्द को असहनीय और गहरा बनाते हैं। मैंने अपना अधिकांश जीवन जिन चीजों में नष्ट(?) किया उसे देखकर कभी मुझे ग्लानी नहीं हुई; लेकिन जब उनको ही मेरे बेकार/बेरोजगार होने का जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है तो भारी तकलीफ़ होती है। वह वह समय था जब मैं मैट्रीक यानी हाईस्कूल पास किया था। इस दुनिया के बारे में हमारी समझ बौनी थी लेकिन विचार कुंठित नहीं थे। हम 16 वर्ष की अवस्था में चारित्रिक मूल्य एवं नैतिक निष्ठा का अर्थ-आशय समझते थे। आज उसी राह के सिरे पकड़े हम और हमारी सोच कूड़ा-करकट हो गए हैं। अपनी लिखी दर्जनों कहानियों के शब्द, भाषा, विचार और अर्थ मुझे काट खाने को दौड़ते हैं; क्योंकि वे अब मेरे मस्तिष्क के कोने-अंतरे से गायब हो चुकी हैं; सायास उन्हें विस्मृत कर चुका हूँ। पुरानी कागज की कतरने न संजोने/सहेजने के कारण लापाता हो गई हैं...और हम भी अपने भीतर अपनी मौत मर रहे हैं; जबकि सारी दुनिया जगमग-जगमग कर रही है। लिहाजा, ज़िदगी की व्यावहारिकता मुझे यह छूट नहीं देगी कि जो अब तक हमारे लिए ‘यूटोपिया’ ही साबित होता रहा है; उसके लिए अपने बच्चों को खेत हो जाने की सीख अथवा तालीम दूं।


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आदरणीय शिक्षक/शिक्षिका

यह ख़त हिन्दी भाषा में है। वह भी तब जब मेरे बच्चों के ‘टेक्सट बुक’ में अंग्रेजी शब्दों के अर्थ तक हिन्दी में नहीं मौजूद है। वे अंग्रेजी की शब्दावली में ही अर्थों का आइस-पाइस खेलते हैं; असेरी का पसेरी मायने बताते हैं। हम ऐसे नहीं पढ़े हैं, अतः ज्ञान का यह नया उबटन थोड़ा अजीबोगरीब लगता है। मैं जानता हूँ इस बारे में आश्चर्य व्यक्त करने की भी मनाही है क्योंकि आधुनिक समाज में इसे ख़ालिस भारतीयों का पिछड़ापन मान लिया गया है। समय तेजी से बदल रहा है। अब नरेन्द्र मोदी माफ़िक राजनीतिक गुरु हमारे भाग्य विधाता हैं जिनका भारी जोर सबकुछ पेपरलेस करने अथवा डिजिटल बनाने पर है। रचाव-बनाव की इसी प्रक्रिया में मैंने अपने बच्चों को आपके विद्यालय में सुपूर्द किया है। आशा है, जिस ओर ज़माने की हवा है उधर की ओर अपनी नाक करने की सीख आप मेरे बच्चों को दे रहे होंगे।

प्रिय शिक्षक/शिक्षिका, मेरे बच्चों को आप बता रहे होंगे कि पैसा कमाना हर सूरत में जरूरी है। यह भी बताना आप नहीं भूलते होंगे कि दुनिया में कोई ऐसी जगह नहीं है जहाँ बीमार, गरीब, भूखे, नंगे, पीड़ित, लाचार, बेबस जैसे लोग न हो। अतः  प  उन्हें यह सख़्त हिदायत दे रहे होंगे कि दुनिया को बदलने का ख़्वाब देखने से अच्छा है कि खुद की ज़िन्दगी बदल ली जाए। आज ज़माने का मिज़ाज ही कुछ ऐसा है कि मेरे बच्चे फादर्स डे, मदर्स डे, टीचर्स डे मनाना या कहें सेलीब्रेट करना अपनी आज़ादी का सबसे बड़े जश्न में शामिल होना मान लेंगे।

