बुधवार, 27 अगस्त 2014

समाचारपत्र ‘हिन्दुस्तान’ ने किया केन्द्रीय सत्ता-षड़यंत्रकारियों और अफ़वाहियों को पहचानने का दावा

http://paper.hindustantimes.com/epaper/viewer.aspx#

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भारतीय जनता पार्टी कहने को तो पिछले कई दशकों से राजनीति में है; लेकिन इस पार्टी की समझ बिल्कुल बौनी है। राजनीति में इतने दिनों बने रहने के बावजूद यह पार्टी दिल्ली की सत्ता-संस्कृति और राजनीति से पूरी तरह वाकिफ़ या कहें रींजी-भींजी नहीं है। हालिया राजनाथ सिंह और उनके बेटे के सम्बन्ध में उठ खड़ा हुआ विवाद इसकी साफ पुष्टि करता है। समाचारपत्र ‘हिन्दुस्तान’ जिसके सम्पादक शशि शेखर जैसे प्रौढ़ पत्रकार हैं; ने आज की सम्पादकीय में सरकार की आनुभविक कमजोरी पर साफ शब्दों में लिखा है कि-‘यह सरकार अब तक की सरकारों से इस मायने में अलग है कि इसके प्रमुख नेताओं में से कम ही दिल्ली की सत्ता-संस्कृति से वाक़िफ हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह मुख्यतः गुजरात में सक्रिय रहे हैं और दिल्ली की भूलभुलैया उनके लिए अपेक्षाकृत अनजानी है।’ यह पत्र आगे यह भी इसी में जोड़ता है कि-‘राजनाथ सिंह भले ही केन्द्र में मंत्री और भाजपा अध्यक्ष रह चुके हों, लेकिन वह इस तंत्र का हिस्सा नहीं हैं।'

यह ख़बर चूंकि समाचारपत्र के सम्पादकीय का हिस्सा है इसलिए इसकी विश्वसनीयता और वस्तुनिष्ठता पर सवाल उठाना बेमानी है। इन दिनों मीडिया चूंकि राजनीतिज्ञों के व्यक्तित्व, व्यवहार और नेतृत्व के सर्वाधिक करीब/नजदीक होता है; अतः उसे इस बात का भान हो ही जाता है कि किसकी कितनी कूव्वत या कह लें राजनीतिक हैसियत है। यह पत्र अपनी सम्पादकीय में साफ़ ताकीद करता है कि वह उस तंत्र के बारे में जानता है जिसके फेर/फरेब में देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह उलझे दिख रहे हैं। पत्र ने उस तंत्र को परोक्ष रूप से बेनकाब किया है। वह लिखता है कि--‘‘दिल्ली में सत्ता का एक गुपचुप तंत्र है, जो निहित स्वार्थों और गुपचप सौदों के सहारे चलता है और कमोबेश हर सकरकार के दौर में वह अपना जाल बिछा लेता है। अफवाहें, फुसफसाहटें, और जरूरत पड़ने पर उन्हें आरोपों में बदल देना उस तंत्र के खास हथियार हैं।’’

देश की पाठकीयताबहुल इस अख़बार को यह भी मालूम है कि-'इस समय इस की नई सरकार में उतनी पैठ नहीं है।....लेकिन इस सबके बावजूद दिल्ली में दशकों से जमा हुआ सत्तातंत्र अपना काम तो करेगा ही और शायद उसी के शिकार राजनाथ सिंह हुए हैं।’ इस सन्दर्भ में पत्र ने एक सच्ची टिपपणी और भी जोड़ी है; वह यह कि-‘ऊँचे स्तर पर राजनीति और प्रशासन की सक्रियताओं और वहां हुई घटनाओं की जानकारी आम लोगों तक कम पहुंचती है, कि अफ़वाहों को भी लोग सच मान लेते हैं, भले ही वे किनी ही अविश्वसनीय क्यों न हों।’

