गुरुवार, 30 अक्तूबर 2014

Assistant Professor

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भारत में अनगिन सहायक प्राध्यापक
अनगिन प्राध्यापक
बीच वाले मध्यमार्गी भी ढेरों हैं
छठवें वेतन आयोग से साठवीं तक
इन्हें सिफ़ारिशी  भुगतान पाना है
ये ‘भारत भाग्य विधाता’ हैं
इन्हें काफी आगे जाना है

यहां तुम्हारी जरूरत नहीं है
......दूसरी ठौर देखो!

कहो-सुनो

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बहुत सोचो
नहीं बोलने के बारे में
लेकिन सुनने के लिए
अपनी कान हमेशा सजग रखो

सामने से गुजरते साईकिल की टायर देखो
पर बोलो मत
पड़क कर एकदम नजदीक आ गई
बच्चों की गेंद देखो
पर बोलो मत

बस कहने से बचो
सुनने के लिए अभ्यस्त बनो

यह दुनिया जब थक जाएगी
बोलना तुम्हारा वहां से शुरू होगा
आमीन! आमीन!! आमीन!!!

सोमवार, 27 अक्तूबर 2014

ठेंगे पर प्रमाण-पत्र

प्रमाण पत्र
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मुझे यह प्रमाणित करते हुए हर्ष का अनुभव हो रहा है कि हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रयोजनमूलक हिन्दी(पत्रकारिता) विषय के अनुसंधित्सु राजीव रंजन प्रसाद से मैं विगत 7 वर्षों  से परिचित हूँ। अपने शोधकार्य के दौरान इन्होंने स्तरीय सेमिनार-प्रस्तुति दी है। अपने कठोर परिश्रम, निष्ठा, सेवा-भावना एवं संकल्प-शक्ति के बल पर इन्होंने अपने शोध-कार्य की गुणवत्ता को उत्तरोत्तर संवृद्धि एवं स्तरीयता प्रदान की है। इनका मुख्य जोर/बल प्रयोजनमूलक हिन्दी भाषा को तकनीकी-प्रौद्योगिकी से जोड़ने एवं हिन्दी भाषा को अधिकाधिक नवाचारयुक्त बनाने की रही है। आधुनिक अभिसरण/अनुप्रयोग से संयुक्त हिन्दी की प्रयोजनीयता एवं भाषा-सम्बन्धी प्रयुक्तियों को समकालीन विषयों/सन्दर्भों/मुद्दों से जोड़ने में इनकी सम्बद्धता और सक्रियता विशेष रूप से विचारणीय है। इनके विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखन-सामग्री से इनकी पत्रकारीय-क्षमता और तद्विषयक अंतःदृष्टि पर भी प्रकाश पड़ता है।

भावी जीवन में राजीव रंजन प्रसाद के उत्तरोत्तर विकास एवं स्वस्थ-जीवन की मैं मंगलाशा करता हूँ

औसत


.....

सब के वजन को जोड़ और
सभी के कुल संख्या से भाग दे दें
प्राप्त संख्या ‘औसत’ मान होगी

इत्ती-सी बात/फार्मुला/गणित
नहीं पता.....ओह नो!

मंगलवार, 21 अक्तूबर 2014

पिता का पत्र अपने पुत्रों के नाम

प्रिय देव-दीप,

दशहरे में गए अब तक नहीं आये। मन नहीं लग रहा है। आज धनतेरस है। सीमा रहती, तो कुछ खरीदती भी-कटोरी, प्लेट या चम्मच कुछ भी। बहुत हिसाबी है। उसकी सीमाएं जानता हूं। गरीब घर की बेटियां चांद को हीक भर देखती हैं; लेकिन उन पर आशियाना बनाने की कभी नहीं सोचती हैं। चांद सिफारिश भी उनकी जात के लिए नहीं होता है। हम जिस घराने से हैं; वहां सबसे मिल-बहुर कर रहना ही हमारी असली हैसियत और पहचान है। गाड़ी-बंगला वाले चाहे जितना जी लें; आपस में उनका प्रेम भी दिखावटी होता है। हमारे लिए प्रेम का मतलब है सबकी आंखों में एकसमान मानुष होना।

देव-दीप, आजकल पैसे के मोल पर ज़िन्दगी को बड़ा-छोटा कहते हैं लोग। खूब भागमभाग में फंसे-धंसे लोग सबकुछ कमाते हैं; लेकिन औरों की नज़र तो छोड़िए अपनी नज़र में भी संतुष्ट नहीं रह पाते हैं। खैर!