लेकिन एक सच बताऊँ...जबकि इस बात पर आपसब मेरी ‘बाबा जी का ठुल्लू’ टाइप हँसी उड़ा सकते हैं; अपने समय में मैंने दुनिया को बनाने का हसीन सपना देखा था। हम अपनी उम्र में स्वयं के भीतर एक मूल्य रोप रहे थे अपनी समाज ख़ातिर; उसी की चिंता में रात-दिन घुल रहे थे, विचारों की दुनिया में मर-खप और पंवर रहे थे; आज हमारी दशा बुझे जलावन की राख जैसी हो गई है। आज हम अपनी कीमत में ‘प्राइस-लेस’ हैं; जबकि अपनी मौज में रहने वाले हमारे ही साथी गाड़ी-बंगलों  साथ इंतमिनान की रोटी तोड़ रहे हैं। वे साफ़ कहते हैं कि आज की दुनिया उसी की सुनती है जिसके पास दुनिया को दिखाने के लिए कुछ हो; फ़कीरों के आदर्श कभी कोई उदाहरण नहीं बनते हैं। उन सबका यह भी कहना है कि मोदी जी की तरह ऐसा 'मास्टरपीस' बनो कि जो राजनीतिक अर्थों में तय गरीबी-रेखा की परिधि में नंगा/अधनंगा है वह भी फ़िदा हो; और जिसके भीतरी-बाहरी आचरण-व्यवहार में नंगई कूट-कूट कर भरी हो; वह भी मुसकाना न भूले। मेरा अपना मूल्यांकन तो यह है कि मोदी जी यदि श्रीगणेश जी के लिए रोज मोदक-लड्डू बनाना शुरू कर दें और उसका लाइव-टेलीकास्ट संभव(भारत में कुछ भी होना असंभव नहीं है) करा दिया जाये, तो जनता के अच्छे दिन यों ही पूरे आ जाएंगे। वैसे  भी गणेशपूजक जनता अमीर अथवा संपन्न होना कहाँ चाहती है? आप वोट कराके देख लीजिए, सिविल सोसायटीयन इस जनता(नई पीढ़ी) को तो बस स्मार्ट फोन, एलईडी टीवी, ओ.एल.एक्स. टाइप आसानी से सामान बेचू साइटों का नाम पता, अच्छी सड़के, बुलेट ट्रेन, ए.सी. कमरे, बिग बाज़ार, मल्टीप्लेक्स सिनेमा....भर चाहिए। जबकि बहुसंख्यक भारतीय जनमानस का जनमत मास-कम्युनिकेशन की शब्दावली में ‘स्पाइरल आॅफ साइलेंस’ के हवाले है।

अतः हवा के इस विपरीत रूख को देखते हुए ही मैंने अपने बच्चों को उन कतरनों से दूर रखा है जो मुझे बेइंतहा पीड़ा देते हैं; दर्द को असहनीय और गहरा बनाते हैं। मैंने अपना अधिकांश जीवन जिन चीजों में नष्ट(?) किया उसे देखकर कभी मुझे ग्लानी नहीं हुई; लेकिन जब उनको ही मेरे बेकार/बेरोजगार होने का जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है तो भारी तकलीफ़ होती है। वह वह समय था जब मैं मैट्रीक यानी हाईस्कूल पास किया था। इस दुनिया के बारे में हमारी समझ बौनी थी लेकिन विचार कुंठित नहीं थे। हम 16 वर्ष की अवस्था में चारित्रिक मूल्य एवं नैतिक निष्ठा का अर्थ-आशय समझते थे। आज उसी राह के सिरे पकड़े हम और हमारी सोच कूड़ा-करकट हो गए हैं। अपनी लिखी दर्जनों कहानियों के शब्द, भाषा, विचार और अर्थ मुझे काट खाने को दौड़ते हैं; क्योंकि वे अब मेरे मस्तिष्क के कोने-अंतरे से गायब हो चुकी हैं; सायास उन्हें विस्मृत कर चुका हूँ। पुरानी कागज की कतरने न संजोने/सहेजने के कारण लापाता हो गई हैं...और हम भी अपने भीतर अपनी मौत मर रहे हैं; जबकि सारी दुनिया जगमग-जगमग कर रही है। लिहाजा, ज़िदगी की व्यावहारिकता मुझे यह छूट नहीं देगी कि जो अब तक हमारे लिए ‘यूटोपिया’ ही साबित होता रहा है; उसके लिए अपने बच्चों को खेत हो जाने की सीख अथवा तालीम दूं।

