बुधवार, 27 अगस्त 2014

समाचारपत्र ‘हिन्दुस्तान’ ने किया केन्द्रीय सत्ता-षड़यंत्रकारियों और अफ़वाहियों को पहचानने का दावा

http://paper.hindustantimes.com/epaper/viewer.aspx#

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भारतीय जनता पार्टी कहने को तो पिछले कई दशकों से राजनीति में है; लेकिन इस पार्टी की समझ बिल्कुल बौनी है। राजनीति में इतने दिनों बने रहने के बावजूद यह पार्टी दिल्ली की सत्ता-संस्कृति और राजनीति से पूरी तरह वाकिफ़ या कहें रींजी-भींजी नहीं है। हालिया राजनाथ सिंह और उनके बेटे के सम्बन्ध में उठ खड़ा हुआ विवाद इसकी साफ पुष्टि करता है। समाचारपत्र ‘हिन्दुस्तान’ जिसके सम्पादक शशि शेखर जैसे प्रौढ़ पत्रकार हैं; ने आज की सम्पादकीय में सरकार की आनुभविक कमजोरी पर साफ शब्दों में लिखा है कि-‘यह सरकार अब तक की सरकारों से इस मायने में अलग है कि इसके प्रमुख नेताओं में से कम ही दिल्ली की सत्ता-संस्कृति से वाक़िफ हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह मुख्यतः गुजरात में सक्रिय रहे हैं और दिल्ली की भूलभुलैया उनके लिए अपेक्षाकृत अनजानी है।’ यह पत्र आगे यह भी इसी में जोड़ता है कि-‘राजनाथ सिंह भले ही केन्द्र में मंत्री और भाजपा अध्यक्ष रह चुके हों, लेकिन वह इस तंत्र का हिस्सा नहीं हैं।'

यह ख़बर चूंकि समाचारपत्र के सम्पादकीय का हिस्सा है इसलिए इसकी विश्वसनीयता और वस्तुनिष्ठता पर सवाल उठाना बेमानी है। इन दिनों मीडिया चूंकि राजनीतिज्ञों के व्यक्तित्व, व्यवहार और नेतृत्व के सर्वाधिक करीब/नजदीक होता है; अतः उसे इस बात का भान हो ही जाता है कि किसकी कितनी कूव्वत या कह लें राजनीतिक हैसियत है। यह पत्र अपनी सम्पादकीय में साफ़ ताकीद करता है कि वह उस तंत्र के बारे में जानता है जिसके फेर/फरेब में देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह उलझे दिख रहे हैं। पत्र ने उस तंत्र को परोक्ष रूप से बेनकाब किया है। वह लिखता है कि--‘‘दिल्ली में सत्ता का एक गुपचुप तंत्र है, जो निहित स्वार्थों और गुपचप सौदों के सहारे चलता है और कमोबेश हर सकरकार के दौर में वह अपना जाल बिछा लेता है। अफवाहें, फुसफसाहटें, और जरूरत पड़ने पर उन्हें आरोपों में बदल देना उस तंत्र के खास हथियार हैं।’’

देश की पाठकीयताबहुल इस अख़बार को यह भी मालूम है कि-'इस समय इस की नई सरकार में उतनी पैठ नहीं है।....लेकिन इस सबके बावजूद दिल्ली में दशकों से जमा हुआ सत्तातंत्र अपना काम तो करेगा ही और शायद उसी के शिकार राजनाथ सिंह हुए हैं।’ इस सन्दर्भ में पत्र ने एक सच्ची टिपपणी और भी जोड़ी है; वह यह कि-‘ऊँचे स्तर पर राजनीति और प्रशासन की सक्रियताओं और वहां हुई घटनाओं की जानकारी आम लोगों तक कम पहुंचती है, कि अफ़वाहों को भी लोग सच मान लेते हैं, भले ही वे किनी ही अविश्वसनीय क्यों न हों।’