इस बार स्काॅलशिप नहीं मिली। दिवाली बाद आएगी। इसलिए भी मैं तुमलोगों को लाने से बचा। तबतक दादा जी के यहां रहो; फिर नाना-नानी के घर चले जाना। उस दिन सीमा बता रही थी कि तुमलोगों आपस में लड़-भिड़ गए, तो तुम्हारी मम्मी ने हाथ उठाया। यह देख तुम्हारी दादी रोने लगी। बाबू अपनी मम्मी और दादी को क्यों तंग करते हो। तुम्हारी दादी, तो टीवी में समाचार देखते हुए हर-हर रोने लगती हैं। कोई भी घटना, मौत, हत्या अथवा मार-काट उन्हें बुरी तरह तकलीफ़ देता है। लेकिन उन्हें क्या पता कि दुनिया की यही असली रीत है। मनुष्य के बुद्धिशाली होने का सबूत है।

देव-दीप, कल मेरी ही तरह नये शोध में आए विद्यार्थियों की परीक्षा थी। मेरी ही ड्यूटि लगी थी। बिना खाए-पीए शाम 5 बजे तक रह गया। परीक्षा क्या मजाक करते हैं लोग। काहे का प्रोफेसर हैं। समझ में नहीं आता है। हम बच्चों को पकड़ा और बस नाध दिया। विनम्र और अपने काम के प्रति ईमानदारी दिखलाने वालों की कम फ़जीहत नहीं होती है। उन्हें लोग आसानी से पकड़ लेते हैं; और काम निकलने के बाद ईख की तरह रस चूस कर फेंक देते है। जाने दो, खुशी है कि वे हमें किसी काम के लायक तो समझते हैं। आजकल नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले प्रोफेसर कैसे पद पाते हैं; क्या कहना?

देव-दीप, सत्य और अहिंसा की बात करने वालों की चांदी है; जीने वाले मरघटिए पर हैं। मुझे मेरे लिए कोई सिफारिश नहीं कर सकता है। जाति की बलिहारी है। धर्म की मनसबदारी है। है बहुत कुछ। दुनिया इन्हीं सब चीजों से चलती है। जाने दो; मुझे खुशी है कि मैं किसी के चरणों पर लोटने का अभ्यस्त नहीं हूं। मनाता हूं कि मरूं भी, तो ऐसे ही खड़े-खड़े। और तुमलोगों के लिए...अंग्रेजी सीख रहा हूं। जिस हिन्दी को मैंने हर रोज 14-16 घंटे दिये उससे कुछ होने से रहा, तो चलें कुछ अंग्रेजी में भी हाथ आजमा लें।

देव-दीप, मैं शारीरिक रूप से इतना कमजोर या कि कृशकाय हूं कि सब कहते हैं कि आप किसी तरह खुद की और अपने परिवार की रोजी-रोटी चला लें; वही शुक् की बात है। दरअसल, ठीक कहते हैं लोग। समाज के बारे में सोचने के लिए सिर्फ सोच और दृष्टि ही नहीं; चेहरा-मोहरा, फैशन-वैशन, टीप-टाॅप.....मार्का स्टाइल-वुस्टाइल भी चाहिए होता है। अतः मेरी यहां भी दाल गलने से रही।

देव-दीप, अपनी इन्हीं सीमाओं को देखते हूं मैंने फैसला किया है कि दो पैसे कमाने भर काम करू; उससे अधिक कुछ कर भी सकूं, तो मौन रहूं। देखना, इस बार शोध-प्रबंध जमा करने में यही होगा। लोग कहेंगे-आपसे यह उम्मीद नहीं थी; खोदा पहाड़ निकली चुहिया। कहने दो रजीबा क्या है; वह खुद जानता है...वही काफी है। जब खरगोश निकलता था; तब भी नहीं बोले...अब क्या मेरा सर?

