शनिवार, 2 अगस्त 2014

भाषा-बंधन के सूत्रधार थे नबारुण भट्टाचार्या

जाने-माने कवि और जननायक नबारुण भट्टाचार्या का 31 जुलाई को निधन

बीते 31 जुलाई को नबारुण भट्टाचार्या इस दुनिया से रुख्स्त हो लिए। हिन्दुस्तान समाचारपत्र ने अभिषेक श्रीवास्तव के ‘जनपथ' के हवाले से बताया कि ‘जाते हुए लोग’ में इस बार नबारुण दा शामिल हैं। अहा! पत्रकारिता। मुआ इस अख़बार को भी पूरा पता है कि नबारुण दा एक क्रांतिधर्मी कवि हैं। जन-जन के उद्घोषक। अतः अपने काॅरपोरेट आकाओं/रहनुमाओं की डर से इस अख़बार ने एक काॅलम का ख़बर तक देना मुनासिब नहीं समझा। मैं जनपथ ब्लाॅग की ओर भागे हुए गया। ख़बर सच थी; लेकिन उसे जिस तरह लिखा गया था वह व्यंग्य-बाण मुझे काफी तल्ख़ किन्तु अचूक लगी। हिन्दीपट्टी के लेखकों की असलियत को अभिषेक श्रीवास्तव ने अनोखे रंग-ढंग में जिस तरह साझा किया था। वह ओरहन मात्र न थी। ‘भाषा-बंधन’ के सूत्रधार नबारुण दा को हिन्दी पट्टी के स्वनामधन्य लेखकों ने मौन श्रद्धांजलि की बिनाह पर मिनटों की बजाय सेकेंडों में निपटा दिया था।

दरअसल, हम संस्कारच्यूत लोग हैं। अपनी ज्ञान में पिलाए हुए अकर्मण्य पुरुष/स्त्री। हम अपने लिए भी ‘अपनापा’ नहीं रखते हैं। सिवाए स्वार्थ, लाभ और अति-महत्वाकांक्षी चाह के हमारे लिए कुछ भी योग्य नहीं, स्तुत्य नहीं, आदरणीय और विचारणीय नहीं। हम गुजर-बसर चाहे कितनी भी ठाट(विराट भाव-भंगिमा) से कर रहे हों; लेकिन हमारा मनुष्यत्व खो चुका है। हम सामाजिक मान-प्रतिष्ठा का ‘टोकन’ ले जीने का अभ्यस्त हो चुके हैं; लेकिन सही अर्थों में हमारा कद-काठी ठठरी-पिलाई है; अतिरिक्त कुछ नहीं। यथा: कवि, कहानीकार, सम्पादक, अधिवक्ता, न्यायाधीश, नेता, मंत्री, संतरी, करोड़पति, अरबपति आदि। ऐसे छद्म माहौल में हम जनपथ की राह तब तकते हैं जब खुदा-न-ख़ास्ते हमें खुद उस पर चलना होता है या उससे लाभ/मुनाफे की बात
दिमाग में चक्करघिन्नी की तरह चल रही होती है। लेकिन नबारुण भट्टाचार्या इसी राह के ताउम्र हमसफ़र रहे। भाव और भाषा के वे ज़िन्दादिल/क्रांतिधर्मा पथिक थे जिसमें आम आवाज़ का बसेरा था, सर्वहारा की धुन बजती थी। उनका व्यक्तित्व हो-हुल्लड़ से दूर एकदम सादगीपूर्ण था।

