मंगलवार, 23 सितंबर 2014

भाषा की मुश्किलों का मसला

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21 सितम्बर को प्रकाशित ‘जनसत्ता’ अख़बार के आलेख ‘हिंदी की मुश्किलें’ पर राजीव रंजन प्रसाद की टिप्पणी
 
कई मर्तबा स्तंभ लेखकों की समझ सम्बन्धी कच्चापन/बौनापन को देख-पढ़ कर मन
खराब हो जाता है। दिलीप खान का लिखा ‘हिंदी की मुश्किलें’(21 सितम्बर)
इसका एक उदाहरण है। वे लिखते हैं-‘सामाजिक विज्ञान से लेकर दूसरे
अनुशासनों में अनुवादों को छोड़ दें तो हिंदी में कितना मूल-लेखन हुआ है?’
इसी में आगे वह अपनी पुरोहिताई(?) का फतवा जारी करने से भी नहीं
हिचकते/चूकते हैं-‘हिंदी के लिए चिंता करने के बजाए इस भाषा को
जानने-समझने वाले लोग इसमें ज्ञान सृजन करें। यह सृजनात्मकता अगर स्थगित
रही, तो बहुत मुमकिन है कि भविष्य में हिंदी का कोई भी बेहतर लेखन पाठकों
को यह भरोसा दिलाने में नाकाम रहेगा कि वह सचमुच मौलिक और बौद्धिक मानदंड
पर खरा उतरने वाला लेखन है। हिंदी में लद्धड़ किस्म की किताबों का इसी
रफ़्तार से छपना जारी रहा तो सचमुच हिंदी में इन अनुशासनों को पढ़ने से
विश्वास ही उठ जाएगा।’

प्रश्न है, आप इतने आशंकित और निराश क्यों हैं? आपने स्वयं कितना पढ़ा और
जाना है, हिंदी भाषा के लुर-लछन, बोल-बर्ताव, गति-मति, भाव-अनुभाव,
ज्ञान-विज्ञान, संस्कार-सरोकार इत्यादि को। क्या आपने हिंदी में छपी
सीएसडीएस की पत्रिका ‘प्रतिमान’ का एक अंक भी पढ़ा है? हम उसके लिए साढ़े
तीन सौ रुपए तक खरच देते हैं। क्या वह आपकी दृष्टि में लद्धड़ लेखन का
हिस्सा-हासिल है? रहने दीजिए महराज! आपके भीतर हंसी, विस्मय, जुगुप्सा
पैदा करती हिंदी का जो प्रेत वास कर गया है वह शायद लद्धड़ लेखन के झरोखे
से ही दाखिल हुआ हो। हिंदी में लद्धड़ लेखन है; लेकिन इसे
इंटरनेटी-वेबसाइट का ‘रेड ट्यूब’ कहा जाता है जो अंग्रेजी में कितनी
विपुल और विशाल है, आप अवश्य परिचित होंगे। आपने यदि गम्भीरतापूर्वक बिना
किसी पूर्वग्रह के अध्ययन-अवलोकन किया हो, तो आप जान पाए होंगे कि हमारे
यहाँ हिन्दी में ज्ञान आधारित प्रभूत सामग्री मौजूद है; तब भी हम
वास्तविक चर्चा-विमर्श कम विलापी-बतकुचन अधिक करते हैं। हिन्दी भाषा के
प्रति ज़ाहिर/उजागर इस किस्म के प्रायोजित रुदन से हिंदी की मुश्किलें हल
नहीं होने वाली हैं; और न ही ऐसे ढपोरशंखी रवैयों से हमारे ज्ञान-आधारित
विवेक-विश्वास का स्तर ऊपर उठ सकता है। आज नई पीढ़ी और नवाचारयुक्त सोच के
अगुवाजन सप्रयास अपनी भाषा को तकनीकी-प्रौद्योगिकी के हर
खाँचें(यूनीकोडीकरण) में संजोने-सहेजने में जिस तरह लट हैं; उनकी सुध
लेने वाले सरकार के सटोरिए और पुरस्कार के बंदरबाँट मचाने वाले कहाँ-कहीं
दिखाई पड़ते हैं? अतएव अंग्रेजी भाषा के जानकार जो स्वयं अपनी मातृभाषा,
साहित्य, ज्ञान, विज्ञान, सूचना, संस्कृति, मूल्य आदि की संचारयुक्त
तकनीकी अनुप्रयोगों और उपादानों से मीलों दूर हैं; उन्हें यह कहने-सुनने
का कोई अधिकार-हक़ नहीं बनता है कि हिन्दी लेखन के नाम पर लद्धड़ लेखन हो
रहा है या कि उनमें बौद्धिक स्तर का अभाव, सिद्धान्तों-अवधारणाओं का लोप
और सतहीपन तारी है।