कहना न होगा कि आमजन जो अपनी ही छोटी-बड़ी समस्याओं में पिले रहते हैं; सरकारी-तंत्र और रसूखदार राजनीति के बारे में आखिर कितना टोह-टटोल लें? दरअसल, आमजन का सर्वाधिक विश्वासपत्र मीडिया है जो पिछले कई बर्षों सं उसे लगातार छल रहा है या एक विभ्रम की आभासी दुनिया में जीते रहने का आदी/अभिशप्त बना रहा है। ऐसे में समाचारपत्र हिन्दुस्तान से दृढ़तापूर्वक निर्भीक पत्रकारिता किए जाने की आशा ग़लत नहीं है। अतएव, हिन्दुस्तानपत्र को चाहिए कि वह जनहित में इस तंत्र के बारे में अपनी सारी सूचनाएं, जानकारी और सम्बधित बातें प्रकाशित करे; ताकि इस तंत्र से न सिर्फ वर्तमान सरकार सचेष्ट हो अपितु आमजन को भी राजनीति में घुसे ऐसे ताकतवर और प्रभावशाली लोगों का असली चेहरा और सच अधिक से अधिक जानने को मिले। यह गूंजाइश इस पत्र से इसलिए भी है कि आजकल मीडिया किसी मजबूत और खतरनाक मंशा/इरादे वाले नेटवर्क को सिर्फ इसलिए छुपाता है या फिर उस पर परदा डाले रखता है क्योंकि ये वर्चस्वशाली तंत्र उन्हें सालाना करोड़ों का विज्ञापन/पैकेज भेंट चढ़ाते हैं। यह सचाई हिन्दुस्तानपत्र जितना उस तंत्र के बारे में जानता है उससे कहीं अधिक जनता मौजूदा मीडिया के चाल, चरित्र और चेहरे के बारे में जानती-पहचानी है; और उसके बारे में निष्पटु/बेबाक विचार सार्वजनिक ढंग से रखा करती है। अब यह हिन्दुस्तान समाचारपत्र के ऊपर है कि वह विज्ञापन/पैकेज के लाभ को प्राथमिकता देती है या कि जन-विश्वास को।

दोमुंहेपन से भरे इस लिजलिजाते समय में; शब्दों और भाषा में यह कहना खूब अच्छा लग सकता है कि-‘‘षड़यंत्रों और अफ़वाहों से निपटने का सबसे अच्छा तरीका इन्हें सीधे चुनौती देना है, और गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने यही किया है। सवाल है, गृह मंत्री की पीठ ठोंकने वाला यह अख़बार खुद कब यह हिम्मत दिखाएगा और जन-पत्रकारिता का अपने नाम के अनुरूप मिसाल कायम करेगा।
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प्रो. आर्जीव के बारे में:
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राजीव रंजन प्रसाद यानी प्रो. आर्जीव की पैनी निगाह में भारतीय जनता पार्टी की हर एक कदम का नज़रबन्द होना प्रीतिकर है। आर्जीव की ख़ासियत यह है कि वे सीधी बात तपाक से कह देते हैं; इसीलिए हाशिए पर हैं। कोई सम्मान-पुरस्कार उनके नाम नहीं। कोई पद आवंटित नहीं। कोई सरकारी रहवास उनके नाम से एलाॅट नहीं; तब भी कई-कई लोग प्रो. आर्जीव के लिखे से सोलह आना भयभीत रहते हैं; इसे कहते हैं-‘सांच का ताप’। मोदी सरकार अबकी बार आ तो गई है, लेकिन जमी या गई तो प्रो. आर्जीव की भूमिका निःसन्देह उल्लेखनीय होगी। आर्जीव जनसाधारण के पैरोकार या हिमायती भर नहीं हैं; वे उस जातीय वर्चस्व के भी खिलाफ हैं जिनकी बांसुरी बजाती अयोग्य/अक्षम जातियां सरकारी लोकतंत्र के शीर्ष पदों पर आसीन है; अकादमिक ठिकानों पर जिनका कब्ज़ा है, मठ भी उनका है और मठाधीशी भी उनकी ही चलती है। प्रो. आर्जीव की कलम ने इन्हीं कूलबोरनों से लोहा लेने को ठाना है। पिछले दिनों काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने यूजीसी द्वारा प्रदत 10,000/- रुपए की कंटीजेंसी बिल  छह माह तक भागदौड़ करने के बावजूद नहीं दी, तो इस बार उसके दुगने रकम की कंटीजेंसी उन्होंने यह कहते हुए छोड़ दी कि-''इतने रुपयों से जितने दिन बीएचयू कैम्पस में बने विश्वनाथ मंदिर का घास कट सके...कटवा लेना आपलोग; मैं यहां घास काटने नहीं शोध करने आया हूं।''

शनिवार, 23 अगस्त 2014

एक दुःस्वप्न: अनटोल्ड (अन)रियल इपिक


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वह सुदूर देहात के किसी इलाके में एक बड़े दुःस्वप्न के साथ जगी थी।

उसकी इच्छा बिस्तर से उठने की न थी। बिल्कुल ही नहीं।। वह अपने बदन में हो रहे भयानक पीड़ा को खदबदाते हुए देख रही थी।

