गुरुवार, 14 अगस्त 2014

संचार-भाषा: मन से विज्ञान तक वाया साहित्य की संवेदना

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राजीव रंजन प्रसाद द्वारा लिखित पुस्तक का आवरण-चित्र

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साहित्य एक सर्जना है। सर्जक व्यक्तित्व में सर्जनात्मक व्यग्रता यानी प्रश्नाकुलता होने की माँग सर्वप्रथम की जाती है। यह न हो तो हमारे भीतर सत्य को जीत सकने का सामथ्र्य कहाँ से पैदा हांेगे? प्रश्न उठता है-स्वयं में अन्तर्भूत सत्व(विद्यमान) को पूर्ण बनाने का काम फिर कौन करेगा? यदि यह न हो, तो वृद्धि, ह्रास, स्थैर्य, चक्रीयता, सर्जनात्मकता इत्यादि के सृजन और उत्पत्ति की कल्पना को फिर कैसे संभव किया जा सकेगा? वस्तुतः साहित्य के प्रकार्य कई हैं। वह सचाई को प्रतिबिंबित करता है; उसे बदलता है; कई बार वह सचाई के बरक़्स दूसरी सचाई गढ़ता भी है। अशोक वाजपेयी के शब्दों में कहें, तो साहित्य सचाई का इजाफा है। लू सून ने भी इसी ओर इशारा किया है-‘‘कला की जीवंतता कला की सचाई पर निर्भर है।’’ दरअसल, वर्तमान में साहित्य को पढ़ने-पढ़ाने की जो रूढ़-विधियाँ चलन में हैं; उनके चलते यह बात आसानी से नहीं समझी जाती कि साहित्य सचाई का जाग्रत-कोश है; विचारों को समुन्नत बनाने की कला है। यह वह मानसिक-प्रकार्य है जो मनुष्य को भीतर से जितना खाली करता है; बाहरी सत्य को भीतर की अतल गहराईयों में उतना ही मुक्त भी छोड़ता है। सामान्यतया यह यात्रा चाक्षुष-एन्द्रिक प्रतिबिम्बन के माध्यम से आरंभ होती हंै जो मनुष्य को सही अर्थों में मानवीय बनाती हैं। यह कार्य जटिल एवं दुष्कर है; लेकिन साहित्य इसे अपना प्राथमिक लक्ष्य अथवा एकमात्र ध्येय मानता है। वास्तविक आधुनिकता-बोध भी यही है। आधुनिकता-बोध कहने का आशय-अभिप्राय मनुष्य में अन्तर्निहित भाव-संस्कार से है। मुक्तिबोध ने साहित्य को समझने हेतु दो शब्दों का साहचर्य होना जरूरी बताया है-संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदन। उनका बाह््य के आभ्यंतरीकरण एवं अन्तर्जगत के बाह्यीकरण की प्रक्रिया पर बल है। वे दोनों शब्दों(संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदन) में अर्थ के स्तर पर भेद नहीं करते हैं। तत्वतः उनके आपस के क्रम अवश्य बदल जाते हैं:

संवेदनात्मक ज्ञान - संस्कार, आदर्श, यथार्थ
ज्ञानात्मक संवेदन - यथार्थ आदर्श, संस्कार

कवि अथवा कृतिकार कई बार इस प्रक्रिया को इरादतन अंजाम देता है। ज्ञान, क्रिया और इच्छा के सम्मिलित प्रभाव से इन्हें अपने सर्जना का हिस्सा बनाता है। इस आवाजाही में अक्सर द्वंद्व भी जन्मते हैं; जो स्वाभाविक है। द्वैत सबके भीतर क्षण-प्रति क्षण उभरते हैं। मनुष्य के ये द्वंद्वात्मक-बोध ही हैं जो जीवन की निश्चितता एवं एकात्मकता को बिंधते हैं, यथास्थितिवादी प्रकृति को झकझोर कर जगाते हैं। वास्तव में अन्तर और बाह्य का द्वंद्व कृतिकार के लिए परम-अभिव्यक्ति की खोज है; अपनी अस्मिता और सत्ता का बोध है। इस द्वैत के अनेकानेक स्तर देखे जा सकते हैं-ऊँचे-नीचे, सम-विषम, उदात्त-अनुदात्त।......

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