मंगलवार, 11 नवंबर 2014

पासआॅउट कैरेक्टर : अब तक जो जिया

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उस बड़े से हाॅल में कई मानिंद लोग बैठे हैं। मैं प्रतीक्षारत हूँ। यह अख़बार का दफ़्तर है। मुझे किसी कबूतरखाने से कम नहीं लग रहा है। पता नहीं कैसे इस माहौल में जीते-खाते हुए लोग जन-सरोकार की पींगे भरते हैं, सामाजिक दृष्टिकोण से पगे हुए वैचारिक लेख लिखते हैं....? ओह! मैं इसी उधेड़बुन के साथ दो बार कैंटीन का चाय गटक गया हूँ। अब तीसरे का इरादा नहीं है। ये डोरी टंगी चायपति वाली चाय देते हैं। हाथ लगी चाय को डोरी के सहारे ऊपर-नीचे करना अजीबोगरीब लगता है। लेकिन, कम्बख़त तलब ही ऐसी है कि ज़ल्लाद वाली भूमिका का भी निवर्हन करना पड़ता है। आजकल शहर में सबकुछ बदले हुए ‘पैटर्न’ और ‘मैनर’ का है। शौचालय तक अपने तरीके का नहीं है। किसी तरह निपटना ही पड़ता है। यह ‘माॅडलाइजेशन’ या कहें ‘माॅडर्नाइजेशन’ देशी मिज़ाज के लोगों को काफी भारी पड़ता है। खैर! पिछले तीन दिन से अपने दोस्त के यहाँ रूका हूँ। वह एक नामचीन अख़बार के वेब-संस्करण में है। कल वह नाइट-शिफ़्ट में देर रात लौटा था। उसके साथ उसकी महिला-मित्र थी। दोस्त ने परिचय कराया, तो उस लड़की ने बड़े लहज़े में ‘हाय!’ कहा था; फिर दोनों कुदक कर एक ही बिस्तर में सो गए। मैं चकित नहीं था; ये आधुनिक पत्रकारिता के भविष्य थे। पुराने ‘टाइप-फेस’ और ‘ले-आउट’ की जगह नए ढंग के डमी-निर्माण में दक्ष/प्रवीण वेबजाॅनी पत्रकार। इनकी दुनिया में ‘सेक्स’ एक शारीरिक जरूरत है जिसके लिए आपसी ‘अण्डरस्टैण्डिग’ होना जरूरी है और काफी भी।

उसी वक्त मुझे युवती रिसेप्सनिस्ट ने नजदीक बुलाया था।

‘‘सर! आप अन्दर जा सकते हैं...,’’ उसकी आवाज़ में खनक भरी मुसकान भी घुली थी।

‘‘याऽ! कम एण्ड सिट डाउन प्लीज!’’ कार्यकारी सम्पादक ने मेरी आवभगत करते हुए कहा था। मुझे अच्छा लगा।

अगली दो पंक्तियों में मैंने अपना परिचय दिया और साथ लाया पोर्टफोलियो आगे कर दिया। अलग से रेज़्यूमे भी उनकी ओर सरका दिया था। अन्दरखाने का माहौल टीप-टाॅप था। सुडौल और नक्काशीदार मेहराबों के साथ बना हुआ एक आधुनिक कमरा, सुसज्जित कक्ष। खिड़कियों में अलग-अलग किन्तु लम्बे-लम्बे कपड़ानुमा टुकड़े लटके थे। कई डोरियाँ भी आस-पास लगी हुई थीं। खिड़की के टुकड़े पोस्टआॅफिस के स्पीडपोस्ट काउंटर के प्रिंटर में लगने वाले कागज की चैड़ाई वाले नाप के थें। कमरे की ढेरों खासियत मैंने पढ़ ली थी। लेकिन, मैं मौन था। इस वक्त जिस शख़्स को बोलना था; मैं उसकी ओर टकटकी लगाए देख रहा था। इतने बड़े अख़बार के नामचीन सम्पादक से मैं रू-ब-रू था; इनके ‘बोल बच्चन’ पर मेरा भविष्य टीका था। 34 साल की उम्र में नौकरी की तलाश कितनी तक़लीफ़देह होती है, यह मेरे आँख में तैर रहा था। वह अनमने भाव से मेरा पोर्टफोलियो पलट रहे थे। मैंने जानबूझकर उस जगह पर अपनी निग़ाह टीका दी थी; लिखा था-‘अमेरिकी इरादों का डीएनए टेस्ट जरूरी’(राजीव रंजन प्रसाद); जबकि इस घड़ी मेरा डीएनए टेस्ट हो रहा था। मुझे उनके भाव पड़ते देर नहीं लगे। उनकी मनोभाषिकी का जो रुख मेरे समझ में आया; वह मज़मून कुछ खास नहीं था।

