मंगलवार, 21 अक्तूबर 2014

पिता का पत्र अपने पुत्रों के नाम

प्रिय देव-दीप,

दशहरे में गए अब तक नहीं आये। मन नहीं लग रहा है। आज धनतेरस है। सीमा रहती, तो कुछ खरीदती भी-कटोरी, प्लेट या चम्मच कुछ भी। बहुत हिसाबी है। उसकी सीमाएं जानता हूं। गरीब घर की बेटियां चांद को हीक भर देखती हैं; लेकिन उन पर आशियाना बनाने की कभी नहीं सोचती हैं। चांद सिफारिश भी उनकी जात के लिए नहीं होता है। हम जिस घराने से हैं; वहां सबसे मिल-बहुर कर रहना ही हमारी असली हैसियत और पहचान है। गाड़ी-बंगला वाले चाहे जितना जी लें; आपस में उनका प्रेम भी दिखावटी होता है। हमारे लिए प्रेम का मतलब है सबकी आंखों में एकसमान मानुष होना।

देव-दीप, आजकल पैसे के मोल पर ज़िन्दगी को बड़ा-छोटा कहते हैं लोग। खूब भागमभाग में फंसे-धंसे लोग सबकुछ कमाते हैं; लेकिन औरों की नज़र तो छोड़िए अपनी नज़र में भी संतुष्ट नहीं रह पाते हैं। खैर!

इस बार स्काॅलशिप नहीं मिली। दिवाली बाद आएगी। इसलिए भी मैं तुमलोगों को लाने से बचा। तबतक दादा जी के यहां रहो; फिर नाना-नानी के घर चले जाना। उस दिन सीमा बता रही थी कि तुमलोगों आपस में लड़-भिड़ गए, तो तुम्हारी मम्मी ने हाथ उठाया। यह देख तुम्हारी दादी रोने लगी। बाबू अपनी मम्मी और दादी को क्यों तंग करते हो। तुम्हारी दादी, तो टीवी में समाचार देखते हुए हर-हर रोने लगती हैं। कोई भी घटना, मौत, हत्या अथवा मार-काट उन्हें बुरी तरह तकलीफ़ देता है। लेकिन उन्हें क्या पता कि दुनिया की यही असली रीत है। मनुष्य के बुद्धिशाली होने का सबूत है।

देव-दीप, कल मेरी ही तरह नये शोध में आए विद्यार्थियों की परीक्षा थी। मेरी ही ड्यूटि लगी थी। बिना खाए-पीए शाम 5 बजे तक रह गया। परीक्षा क्या मजाक करते हैं लोग। काहे का प्रोफेसर हैं। समझ में नहीं आता है। हम बच्चों को पकड़ा और बस नाध दिया। विनम्र और अपने काम के प्रति ईमानदारी दिखलाने वालों की कम फ़जीहत नहीं होती है। उन्हें लोग आसानी से पकड़ लेते हैं; और काम निकलने के बाद ईख की तरह रस चूस कर फेंक देते है। जाने दो, खुशी है कि वे हमें किसी काम के लायक तो समझते हैं। आजकल नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले प्रोफेसर कैसे पद पाते हैं; क्या कहना?

देव-दीप, सत्य और अहिंसा की बात करने वालों की चांदी है; जीने वाले मरघटिए पर हैं। मुझे मेरे लिए कोई सिफारिश नहीं कर सकता है। जाति की बलिहारी है। धर्म की मनसबदारी है। है बहुत कुछ। दुनिया इन्हीं सब चीजों से चलती है। जाने दो; मुझे खुशी है कि मैं किसी के चरणों पर लोटने का अभ्यस्त नहीं हूं। मनाता हूं कि मरूं भी, तो ऐसे ही खड़े-खड़े। और तुमलोगों के लिए...अंग्रेजी सीख रहा हूं। जिस हिन्दी को मैंने हर रोज 14-16 घंटे दिये उससे कुछ होने से रहा, तो चलें कुछ अंग्रेजी में भी हाथ आजमा लें।

देव-दीप, मैं शारीरिक रूप से इतना कमजोर या कि कृशकाय हूं कि सब कहते हैं कि आप किसी तरह खुद की और अपने परिवार की रोजी-रोटी चला लें; वही शुक् की बात है। दरअसल, ठीक कहते हैं लोग। समाज के बारे में सोचने के लिए सिर्फ सोच और दृष्टि ही नहीं; चेहरा-मोहरा, फैशन-वैशन, टीप-टाॅप.....मार्का स्टाइल-वुस्टाइल भी चाहिए होता है। अतः मेरी यहां भी दाल गलने से रही।

देव-दीप, अपनी इन्हीं सीमाओं को देखते हूं मैंने फैसला किया है कि दो पैसे कमाने भर काम करू; उससे अधिक कुछ कर भी सकूं, तो मौन रहूं। देखना, इस बार शोध-प्रबंध जमा करने में यही होगा। लोग कहेंगे-आपसे यह उम्मीद नहीं थी; खोदा पहाड़ निकली चुहिया। कहने दो रजीबा क्या है; वह खुद जानता है...वही काफी है। जब खरगोश निकलता था; तब भी नहीं बोले...अब क्या मेरा सर?

दीवाली मुबारक! तुमदोनों दादा-दादी और पूर घर के साथ इस बार दीपावली में शरीक हो...यही मेरी हसरत है।

तुम्हारा पिता
राजीव

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