शनिवार, 23 अगस्त 2014

एक दुःस्वप्न: अनटोल्ड (अन)रियल इपिक


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वह सुदूर देहात के किसी इलाके में एक बड़े दुःस्वप्न के साथ जगी थी।

उसकी इच्छा बिस्तर से उठने की न थी। बिल्कुल ही नहीं।। वह अपने बदन में हो रहे भयानक पीड़ा को खदबदाते हुए देख रही थी।

यह सैफ़िन थी। 18 साल की उम्र की सैफ़िन जिसने अभी-अभी सपने में देखा था कि उसके मुल्क का एक बड़ा शहर जमींदोज हो गया है। भूगोल अपनी भाषा में ज़मीन की पूरी परत(सैकड़ों किलामीटर) को खा गया था। यह हुआ था तब जब पिछले ही दिनों सैफ़िन की अम्मा ने उसे बताया था कि ख़बर रखने वाले मुहम्मद बेग काका ने कहा है कि ज़मीन पर संभल कर पाँव रखो; पता नहीं यह ज़मीन कब कब्र में बदल जाए। उन्होंने ऐसा कहा था इस बात पर कि दुनिया में कायदे के इंसान कम बचे रह गये हैं। यह दुनिया बड़ी गैरत में है और जल्द ही कुछ बड़ा बवण्डर ज़मीन के भीतर से निकलकर पूरी इंसानी सभ्यता को लपक ले जाने वाला है....!

मुहम्मद बेग काका की बात निराली है। वे हरदम कुछ नया बकबकी करते हैं। पर सैफ़िन तो अल्लाह-ख़ैरियत अच्छी भली थी; बिल्कुल ही दुरुस्त। फिर यह किस दुःस्वप्न के पाले में पड़ गई। सैफ़िन ने सोचा कि माँ को बताए कि उसके जे़हन में क्या कुछ चल रहा है। वह यही सोच रसोईबाड़े की ओर कदम बढ़ाई थी। उस वक़्त सैफ़िन की अम्मा उसके अब्बाजान के लिए चाय बना रही थी। तीन खाली टुकड़ी प्यालियाँ उनके सामने पड़ी थी।

....जल्द ही इन प्यालियों में तूफान आने वाला था। सैफ़िन अपने दुःस्वप्न को साझा करने जा रही थी। उस दुःस्वप्न को जो इस नफ़रतनिगाही होती जा रही दुनिया के लिए अब तक के इतिहास की सबसे बड़ी विपत्ति साबित होने वाली थी।

फ़िलहाल वह दुःस्वप्न सैफ़िन की आँखों में नाच रहा था।....स्पाइरल आॅफ साइलेंस, स्पाइरल आॅफ साइलेंस.....



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