मैं यहाँ यह भी ताकीद कर देना चाहता हूँ कि सिर्फ लिपियों के
लिपिस्टक-पुते(रंगीन-आकर्षक मुद्रण व छाप-छपाई वाला अंग्रेजी
टिप्स-टेक्नीक) चेहरों से सर्जनात्मकता नहीं आती है; विज्ञापनों के खोल
में लपेटकर सतही विचार परोसने से ज्ञान एवं समझ की मीयाद नहीं बढ़ती या
विकसित होती है। उसके लिए तो मुक्तिबोध की शब्दावली वाली ‘ज्ञानात्मक
संवेदन’ और ‘संवेदनात्मक ज्ञान’ का सहृदय तल व धरातल चाहिए। इसके
अतिरिक्त भाषा में बरती जाने वाली भाव, संवेदना, संज्ञान, चिन्तन, तर्क,
विचार, कल्पना, स्वप्न आदि का महीन बोध और लोक-प्रत्यक्षीकरण आवश्यक है।
यह काबीलियत ज्ञान-वर्चस्व अथवा बौद्धिक संपदा अधिकार की
अमेरिकन-योरोपियन प्रणाली/प्रक्रिया से नहीं आ सकती है जिसके मूल में ही
है कि किसी सम्प्रभु राष्ट्र के आत्मगौरव और आत्मसम्मान को कुचल देना;
दृढ़संकल्पित भावना और कर्तव्यनिष्ठ इच्छाशक्ति रखने वाले सहज मनुष्य और
उनकी मातृ-भाषाओं को विश्व-बाज़ार में निलाम कर देना; मुल्क की अस्मिता,
संस्कृति और विरासत को सियासी प्रभावातिरेक और नवसाम्राज्यवादी गठजोड़
द्वारा कुंठित/दमित कर देना आदि-आदि।

दरअसल, आज जनसाधारण में अंग्रेजी भाषा को लेकर सनक नहीं बल्कि हदस समायी
हुई है। यह सरकारी हनक, हुरपेट और हीनताबोध का नतीजा है। आज ग्रामीण
परिवेश के आमजन अपने बच्चों को अंग्रेजी विद्यालयों में भेज रहे हैं;
ताकि उनका बच्चा कमाने लायक कुछ सहूर सीख सके; क्योंकि यह बात चहुँओर
फैलाई जा रही है कि हिन्दी भाषा जानने वालों के भीतर दक्षता-कौशल निर्माण
की गुंजाइश  न के बराबर है। उन्हें धीरे-धीरे यह भान हो चला है कि अपनी
चारित्रिक निष्ठा और लोकतांत्रिक चेतना से बरी हो चुकी सरकारी मिशनरियों
के मुआफ़िक अंग्रेजी का ज्ञान न हो, तो उन्हें अपनी आजीविका के लाले पड़
जाएंगे; अंग्रेजीदां बिरादरी उनकी सोच, समझ और दृष्टि को खारिज कर देंगी
वगैरह-वगैरह। गोकि यह विडम्बना इतनी प्रबल-प्रचण्ड है कि आज भी
सरकारी/गैर-सरकारी दस्तावेज पर यह स्पष्ट निर्देश मिल जाएगा कि-‘अंग्रेजी
का लिखा ही अन्तिम रूप से सच और शुद्ध रूप से मान्य है’। अर्थात अंग्रेजी
का लिखा-छपा हर शब्द और वाक्य वेद है, ब्रह्म है और उसके वाचक-प्रवंचक
मठाधीश वेदांची। इस चुनौतिपूर्ण समय में हिंदी की असल मुश्किलों की
खोजबीन और पड़ताल आवश्यक है; लेकिन उसके लिए सर्वप्रथम हमें अपने
दुराग्रह/पूर्वग्रह के केंचुल को उतार फेंकना होगा। आमीन!
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-राजीव रंजन प्रसाद, बीएचयू, वाराणसी
 

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