कहना न होगा कि आमजन जो अपनी ही छोटी-बड़ी समस्याओं में पिले रहते हैं; सरकारी-तंत्र और रसूखदार राजनीति के बारे में आखिर कितना टोह-टटोल लें? दरअसल, आमजन का सर्वाधिक विश्वासपत्र मीडिया है जो पिछले कई बर्षों सं उसे लगातार छल रहा है या एक विभ्रम की आभासी दुनिया में जीते रहने का आदी/अभिशप्त बना रहा है। ऐसे में समाचारपत्र हिन्दुस्तान से दृढ़तापूर्वक निर्भीक पत्रकारिता किए जाने की आशा ग़लत नहीं है। अतएव, हिन्दुस्तानपत्र को चाहिए कि वह जनहित में इस तंत्र के बारे में अपनी सारी सूचनाएं, जानकारी और सम्बधित बातें प्रकाशित करे; ताकि इस तंत्र से न सिर्फ वर्तमान सरकार सचेष्ट हो अपितु आमजन को भी राजनीति में घुसे ऐसे ताकतवर और प्रभावशाली लोगों का असली चेहरा और सच अधिक से अधिक जानने को मिले। यह गूंजाइश इस पत्र से इसलिए भी है कि आजकल मीडिया किसी मजबूत और खतरनाक मंशा/इरादे वाले नेटवर्क को सिर्फ इसलिए छुपाता है या फिर उस पर परदा डाले रखता है क्योंकि ये वर्चस्वशाली तंत्र उन्हें सालाना करोड़ों का विज्ञापन/पैकेज भेंट चढ़ाते हैं। यह सचाई हिन्दुस्तानपत्र जितना उस तंत्र के बारे में जानता है उससे कहीं अधिक जनता मौजूदा मीडिया के चाल, चरित्र और चेहरे के बारे में जानती-पहचानी है; और उसके बारे में निष्पटु/बेबाक विचार सार्वजनिक ढंग से रखा करती है। अब यह हिन्दुस्तान समाचारपत्र के ऊपर है कि वह विज्ञापन/पैकेज के लाभ को प्राथमिकता देती है या कि जन-विश्वास को।

दोमुंहेपन से भरे इस लिजलिजाते समय में; शब्दों और भाषा में यह कहना खूब अच्छा लग सकता है कि-‘‘षड़यंत्रों और अफ़वाहों से निपटने का सबसे अच्छा तरीका इन्हें सीधे चुनौती देना है, और गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने यही किया है। सवाल है, गृह मंत्री की पीठ ठोंकने वाला यह अख़बार खुद कब यह हिम्मत दिखाएगा और जन-पत्रकारिता का अपने नाम के अनुरूप मिसाल कायम करेगा।
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प्रो. आर्जीव के बारे में:
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राजीव रंजन प्रसाद यानी प्रो. आर्जीव की पैनी निगाह में भारतीय जनता पार्टी की हर एक कदम का नज़रबन्द होना प्रीतिकर है। आर्जीव की ख़ासियत यह है कि वे सीधी बात तपाक से कह देते हैं; इसीलिए हाशिए पर हैं। कोई सम्मान-पुरस्कार उनके नाम नहीं। कोई पद आवंटित नहीं। कोई सरकारी रहवास उनके नाम से एलाॅट नहीं; तब भी कई-कई लोग प्रो. आर्जीव के लिखे से सोलह आना भयभीत रहते हैं; इसे कहते हैं-‘सांच का ताप’। मोदी सरकार अबकी बार आ तो गई है, लेकिन जमी या गई तो प्रो. आर्जीव की भूमिका निःसन्देह उल्लेखनीय होगी। आर्जीव जनसाधारण के पैरोकार या हिमायती भर नहीं हैं; वे उस जातीय वर्चस्व के भी खिलाफ हैं जिनकी बांसुरी बजाती अयोग्य/अक्षम जातियां सरकारी लोकतंत्र के शीर्ष पदों पर आसीन है; अकादमिक ठिकानों पर जिनका कब्ज़ा है, मठ भी उनका है और मठाधीशी भी उनकी ही चलती है। प्रो. आर्जीव की कलम ने इन्हीं कूलबोरनों से लोहा लेने को ठाना है। पिछले दिनों काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने यूजीसी द्वारा प्रदत 10,000/- रुपए की कंटीजेंसी बिल  छह माह तक भागदौड़ करने के बावजूद नहीं दी, तो इस बार उसके दुगने रकम की कंटीजेंसी उन्होंने यह कहते हुए छोड़ दी कि-''इतने रुपयों से जितने दिन बीएचयू कैम्पस में बने विश्वनाथ मंदिर का घास कट सके...कटवा लेना आपलोग; मैं यहां घास काटने नहीं शोध करने आया हूं।''

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