मैं उन्हें नहीं जानता था। अपने संचार एवं राजनीति केन्द्रित शोध के अन्तर्गत एकबारगी  अक्षरों/शब्दों में वे टंके हुए मिले। वह इंटरव्यू युवा कवि निशांत ने लिया था। हिन्दी पत्रिका 'प्रगतिशील वसुधा' के 92-93वें अंक में प्रकाशित। इस इंटरव्यू में मुझे नबारुण दा के बारे में बहुत कुछ जानने को मिला। जैसे इसमें जिक्र है-‘‘वे जितने सरल हैं, अंदर से, कविता को लेकर, पूरे राजनीतिक परिदृश्य को लेकर, साहित्य-सिनेमा-समाज
और मनुष्य की मनुष्यता को लेकर जिस जिद्दीपन की सीमा तक आशावान हैं, वह अद्भुत है।'' नबारुण दा बड़ी साफगोई से आज के प्रश्नों पर विचारते हैं-‘‘प्रथमतः तो राजनीति को इंटरेस्टिंग होना होगा। उत्तरदायित्वपूर्ण
होना होगा। व्यक्ति को जब तक यह समझ में नहीं आएगा कि हृदय की धड़कन के लिए राजनीति जरूरी है। मेरे बच्चे के भविष्य के लिए राजनीति जरूरी है। तब तक कुछ नहीं होगा। राजनीतिक पार्टियों का यह कर्तव्य है कि इस बोध को बनाए। जब तक इस बोध को नहीं बनाएँगे तब तक कुछ नहीं होगा। भारत में कोई
महत्त्वपूर्ण परिवर्तन नहीं होगा।’’ वे इसी में आगे जोड़ते हैं-‘‘मनुष्य को जागरूक न होने दिया जाए तो सरकार के अपने लाभ हैं। इसमें सरकार टेलीविजन का भयानक ढंग से अपने पक्ष में इस्तेमाल कर रही है। एक आम-आदमी शाम को थककर घर पहुँचकर टेलीविज़न खोलता है। वह नहीं जानता कि वह क्या कर
रहा है? टेलीविज़न को खोलना ड्रग लेना है। यह दूसरे ड्रग्स, हेरोइन, चरस और अफ़ीम से भी ज्यादा ख़तरनाक है और इसका चरित्र दोहरा भी है। वह एक तरफ इन चीजों को बढ़ावा दे रहा है। जैसे-बाज़ारीकरण, अपसंस्कृति आदि तो दूसरी तरफ इनकी दबे मुँह आलोचना भी करेगा। और मजे की बात है कि इस आलोचना के पीछे भी उसकी बाज़ारू मानसिकता है।’’ आज की युवा-पीढ़ी की वे सही नब्ज़ टटोलते हैं तो सहसा लगता है कि वे हमारे वय/उम्र से कितने रींजे-भींजे हुए हैं-‘‘हमारे सामने, खासकर युवा पीढ़ी, एक आदर्श व्यक्ति की कमी को महसूस कर रही है, क्यों? क्योंकि उसमें विचारधारा की कमी है? और दूसरी बात कि आज कि पूँजी आधारित व्यवस्था नहीं चाहती है कि ‘रोल माॅडल’ का निर्माण हो। क्योंकि ‘रोल माॅडल’ हमेशा प्रतिरोध को स्वर देता है। यह व्यवस्था ‘रोल माॅडल’ के प्रतिस्पर्धात्मक या उसके बदले किसी सिनेमा के नायक या टेलीविज़न के किसी विज्ञापन को नायक बनाकर पेश कर रही है।’’

उपर्युक्त मंतव्यों का असली गंतव्य आम-आदमी की जीत, उसकी भलाई और सुख-चैन की आकांक्षा है। आइए, इन शब्दों को कहे से आगे के अर्थ तक पहुँचाए। हम सही मायने में पूर्ण मनुष्य बने। सम्पूर्ण जीव-जगत की रक्षा का संकल्प लें। हम उच्च योग्यता(?) प्राप्त लोग अपनी सोच में, सपनों में और भविष्य के पहलूओं में आमजन को शामिल करें। उनके साथ कदमताल मिलायें और वास्तविक अर्थों में सच्चा जीवन जिएं। मेरे लिए नबारुण दा को जानने और उनसे मोहब्बत करने का यही सबसे सच्चा और ताकतवर भाव-भक्ति है...श्रद्धांजलि है। आमीन!

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