प्रिय शिक्षक/शिक्षिका, यह भी सचाई है कि आपसब की मार्गदर्शन में मेरे बच्चे इसी तरह पढ़ते-लिखते रहे, तो वे जल्द ही इस काबिल बन जाएंगे कि मुझे अपनी भाषा में पागल समझने लगें या कि हमारी आलोचना करने लगें, नीचा दिखाने लगें...क्योंकि आपसब उसकी निर्मिति काल में जिस भाषा को सबसे कमत्तर आंक रहे हैं....वह हमारी मातृभाषा है जो भीतरी संस्कार विकसित करने के लिए सामाजिक वातावरण-परिवेश का अवलम्ब अधिक लेती रही है; सरकारी नियामक इस कार्य के लिए सर्वथा अक्षम साबित होते रहे हैं। वैसे भी हिन्दी भाषा के जो अकादमिक/सांस्थानिक करमधार हैं उन्हें इसकी रोटी खाते और गाल बजाते हुए देखा जा सकता है। भाषा की तीमारदारी में जुटे ऐसे नामचीन और झंडाबदार लोग नौकरी लगते ही  बंगला-गाड़ी की व्यवस्था में भीड़ जाते हैं;जिनके घरों के दीवारों के रंगरोगन मात्र लाखों में होते हैं; तो बाथरूम शीशमहल जैसा आलीशान होता है। उनकी नवगढ़ित भाषा में ज्ञान का अर्थ ही है-वास्तविक जीवन का गौण होना; जबकि जीवन से जुड़ी  वेराइटियों/फ्लेवरों का विविध होना। आज ‘वैरिएशन आॅफ टेस्ट’ बहुत है लेकिन अपनी भाषा में खुद को अभिव्यक्त करने योग्य शब्दावली की आवश्यकता/औचित्य एकदम नगण्य।

प्रिय शिक्षक/शिक्षिका, हम अपनी भाषा के भगौड़े नहीं हैं; लेकिन हमारी उपस्थिति का अर्थ भविष्यसूचक नहीं है। हम अपनी भाषा से बहिष्कृत ऐसे लोग हैं जिन पर ठेठ गंवारूपन तारी है। हम जातीय-वर्चस्व की सामन्तदारी रवायतों का मुखालफ़त  करने वाले लोग हैं। हम जानते हैं कि शंतरंज के खेल में चैपड़ बिछे मोहरों संग चाहे जितनी मार-काट और हिंसा-हत्या का नृशंस खेल क्यों न खेल लिया जाए, यह जुर्म या संगीन अपराध की किसी परिभाषा में बासबूत नहीं आ सकते हैं। आज संस्कृति, कला, साहित्य, राजनीति, अर्थ-जगत, वैश्विक बाज़ार आदि में यही खेल हर रोज खेला जा रहा है। आम-अवाम की ज़िदगी की भाषा के अर्थ-अभिव्यक्ति का स्वर-ध्वनि छिना जा चुका है; वह जो बोल रही है उसे कहीं कोई दर्ज नहीं कर रहा है और जो उन तक आ रहा है उसमें उनकी कोई उपस्थिति अथवा अहमियत नहीं है। आज भाषा नियोजन की प्रबंधकीय शब्दावली में हम विक्षिप्त मालूम दे रहे हैं, या हम पर न्युगी वा थ्योंगे की मानसिकता हावी होने का जुनून चस्पा है। निश्चय ही हम अपने बच्चों के साथ ताज़िन्दगी नहीं रहेंगे; लेकिन आपसब हमारी बच्चों के भविष्य की क्या गारंटी ले रहे हैं; यह जानने का इस समय तो हमें पूरा अधिकार हैं ही? आशा है, इस आशय से सम्बन्धित आप अपना स्पष्टीकरण हमें जरूर देंगे। हम आतुर मन से प्रतीक्षा करेंगे।
सादर,

आपका विश्वासभाजन,
एक सहृदय पिता
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