‘‘आपका रेज़्यूमे रख लेता हूँ, आपको इस बाबत मेल मिल जाएगी। और गुरुजी आपके कैसे हैं? स्वस्थ हैं न! उन्होंने आपके बारे में मुझसे आपकी तारीफ़ की थी; देखिए, मैं आपके बारे में क्या कर सकता हूँ? ओ.के. नाइस डे’’
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सम्पादक महोदय के केबिन से निकलते ही देखा, तो मेहरारू ने ताबड़तोड़ 4 काॅल कर डाले थे। मैं उसका नम्बर देखते ही भीतर से सहम गया था। लेकिन हिम्मत कर फोन उठाया और हैलो कहने के बाद समझाने के लहजे में बेलागलपेट कहा था-‘‘क्या हुआ का क्या मतलब! आज भी तो मिला ही हूँ; हर कोई आश्वासन दे रहा है। देखो यार! काम की तलाश में कुछ वक्त तो लगेंगे ही। बच्चों का ख्याल रखना। अबकी बार आता हूँ तो बच्चों का फीस एडवांस में ही तीन महीने का जमा कर दूँगा। मकान किराये का भी कुछ ऐसा ही इंतजाम कर दूँगा। सारी किचपिच दूर हो जाएगी। सुनो, टेंशन मत लो तुम!’’

दरअसल, रिसर्च के दौरान ही मैं अपने पूरे परिवार को बनारस ले आया था। यूजीसी की जेआरएफ-एसआरएफ थी, तो मौज से चली सब ठीक-ठाक। दीपू के कान के इलाज़ में जो खर्च हुआ था; उसे भी मैं बिना किसी दिक्कतदारी का वहन कर ले गया था, तो इसी वजह से कि स्काॅलरशीप मिल रही थी। मैंने कई मित्रों की मदद की थी; आज कई असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। लेकिन वे मेरे लिए कर भी क्या सकते हैं। उनकी अपनी दुनिया है की नहीं-फ्लैट, कार, घर के साज़ो-सामान आदि-आदि। 

कई मर्तबा सोचता हूँ। मेरा नाम डाॅ. राजीव रंजन प्रसाद हो जाना एक गाली है। इससे अच्छा है कि कोई मुझे राजू कहे, रजीबा कहे। ये डाॅक्टरी उपसर्ग बिलावज़ह टंग गया था। नाम में डिग्रियों की नक्काशी करने से आमदनी नहीं होती है; इतना तो मैं उस वक्त भी जानता था और इस वक्त भी जान रहा हूँ। काशी हिन्दू विश्वविद्यालये के जिस शोध-प्रबन्ध को तैयार करने में मैंने अपने जीवन का सारा सुख-चैन दाँव पर लगा दिया था; आज वे धूल के हवाले हैं। कई अकादमिक इंटरव्यू दिए, सब एक ही बात  दुहराते हैं-‘‘मेकअप इन इंग्लिश प्लीज!’ मैं अपना-सा मुँह ले कर रह जाता था।......

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