गुरुवार, 7 अगस्त 2014

अथर्पूर्ण मनुष्यता

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 आज समाज में जिस तरह की बर्बर और अमानुषिक घटनाएँ घट रही हैं; लगता है 
जैसे हमारी गति-मति मारी गई है या कि हमारी बुद्धि हेरा गई है। 
इन दिनों हम अपने ‘नैतिक’ तथा ‘विवेकशील’ मनुष्य होने के सच को नकार रहे हैं। 
सामाजिक दायरे में संवेदनहीनता की घानी लगातर गाढ़ा होती जा रही है 
जबकि संवेदनशीलता निरन्तर क्षीण। भारतीय स्त्रियाँ इस कदर हिंसा(सिर्फ यौन हिंसा नहीं) का शिकार
क्योंकर हैं; उनके भीतरी मन को इस कदर क्यों तोड़ा जा रहा है? इस बारे में हम सबको मिलकर सोचना होगा। वे समाज के नज़र में जिस तरह भेदभावपूर्ण हिंसक और बर्बर बर्ताव सहन कर रही हैं;
उसे भारतीय आत्मा बर्दाश्त नहीं कर सकती है। क्या हम इसीलिए पढ़े-लिखे हैं? क्या हम इसीलिए
दुनिया भर की किताबों को पढ़ने-पढ़ाने का उपक्रम कर रहे हैं? क्या सामाजिक
संस्कार और नैतिक सदाचार को पैदा करने वाली अकादमिक संस्थाएँ मर-खप गई हैं? 
अगर जवाब हाँ है, तो तय मानिए इस समाज में राम या
कृष्ण की शक्तिपूजा ढोंग है, छलावा है? देव-देवियों के नाम पर होने वाले
जुलूस और जलसे बेमानी हैं? हमारा आधुनिक और उत्तर-आधुनिक होना पाखण्ड है।
फैंसी बुस्ट-पैंट, परिधान और तमाम महँगे प्रसाधनों का इस्तेमाल बेकार है।
हमें एक बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि समाज और उसकी मानसिकता
थानेदारी/पहरेदारी से नहीं बदली जा सकती है। सत्ता और सरकार के 
 प्रोपेगैण्डिस्ट इसमें आमूल-चूल बदलाव नहीं ला सकते हैं। इन विषयों पर किये जा
रहे अकादमिक शोध-अनुसन्धानों और समाजशास्त्रीय व्याख्या-व्याख्यानों की
फेहरिस्त मात्र से यह स्थिति कतई नहीं सुधर सकती है। गोकि यह बदलाव
होगा-समाज के व्यक्ति-व्यक्ति के भीतर उपजने वाले आत्मबल से; एक-दूजे के
प्रति पैदा होने वाले आत्मसम्मान की भावना से। मनुष्य के भीतर जगने वाले
मानवीय सोच एवं दृष्टिकोण से। अतः आवश्यक है कि हर कोई अपने स्तर से एक
बेहतर समाज के पुननिर्माण में अपना योग दे। किताबी विधानों को छोड़कर अपनी
भावी पीढ़ी को अपने मनुष्य होने का वास्तविक अर्थ और निहितार्थ समझाएँ। 
 अतः स्त्रियों के प्रति बढ़ती हिंसा, अपराधिक मामले और क्रूर बर्ताव के
मद्देनज़र यह इल्तज़ा है कि हम अपना सर्वस्व इस तरह के सामाजिक कलंक को
मिटाने और अनैतिक आग को बुझाने में होम कर दे...; तभी हमारा मनुष्य होना
अर्थपूर्ण है।
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