2014 |
कल मोदी जी रेडियो पर दिल से बोले। देसी सीमा में ज़िन्दा मानुषों ने उन्हें सुना और सराहा भी खूब। मोदी बोलते वक्त ज़बानी टोन में एकदम विनीत हो जाते हैं। यह बड़ी खासियत है जो पहले के वक्तृतापूर्ण राजनीतिज्ञों के बोली-बात एवं कहनशैली से इन्हें भिन्न साबित करती है और अपेक्षाकृत अधिक नजदिकीयात भी महसूस कराती है। संचार का मुख्य उद्देश्य भी यही है। हमारे द्वारा भेजे गए ‘अर्थपूर्ण संदेशों’ का प्रभाव दूसरे लोगों पर होना चाहिए, वे कुछ प्रतिक्रिया दें, उनमें कुछ बदलाव आए, उनके और हमारे बीच एक साझेदारी या समझ बने; यह आवश्यक है। संचारविज्ञानियों एवं मनोभाषाविज्ञानियों ने भी इन्हें ‘पर्सन विद डिफरेंस’ के साथ वर्तमान राजनीति में नोटिस लिया है। उनकी दृष्टि में नरेन्द्र मोदी की स्नायु-शक्ति बहुत मजबूत है जो कि आन्तरिक स्नायु-मंडल द्वारा संचालित-अभिप्रेरित है। स्नायु-मंडल के अन्तर्गत आते हैं: 1) उत्तरदायित्व, 2) समयनिष्ठा, 3) सांवेगिक स्थिरता, 4) आत्मविश्वास और 5) अहम्-शक्ति। दरअसल, जनता के सामने बोलना जितना आसान है; उसके मिज़ाज को भांपना बिल्कुल कठिन।
दिनोंदिन नरेन्द्र मोदी की बढ़ती लोकप्रियता उनके व्यक्तित्व-व्यवहार का साधारण ब्याज है। इसे काॅरपोरेट प्रचार-प्रबंधकों के झांसे में पड़ चक्रवृद्धि ब्याज नहीं समझना चाहिए। यदि वे इस लोप्रियता को जन-उगाही का जरिया समझने की भूल किए, तो अधिक संभव है कि उन्हें धर्मगुरु और धर्म-प्रचारक भी नहीं माफ करेंगे। ईष्र्या(कई बार यह प्रशंसातिरेक के मुलम्मे में जाहिर-प्रदर्शित होती है) बड़ी बलवती चीज है; और मोदी के इर्द-गिर्द इसका जबर्दस्त गुब्बार-अंबार जमा होता दिख रह है। भाजपा में कुछ नहीं है। पार्टी में आया ये सारा चमक मि. प्राइम मिनिस्टर की निष्ठा, उनके बेलागपन और जन-संवाद को सबसे अधिक प्राथमिकता देने का सुफल है। इसे कृपया नकदी हस्तांतरण का विषयवस्तु नहीं समझा जाना चाहिए।
कहना न होगा कि नरेन्द्र मोदी को लेकर बौद्धिक-कहकहे खूब हैं, लेकिन स्पष्ट, पारदर्शी और वैकल्पिक अंतःदृष्टि वाले सुझाव-विचार और मत का सर्वथा अभाव भी दिख रहा है। अधिसंख्य नरेन्द्र मोदी को ललकार रहे हैं या फटकार रहे हैं या कि कुछ बिल्ला-बहादुर तो फूंफकार के तेवर और भाषा में तनतना भी रहे हैं। यह सब अनावश्यक कसरत है। साथ मिल-बहुर कर राष्ट्रीय चेतना और कर्तव्यनिष्ठा के साथ विभिन्न मिशनरी पहलकदमियों में सहभागी और सक्रिय बनने की जरूरत है।
स्वयं मोदीजी को भी जरूरत है कि वे अपने ग्रहीता-भाव को अधिक व्यापक और बहुआयामी बनाए। ‘यूनिटी फाॅर रन’ जैसे लोकप्रियतावाही आयोजन से शारीरिक कसरत जरूर थोड़े-बहुत हो जाएंगे; किन्तु उससे चारित्रिक शुद्धता, प्रतिबद्धता और समाजोन्मुख चिन्तन-दृष्टि नहीं पनप सकती है। इसके लिए विशाल-विराट मूर्तियों के अनावरण की भी जरूरत नहीं है; क्योंकि सरदार पटेल की आदमकद मूर्ति देखकर किसी भारतीय नागरिक का हित न तो सधने वाला है और न ही मोदी जी की भीतरी इच्छाशक्ति एवं संकल्पशक्ति में ही बढ़ोतरी संभव है।
एक बात और इत्तला करना जरूरी है कि मि. प्राइम मिनिस्टर को अपनी मौलिक संकल्पना, विचार-दृष्टि एवं जन-प्रतिबद्धता के माध्यम से लोकतांत्रिक व सांविधानिक दायित्व का निर्वहन करना होगा। विदेशी प्रचारकों का कलात्मक-सर्जनात्मक सम्मोहन दस्तावेजी रंगरोगन और चित्रांकन-रंखांकन के लिए ठीक है; किन्तु वैयक्तिक व्यक्त्वि, व्यवहार, नेतृत्व, निर्णय-क्षमता, समस्या-समाधान् आदि की दृष्टि से अपने कान-आंख और इन्द्रिय-बोध पर निर्भर रहना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।
काफी पहले सन् 2002 में भी सरदार पटेल को लेकर नरेन्द्र मोदी की खुब खींचतान हुई है।
2002 |
अंतिम बात, जनता जल्दी में नहीं है; बल्कि हड़बड़ी में हैं भाजपा के वे ज़मीनछोड़ राजनीतिज्ञ जो ‘मोदी’ पर कायम जनास्था को कभी लहर कहते हैं, तो कभी सुनामी। ये ऐसे मौकापरस्त लोग हैं जिनका एक ही काम रहा है अब तक-‘हम तो डूबेंगे ही सनम, तुम्हें भी ले डूबेंगे!’
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