शनिवार, 9 अगस्त 2014

हिन्दी के पक्ष में सही बोलिए....यदि आपकी रीढ़ की हड्डी सलामत हो!


राष्ट्रीय संगोष्ठी
(08-09 अगस्त, 2014)
इक्कीसवीं सदी की हिन्दी: संभावनाएँ और चुनौतियाँ

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मित्रो,

ऐसे आयोजनों से मुझे भारी कोफ़्त होती है जिसमें संचालिका के साड़ी के रंग-रूप पर अधिक टीका-टिप्पणी होती है; जबकि भाषा जैसे संवेदनशील और महत्तवपूर्ण प्रश्न अछूते रह जाते हैं। लेकिन यह घटित होना इसलिए भी अवश्यांभावी है क्योंकि इसी तरह की मानसिकता/सोच/प्रवृत्ति वाले लोग भारतीय अकादमिक जगत में अटे पड़े हैं। खैर, इससे हिन्दी भाषा का उबार नहीं होने वाला है। यह मैं भी जानता हूँ और आप भी।

साथियों, मनुष्य के वाक्-व्यवहार की भाषा, बोलचाल के तौर-तरीके या कि भाषा सम्बन्धी अनुशासन/व्याकरण यथावत कभी नहीं रहते। ‘एज इट इज’ होना भाषा का गुणधर्म...स्वभाव नहीं है। दरअसल, भाषा का मुख्य कार्य, व्यवहार सम्बन्धी क्रिया-पक्ष को उजागर करना है। यह क्रियात्मक पहलू या कि अंतःक्रियात्मक चेष्टाएँ जितना शारीरिक होती हैं उससे कई गुना अधिक मानसिक। बिल्कुल आइसबर्ग की तरह। लेकिन आज विडम्बना यह है कि हम भाषा को सहेजना भूल रहे हैं। उसकी सजावट, बनावट, शैली और शिल्प के ऊपर गलाबाजी अधिक कर रहे हैं...स्वस्थ चिंतन-मनन बिल्कुल कम। भाषा की क्लिष्टता-दुरूहता को लेकर अक्सर सवाल उठते हैं; लेकिन यह बला आख़िरकार है क्या? इससे सीधे टकराना कोई नहीं चाहता है। ‘स्टीमुलेशन’ कहते हुए हमारी ज़बान नहीं ऐंठती है जबकि ‘उद्दीपन’ कहा नहीं कि कोहराम मच गया। ‘पर्सनालिटी’ कह-सुन कर हम विभोर हो जाते हैं जबकि ‘व्यक्तित्व’ कहे जाने पर नाक-भौं सिंकुड़ना आमबात है। हमें इस बिन्दु पर गहराई से विचारना होगा। यह जानने कि कोशिश करनी होगी कि किसी भाषा को देखने का हमारा नज़रिया क्या है....मानसिकता कैसी है। 

बंधुवर, सरकरी फंड पर सेमिनार/संगोष्ठी करना अलग चीज है; भाषा को विचारणीय और प्रसरणीय बनाना जुदा चीज। प्रायः अकादमिक आयोजनों में रसगुल्ला बाँटकर या लजीज व्यंजन परोसकर कार्यक्रम की पूर्णाहुति कर ली जाती है। ऐसे आयोजनों से प्रतिभागियों का रिश्ता मात्र सर्टिफिकेट बटोरने का होता है जिसके एवज में वे मनमाफिक पैसा आयोजकों को भेंट करते हैं। आजकल अकादमिक शिक्षण संस्थान बाजारू इस कदर हो गए हैं कि वे इस तरह की लूट न करें तो उनके घर में ए.सी. का चलना दूभर हो जाएगा; आई10 या स्कार्पियों में बैठना मुहाल हो जाएगा। ऐसे लोगों का ध्येय/उद्देश्य मानव-व्यवहार का गहन परीक्षण/अन्वीक्षण करना कतई नहीं होता है; और न ही वे भाषा-बर्ताव और भाषाई-ज्ञान को लेकर गहरे संस्तर पर उतरकर मनन-मंथन करना जरूरी समझते हैं। भाषा की ऊपरी संरचना में हो रहे फेरफार, हेरफेर, बदलाव इत्यादि को ही.....


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