शनिवार, 11 अक्तूबर 2014

पानी

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बंधु! खुले आसमान में
प्रकृति की कोख में पानी पलते हैं
वे अपनी इसी कोख से पानी जन्मते है

ज़मीन पर पानी को दुख कचोटता है, तो प्रकृति
आत्मविह्वल माँ-बाप की तरह
लोर भी पानी की ही भाषा में उड़ेलती है
प्रकृति अपना खून चूसकर और अतंड़ियां जलाकर
अपनी कोशिकाओं को सोखकर पानी पैदा करती है
ताकि मनुष्य को पैदा करने वाली माँ की कोख में
किसी भी सूरत में पानी बची रहे पर्याप्त

दरअसल प्रकृति वसुंधरा से अधिक मनुष्य की चिंता करती है
मानों उसके लिए मनुष्य मुख्य उत्पाद है और बाकी बचे सब बाई-प्रोडक्ट
इसीलिए प्रकृति स्वभावतः हिंस्र पशु नहीं होती...शेर, चिता, बाघ नहीं होती
वह पानी की तरह रंगहीन, स्वादहीन, रूपहीन लेकिन सबसे अहम खुराक होती है
हां, किसी के लिए ऐशगाह तो किसी के लिए जीवनदाह होती है

बंधों, प्रकृति अपनी तक़लीफों से ही धार पाती है
संकट की दुश्चिंताओं और प्रोपेगेण्डाओं के बीच पनाह पाती है
तिस पर भी वह ठठा कर बरसती है
धरती के नस-नस में घुलती-मिलती, रींजती-भींजती है
यह पानी ही कहीं नदी, तो कहीं तालाब
कहीं सागर, तो कहीं समुद्र और सैलाब का नाम पाती है
रूपासक मनुष्य कहीं सुख से बिछलाते हैं
कहीं अपना करेजा तर करते हैं
तो कहीं पितरों को तारने के बहाने भरी-पूरी नदियों को ही तार देते हैं
आज प्रकृतिदेय इसी पानी के लिए कहीं जंग, तो कहीं संगोष्ठी जारी है
कहीं अनशन, तो कहीं आन्दोलन का गुमान तारी है
साधो, आदमी के भीतर ‘आदमियत का पानी’ जितना नीचे उतर रहा है
सूरज का पारा उतना ही सातवें आसमान पर चढ़ रहा है
प्रकृति जब इस कदर सब जगह मरती है, तो भाप बन उड़ती है

शासक भौंक रहा है-‘प्रकृति बचाओ...जीवन बचाओं...पानी बचाओ’
आदमी भी बिसूर रहा है और तकनालाॅजी भी फनफना रही है
भीतर-बाहर हर जगह पीब-मवाद, फेन-गाज....बजबजा रहे हैं
आप खुद ही देखिए कि हम-आप-सब कौन-कितना प्रकृति बचा रहे हैं
आदमी फिर-फिर पैदा होता है...क्या प्रमाण है?
फिर मानिंद काफ़िर क्यों चिल्ला रहे हैं: बारिश....बारिश...बारिश!!! 

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