दीवाली मुबारक! तुमदोनों दादा-दादी और पूर घर के साथ इस बार दीपावली में शरीक हो...यही मेरी हसरत है।

तुम्हारा पिता
राजीव

सोमवार, 20 अक्तूबर 2014

ज़िन्दगी


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हर सबक कुछ सिखलाये
...कुछ नया हम पाये,
ये ज़िन्दगी है अपनी यारों
...रौ में रहना आऽऽऽ जाये,

 हू-नु-हुऽनुऽनुनु.... हू-नु-हुऽनुऽनुनु, 

हर लम्हें कुछ नया बटोरें
....औरों के संग बतियाये,
बात-बात में जी लें ऐसे
....ज़िन्दगी मस्त होऽऽऽ जाये,

 हू-नु-हुऽनुऽनुनु.... हू-नु-हुऽनुऽनुनु

मंगलवार, 14 अक्तूबर 2014

ईश्वर के नाम एफआईआर


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मुझे जहां शामिल किया गया
परीक्षा देने के लिए
परीक्षक ने मुझे सर्वथा योग्य कहा
मैं आगे बढ़ गया
लोगों ने कहा-ईश्चर कृपा रही!


मुझे जहां लिखने के लिए कहा गया
मैंने ऐसा लिखा कि
मेरे लिखे को मुद्रण के सर्वथा योग्य समझा गया
मैं आगे बढ़ गया
लोगों ने कहा-ईश्चर कृपा रही!

मुझे जिन के बीच रहने को कहा गया
मैं इस सभ्यता से विनम्र होकर रहा कि
मेरे रहने की दैनंदिनी पर कसीदे काढ़े जाने लगा
मैं आगे बढ़ गया
लोगों ने कहा-ईश्चर कृपा रही!

मुझे जिन लोगों का नेतृत्व करने के लिए कहा गया
मैंने अपनी कंमाडर होने की भूमिका ऐसे निभाई कि
सबने लोहा मानी और पीठ पर शाबसी की धौल दी
मैं आगे बढ़ गया
लोगों ने कहा-ईश्चर कृपा रही!

इतना आगे बढ़ जाने के बाद
आज मुझसे कहा जा रहा है:
‘भाषा बदल दो’
‘जाति बदल दो’
‘धर्म बदल दो’
‘वेशभूषा बदल दो’
‘खान-पान बदल दो’
'बोलचाल-व्यवहार बदल दो’
‘स्वभाव बदल दो’
‘चरित्र बदल दो’
क्योंकि यह ईश्वर के बनाए शासकों के कृपापात्र बनने के सर्वथा प्रतिकूल है

मैं दृढ़निश्चयी, मैं संकल्पजीवी....मैं आत्मस्वाभिमानी
मैं इन सबको नकारने पर तुला हूं
....और जैसे अनाम लोगों के नाम
दर्ज होते हैं एफआईआर
मैं ईश्वर के नाम एफआईआर दर्ज़ कराता हूं!!!

होना

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मेरा होना साबित हो
तो दुश्मन की तरह
जो प्रतिरोध से रचता है अपना व्यक्तित्व
न कि भाट-चारण की तरह

मेरा होना साबित हो
तो मेज पर रखे पानी के कंपन की तरह
जो मेज के पूरे वजूद को  थर्राता है
न कि पेपरवेट की तरह

मेरा होना साबित हो
तो उस स्त्री की तरह
जिसे सिर्फ मानचित्र में नहीं भूगोल में होना जंचता है
न कि नवउगनी कवियित्री की तरह

मेरा होना इस बात से तय हो कि
मेरे भीतर आदमीयत कितनी बची हुई है
न कि सब गुनाह माफ़ की तरह

रविवार, 12 अक्तूबर 2014

गोली मार दो


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उत्तर आधुनिक वेदोपदेश


यदि वे तुम्हें टक्कर दे
अपनी योग्यता से कर दे तुम्हें मात
तो इंतजार न करो
उन्हें गोली मार दो
या काट दो फिर ज़बान
या कि कर दो लूल-लांगड़

दरअसल,
भारत में योग्य होना
सिर्फ और सिर्फ
ब्राह्मणों और क्षत्रियों के लिए
सर्वाधिकार सुरक्षित है!!!

