सोमवार, 3 नवंबर 2014

धन-ऋण

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मेरी समझ से तो हमारे भीतर एक कुदरती/प्रकृतिप्रदत टरबाइन है जो भीतरी
द्रव-अंश में घूर्णन करता है। इसी से निकसित होता है: धन-ऋण। धन-ऋण का यह
पारस्परिक संयोजन-संगुफन ही आत्मा है जो चेतना का सूचक है और शक्ति का
निर्माता। धन का बढ़ना दिव्य होना है, जबकि ऋण-अंश बढ़ने का तात्पर्य है
चेतना-शून्य, संज्ञाशून्य, जड़ और अंततः पदार्थ रूप होना है। जहां
द्रव-अंश नहीं है वह चित्तशून्य है। यथा-नाखून, बाल इत्यादि। शिशु को
पैदा होते ही सर्वप्रथम द्रव-अंश चाहिए होता है ताकि नाल कटाई के बाद की
खुराक उसके भीतरी अंतःप्रक्रिया से स्वतः प्राप्त हो सके।  वास्तव में यह
टरबाइन ठीक वैसी ही है जैसे प्यारी छोटी घड़ी में भीतरी यांत्रिकी का
दोलन-कंपन मिनट, घंटा और समय बताते हैं। अतः मानव-शरीर के रचना में पूरी
विज्ञान कार्य-कारण-सम्बन्ध के साथ समाहित एवं उपस्थित है। बस नहीं है तो
ईश्वर। जो स्वयं को सर्वाधिक असुरक्षित मानता है अथवा भयाक्रांत होता है;
ईश्वर सबसे ज्यादा उसी के चिंतन में रहते हैं। जो दृश्य है उसका विज्ञान
आपरूप घोषित है। इसलिए उसमें न माया है और न ही सम्मोहन। लेकिन जो समक्ष
है ही नहीं उसे लेकर पंडिताई-ओझाई सर्वथा उपयुक्त राह-दिशा है। यदि
धर्मखाने न हो तो स्पर्धा निष्पक्ष, वस्तुनिष्ठ और पारदर्शी हो जाएगी।
फिर सामंती ललाओं, मठ-मठीसियों का क्या होगा? इस कारण ईश्वर को बनाए रखना
ऐसे सभी लोग चाहते हैं। उसके होने या न होने पर वैज्ञानिक चिंतन-संवाद कम
ही लोग करने को राजी होते हैं।

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