गुरुवार, 6 नवंबर 2014

सुनो-सुनो प्रधानमंत्री सुनो

काशी से राजीव रंजन प्रसाद
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‘‘.....धरती को बौनों की नहीं
ऊँचे कद के इंसानों की जरूरत है

किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं
कि पांव तले दूब ही न जमे
कोई कांटा न चुभे, कोई कली न खिले

न बसंत हो, न पतझड़
हो सिर्फ ऊँचाई का अंधड़
मात्र अकेलेपन का सन्नाटा

मेरे प्रभु
मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना
गैरों को गला लगा न सकूं
इतनी रुखाई कभी मत देना।’’

मोदी जी प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से उस रोज एकदम सुबह मिले, जिस रोज उन्हें भावी प्रधानमंत्री के रूप में शपथ लेना था। 26 मई की संध्या मनमोहक थी; मनमोहन सरकार की विदाई के बाद जो सरकार सत्ता में काबिज़ होने जा रही थी; उसका आगाज़ सम्मोहक था। टेलीविज़न सुबह से सुरियाए हुए थे। हर तरफ मोदी। हर बात में मोदी। मोदी को ख़बरिया चैनल वालों ने क्षण अथवा पल के इतने टुकड़ों में बाँट दिया था कि कई मर्तबा ऊबकाई/मितली आ रही थी। प्रशंसा और तारीफ से परहेज़-गुरेज़ नहीं की जानी चाहिए; लेकिन उसमें अतिरेक हो या अटपटापन हो; शाब्दिक लफ्फ़ाजी और भड़ैतीपन हो, तो वह आपको निश्चित ही खिजा देती है। उस रोज गोरखधाम एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त हो गई थी। दर्जनों काल-कलवित हो गए थे। सैकड़ों घायल। लेकिन मीडिया मोदीनामी गाने में इस कदर मशगूल थे, मानों वे यह साबित करना चाहते थे कि कौन किससे कितना बड़ा भाट या चारण है। ज़मीन के पत्रकार आजकल मीडिया में नहीं हैं और जो हैं वे किस मिट्टी के बने हैं; जनता को सबकुछ समझ में आ रहा था।

उस रोज मैं विनती कर रहा था। मेरे मुँह से अटल बिहारी वाजपेयी की लिखी हुई उपर्युक्त पंक्तियाँ स्फूट हो रही थीं। मुझे लग रहा था कि देश को पहली बार कोई ज़बानदार नेतृत्व मिला है; हे मेरे  ईश्वर! इस व्यक्ति को सुबुद्धि देना कि यह जनता की सोचे, ज़मीन की सोचें और ज़माने के साथ अपने मजबूत पांव को दुनिया में टिकाने का हरसंभव अवसर तलाशे। मुझ जैसे साधारण लोग जिसे मताधिकार प्राप्त है; किन्तु अपनी बात सीधे देश के मुखिया तक नहीं पहुँचा सकते हैं; अपनी पीड़ा, तकलीफ़ या औरों के लिए सोचे जाने वाले विचारों को साझा नहीं कर सकते हैं; उनके लिए मौन-याचना रामबाण है। मोदी जी ने कुछ दिनों के अन्दर ही अपनी मंशा जतानी शुरू कर दी-‘अपनी बात सीधे प्रधानमंत्री से साझा करें।’ यह डिजीटल इंडिया के प्रस्तावक द्वारा प्रत्येक भारतीयों को दिया जाने वाला एक बड़ा मौका था। लेकिन मोदी जी देश की एक बड़ी आबादी ऐसी भी है जो अपनी जान दे देती है लेकिन अपनी दुःखों की डफली नहीं बजाती; वह जंतर-मंतर पर धरना प्रदर्शन नहीं करती। वह जानती है कि आंख-दीदा वाली सरकार देर-सबेर जब आएगी; उनका दुख जरूर हर लेगी। बिना कुछ कहे, बिना कुछ मांगे।

प्रधानमंत्री ‘मेक इन इंडिया’, ‘डिजीटल इंडिया’, ‘रन फाॅर यूनिटी’, ‘स्वच्छ भारत’, ‘जन-धन योजना’, ‘सांसद ग्राम गोद योजना’ आदि मसलों पर गंभीरता से विचार कर रहे हैं। लेकिन इन विचारों  का लाभ कितना विकेन्द्रीकृत है; इस पर प्रमुखता से विचार किया जाना चाहिए। यह भारत उभरते हुए मध्यवर्ग का सिर्फ नहीं है। यह भारत उन पूँजीपतियों का ही सिर्फ नहीं है जो समाज-सेवा की सार्वजनिक छवि के समानांतर अनगिनत ऐसे काम करते हैं जिसे सही मायने में ‘करतूत’ की संज्ञा दी जानी चाहिए। लेकिन बोलेगा कौन? ख्यातनाम साहित्यकार-कवि शमशेर बहादुर सिंह कम हैं जो यह कह सकें-‘प्राण का है मृत्यु से कुछ मोल-सा; सत्य की है एक बोली, एक बात।’

नरेन्द्र मोदी अब भाजपा के चेहरे नहीं रहे। वे अब भारत का भविष्य गढ़ने वाले निर्माता हैं। उन्हें अपनी वैयक्तिकता से ऊपर उठना होगा। टेलीविज़न और नवमाध्यमों की चालाकियों के बिसात पर ‘फ्लैट’ होने की जगह उन्हें अपनी आन्तरिक शक्ति, साहस और संकल्पनिष्ठा के द्वारा सवा अरब की आबादी वाले इस मुल्क को आश्वस्त करना होगा कि वे भारत के सच्चे कुम्हार हैं; एक ऐसा सर्जक जो अपने गढ़े पात्र में इतनी पात्रता पैदा कर देने की अकूत क्षमता रखता है कि-‘औरन को शीतल करें....आपहूं शीतल होय’।
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