यह जानों कि-
वेद शूद्रों ने लिखा है
और किसानों, श्रमिकों और मेहनतकश अनगिनत हाथों ने
उसे हर राग, लय, सुर और ताल में गाया है
ध्वनि-मिश्रित स्वर, शब्द और भाषा में स्फोट किया है

याद रखों कि-
हम ब्राह्मणवादियों और मनुवादियों ने तो उसे हथिया भर लिया है
नमस्तस्यै...नमस्तस्यै...नमस्तस्यै...नमों नमः...
कहते हुए, गाते हुए, बखानते हुए
और यही नहीं इन नीच-कूल-अधर्मियों का, शूद्रों का
हांड़-मांस-हाथ-हथेली....उनका सर्वस्व
अपने शोषण के बहुविध औजारों से उधेड़ते हुए

प्रतिरोध में सर उठाते ही उनका सर कलम करते हुए
अपनी बात न मानने पर उनकी आंख फोड़ते हुए
उनकी बेटी-बहू और औरतों का अस्मत लूटते हुए

यह अलग बात है कि हम उन पर जितना ही बोझ डालते हैं
उनकी विद्रोह की चेतना को बांझ बनाते हैं
उनकी आवाज़ की भूमिका पर स्टिकर चिपकाते हैं
उन्हें धर्म की बिसात पर मौनी-अन्धेरे में धकेलते हैं
थोड़ा भी भयातुर होते ही अपनी शास्त्रीय भाषा तक बदल देते हैं
किन्तु वे फिर-फिर ज़िन्दा होते हैं
....वे फिर-फिर हम पर भारी पड़ते हैं

अतः शासन के बहाने अपत करने वालों को चाहिए कि-
थोड़ी भी आशंका होते ही
उन्हें तत्काल गोली मार दो....उनका वध कर दो
यही भारतीय परम्परा रही है
और हमारे शासक-शोषक होने/बने रहने की वास्तविक सबूत
वीर भोग्या वसुन्धरा!!!


शनिवार, 11 अक्तूबर 2014

पानी

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बंधु! खुले आसमान में
प्रकृति की कोख में पानी पलते हैं
वे अपनी इसी कोख से पानी जन्मते है

ज़मीन पर पानी को दुख कचोटता है, तो प्रकृति
आत्मविह्वल माँ-बाप की तरह
लोर भी पानी की ही भाषा में उड़ेलती है
प्रकृति अपना खून चूसकर और अतंड़ियां जलाकर
अपनी कोशिकाओं को सोखकर पानी पैदा करती है
ताकि मनुष्य को पैदा करने वाली माँ की कोख में
किसी भी सूरत में पानी बची रहे पर्याप्त

दरअसल प्रकृति वसुंधरा से अधिक मनुष्य की चिंता करती है
मानों उसके लिए मनुष्य मुख्य उत्पाद है और बाकी बचे सब बाई-प्रोडक्ट
इसीलिए प्रकृति स्वभावतः हिंस्र पशु नहीं होती...शेर, चिता, बाघ नहीं होती
वह पानी की तरह रंगहीन, स्वादहीन, रूपहीन लेकिन सबसे अहम खुराक होती है
हां, किसी के लिए ऐशगाह तो किसी के लिए जीवनदाह होती है

बंधों, प्रकृति अपनी तक़लीफों से ही धार पाती है
संकट की दुश्चिंताओं और प्रोपेगेण्डाओं के बीच पनाह पाती है
तिस पर भी वह ठठा कर बरसती है
धरती के नस-नस में घुलती-मिलती, रींजती-भींजती है
यह पानी ही कहीं नदी, तो कहीं तालाब
कहीं सागर, तो कहीं समुद्र और सैलाब का नाम पाती है
रूपासक मनुष्य कहीं सुख से बिछलाते हैं
कहीं अपना करेजा तर करते हैं
तो कहीं पितरों को तारने के बहाने भरी-पूरी नदियों को ही तार देते हैं
आज प्रकृतिदेय इसी पानी के लिए कहीं जंग, तो कहीं संगोष्ठी जारी है
कहीं अनशन, तो कहीं आन्दोलन का गुमान तारी है
साधो, आदमी के भीतर ‘आदमियत का पानी’ जितना नीचे उतर रहा है
सूरज का पारा उतना ही सातवें आसमान पर चढ़ रहा है
प्रकृति जब इस कदर सब जगह मरती है, तो भाप बन उड़ती है

