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*इसी शीर्षक से लिख रहे अपनी पुस्तक में राजीव रंजन प्रसाद
भारत का अद्धैत दर्शन दिलचस्प है। यह सूक्ष्म है और जड़ीभूत भी।
वर्ण-व्यवस्था इन दोनों का फलाफल है। यह चेतना में श्रेष्ठ कथित निचली
जातियों का प्रबल प्रताप है कि भारत की संस्कृति इन तमाम अन्तर्विरोधों के
बीच जीवित है; विकसनशील बनी हुई है। आज हम जिन्हें ‘शूद्र’ कह अपमानित कर
रहे हैं वे सदियों/सहस्त्राब्दियों से मानवीय, करुणामय, क्षमाशील और
उदात्तचित्त बने हुए हैं। यह सहमेल अथवा सह-अस्तित्व आधुनिक मनुष्य के
देखने की दृष्टि में बेढंगा अथवा भौड़ा जान पड़ेगा; किन्तु हकीकत यही है कि
भारत के मूलवंशियों पर घोर अत्याचार कर आर्यों ने अपना एक मनुवादी समाज
बनाया जो वर्ण-व्यवस्था का निर्माता था और उसका नीति-नियंता भी। यह कितनी
अजीबोगरीब बात है कि ‘‘एक संविधान स्वतन्त्र आर्यावत में मनु ने रचा था; और
दूसरा देश के फिर से स्वाधीन होने पर डाॅ. आॅम्बेडकर ने रचा। मनु के विधान
में आम्बेडकर के लिए स्थान नहीं था, या नही ंके बराबर था जबकि आम्बेडकर के
विधान में मनु के लिए पूरा स्थान है। तमाम लेकिन-किन्तु-परन्तु के बावजूद
यह छूट/आजादी आम्बेडकर को इसलिए मिल सकी कि इसे कथित देवभाषा संस्कृत में
नहीं रचा-बुना गया था जिस पर कि आज भी सनातनी पोगापंथियों/पाखण्डियों का
वर्चस्व या कह लें एकाधिकार है। बाद में प्राकृत-पालि का आगमन हुआ और
इन्हें आर्यभाषा में मान्य मान लिया गया क्योंकि वर्चस्वशाली ताकतें
सामाजिक रूप से संगठित होकर अपनी राजनीतिक भूमिका के बारे में
गंभीरतापूर्वक विचार करने लगी थीं।
मौजूदा सन्दर्भ में देखें, तो ‘समरथ को नहीं दोष गोसाई’ राग अलापने वाली
सवर्णवादी जातियाँ आज अंग्रेजी पर कृपालु हैं या उनको अपनाए जाने की समर्थक
हैं क्योंकि उन्हें पता है कि वे(सुविधा-सम्पन्न, अमीर, धनाढ्य, पूंजीवादी
वर्ग....) प्रयत्नपूर्वक इसे आसानी से सीख सकते हैं जबकि देश की
करोड़ों-करोड़ जनता के लिए यह आज भी दूर की कौड़ी है। भारतीय शिक्षा व्यवस्था
का मौजूदा अधःपतन इन्हीं वर्चस्वशाली सवर्ण जातियों की देन है जो चाहती ही
नहीं है कि पूरे देश की जनता किसी ऐसी सक्षम भाषा में दक्ष-प्रवीण हो/बन
सके जिसमें उन्नयन के खुले मार्ग हों; विकास के समानधर्मा अवसर हों या कि
सभी को एक ही जैसा सम्मान-भाव बरतने का मौका मिल सके।
भारत के मूलवंशी जो ‘शुद्ध-जन’(वर्तमान में कथित शूद्र) थे को रामशरण शर्मा
की पुस्तक ‘आर्य संस्कृति की खोज’ के आधार पर व्रती कह सकते हैं। वे कहते
हैं-‘‘संघर्ष दो संस्कृति-समुदायों के बीच होता है जिसमें एक व्रत का पालन
करता है और दूसरा अव्रत का।...यदि शरीर के रंग को पहचान का आधार माना जाये
तो ऋग्वेद के कुछ मंत्रों के अनुसार आर्यों की अपनी अलग जाति बनती है। वे
जिन लोगों से लड़ते थे उनको काले रंग का बतलाया गया है। आर्यो को मानुषी
प्रजा कहा गया है जो अग्नि वैश्वानर की पूजा करते थे और कभी-कभी काले लोगों
के घर में आग लगा दते थे। आर्यो के देवता सोम के बारे में कहा गया है कि
वह काले लोगों की हत्या करता था। यह भी कहा गया है कि वह काली त्वचा वाले
राक्षसों से लड़ता था और उसने पचास हजार कृष्ण लोगों को मारा तथा असुर के
काले चमड़े को उधेड़ डाला।’’
ध्यान देना होगा कि कई-कई वैयाकरणों ने यह माना है कि प्राचीन अर्थों में
‘असुर’ का अर्थ देवता था जो बाद में अर्थादेश के कारण अपना मूल अर्थ छोड़कर
नकारात्मक अर्थों में प्रयुक्त होने लगा। इस शब्द की प्रयुक्ति में फेरफार
अथवा हेरफेर सायास ही हुआ होगा, यह कहने में हमें हिचक नहीं होनी चाहिए।
यहाँ यह स्वयंसिद्ध है कि वर्ण-व्यवस्था को जन्म देने वाली नियामक-संस्था
घोर आताताई और चारित्रिक रूप से दुष्ट थीं। उन्होंने आर्य-परम्परा के नाम
पर एक सम्मोहक संस्कृति को अनावृत किया जिसमें जो भारत के वास्तविक रहवासी
थे उन्हें गुलाम बनाया और अपनी सत्ता उन पर लाद-थोप दी।
*इसी शीर्षक से लिख रहे अपनी पुस्तक में राजीव रंजन प्रसाद
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