शासक भौंक रहा है-‘प्रकृति बचाओ...जीवन बचाओं...पानी बचाओ’
आदमी भी बिसूर रहा है और तकनालाॅजी भी फनफना रही है
भीतर-बाहर हर जगह पीब-मवाद, फेन-गाज....बजबजा रहे हैं
आप खुद ही देखिए कि हम-आप-सब कौन-कितना प्रकृति बचा रहे हैं
आदमी फिर-फिर पैदा होता है...क्या प्रमाण है?
फिर मानिंद काफ़िर क्यों चिल्ला रहे हैं: बारिश....बारिश...बारिश!!! 

शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2014

डर


...

हम अपनी सभ्यता के खोने से
और संस्कृतियों के मिट जाने से नहीं डरते हैं
जितना कि
सभ्य और सांस्कृतिक मनुष्य होने से

भूमिका में बच्चें

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दीपू
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बच्चें
अपनी मां से
हीक भर लिपटने का चाहत लिए
जगतें है पूरी रात

बच्चें
नहीं सोतें तबतक
जब तलक चलती है मैराथन दौड़
उसके पिता की रात संग

बच्चें
अपने माँ-पिता के संघर्षों में
शामिल होते हैं
पूरी ईमानदारी के साथ

किन्तु सहज, तरल, बेआवाज़
मौन की भाषा में!

गुरुवार, 9 अक्तूबर 2014

सब कुछ हुआ साफ अबकी बार...क्यों?

अब क्या लिखना, पढ़ना और बोलना.....रामराज्य आ गया देश में बड़ी जल्दी। अहो रूपम....अहो ध्वनि!! जिसके पास है सबकुछ वह करे जय-जय; और जिसके पास नहीं है वह धार्मिक जाप करे, सत्संग करे, आरती करे....उसके भी दुःख के दिन उबरेंगे ही। देश को निमोनिया(मोदीकरण) से अमोनिया(अमेरिकीकरण) में रूपान्तरण हो ही चुका है; भाई स्वाद तो चखिए।

शायद! इसी से मेरी भी भला हो जाए। जय मोदी, जय मोदी। यह अलग बात है कि-'सांच कहे, तो मारन को धावे।' इससे अच्छा है; न कहो। वैसे भी मेरे कहने से जन-जन के 'अच्छे दिन' थोड़े आयेंगे। उसके लिए तो मोदीनुमा जन-धन चाहिए। मुझे भी। मैं कौन बिल्ला बहादुर हूं?

बुधवार, 1 अक्तूबर 2014

माननीय प्रधानमन्त्री के नाम सन्देश

  02 अक्तूबर, 2014; गांधी जी का जन्म दिवस

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स्वच्छता का वंशवृक्ष लगाएं, भारत को स्वस्थ, सानंद व समृद्ध बनाएं

‘स्वच्छता का नारा बुरा नहीं है। यह अभियान ग़लत नहीं है। यदि इच्छाशक्ति और संकल्पशक्ति सात्त्विक हो, तो राजनीतिक शुचिता, पवित्रता और स्वच्छता के सन्दर्भ में इसकी प्रयोग/प्रयुक्ति निरर्थक नहीं है। लेकिन यदि पूर्व-सरकारों की तरह मंशागत लक्ष्य में ही नीतिगत दोष हो या कि लक्ष्य-निर्धारणकर्ताओं द्वारा वह प्रचारित ही कुछ इस तरह हो कि इसमें सतहीपन और उथलापन साफ दिख जाये, तो शेष अलग से कुछ कहने को क्या रह जाता है। जो कुछ दिखाई देगी; जनता उसी को न सत्य और प्रामाणिक आधार मानेगी। बाकी का क्या ठिकाना!
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तुरंत उधर से जवाब आया:

thank you for writing to the Hon’ble Prime Minister.

Your message is valuable to us!  PMO look forward to your support and
active participation in good governance.