यह सैफ़िन थी। 18 साल की उम्र की सैफ़िन जिसने अभी-अभी सपने में देखा था कि उसके मुल्क का एक बड़ा शहर जमींदोज हो गया है। भूगोल अपनी भाषा में ज़मीन की पूरी परत(सैकड़ों किलामीटर) को खा गया था। यह हुआ था तब जब पिछले ही दिनों सैफ़िन की अम्मा ने उसे बताया था कि ख़बर रखने वाले मुहम्मद बेग काका ने कहा है कि ज़मीन पर संभल कर पाँव रखो; पता नहीं यह ज़मीन कब कब्र में बदल जाए। उन्होंने ऐसा कहा था इस बात पर कि दुनिया में कायदे के इंसान कम बचे रह गये हैं। यह दुनिया बड़ी गैरत में है और जल्द ही कुछ बड़ा बवण्डर ज़मीन के भीतर से निकलकर पूरी इंसानी सभ्यता को लपक ले जाने वाला है....!

मुहम्मद बेग काका की बात निराली है। वे हरदम कुछ नया बकबकी करते हैं। पर सैफ़िन तो अल्लाह-ख़ैरियत अच्छी भली थी; बिल्कुल ही दुरुस्त। फिर यह किस दुःस्वप्न के पाले में पड़ गई। सैफ़िन ने सोचा कि माँ को बताए कि उसके जे़हन में क्या कुछ चल रहा है। वह यही सोच रसोईबाड़े की ओर कदम बढ़ाई थी। उस वक़्त सैफ़िन की अम्मा उसके अब्बाजान के लिए चाय बना रही थी। तीन खाली टुकड़ी प्यालियाँ उनके सामने पड़ी थी।

....जल्द ही इन प्यालियों में तूफान आने वाला था। सैफ़िन अपने दुःस्वप्न को साझा करने जा रही थी। उस दुःस्वप्न को जो इस नफ़रतनिगाही होती जा रही दुनिया के लिए अब तक के इतिहास की सबसे बड़ी विपत्ति साबित होने वाली थी।

फ़िलहाल वह दुःस्वप्न सैफ़िन की आँखों में नाच रहा था।....स्पाइरल आॅफ साइलेंस, स्पाइरल आॅफ साइलेंस.....



शुक्रवार, 22 अगस्त 2014

मोदी ने किया शीतल-पेय कंपनियों को ‘वार्न’



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हाल में कोकाकोला कंपनी द्वारा यूपी में निवेश से हाथ झटकने का मामला
प्रकाश में आया है। इस पर तड़के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने
बहुराष्ट्रीय शीतल-पेय कंपनियों को अपनी हद में रहने की हिदायत दे दी है।
उन्होंने चेतावनी भरे लहजे में कहा है कि-‘यदि आप जरूरी सिस्टम को फाॅलो
और प्रतीक्षा नहीं कर सकते, तो बेहतर है कि भारत से बाहर जाकर अपनी
दुकानदारी करें।’ राष्ट्रीय गरिमा और सम्मान को लेकर हमेशा कटिबद्ध रहने
वाले प्रधानमंत्री मोदी जी का अहंकारग्रस्त शीतल-पेय कंपनियों को यह कड़ा
संदेश स्वागतयोग्य है; क्योंकि यह भारतीय जनमानस के गर्व-बोध से जुड़ा
मामला है। नामीगिरामी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ हर देश में ‘बेच अधिकार’
पाने के लिए हरसंभव तिकड़म करती है। उनके इस रवैए का मुख्य कारण यह होता
है कि वह सम्बधित देश को भारी मात्रा में टैक्स चुक्ता करती हैं। लेकिन
उन्हें अब यह मालूम होना चाहिए कि भारत में राष्ट्रवादी सम्प्रभुता की
सरकार है; विदेशी ताकतों का खिलौना बनकर रह जाने वाली ‘कठपुतली गर्वमेंट’
नहीं। नरेन्द्र मोदी जिन्होंने आने वाले निकट भविष्य में हर खाली हाथ को
उद्यमी हाथ बनाने का संकल्प दुहराया है; के लिए किसी भी स्थिति में
स्थानीय कारोबारियों या उद्यमियों का नुकसान बर्दाश्त नहीं है। ग्रामीण
विकास पर अधिकाधिक जोर उनकी इसी भावना का द्योतक है। कहना न होगा कि
बहुराष्ट्रीय शीतल-पेय कम्पनियों ने भारत के पारम्परिक पेय-पदार्थों को
बाज़ार की प्रतिस्पर्धा से बिल्कुल बाहर कर दिया है। पिछले सरकार की
दोषपूर्ण नीति इसके लिए सर्वाधिक जिम्मेदार रही है जो अमेरीकी-वर्चस्व के
आगे घूटने टेकती आ रही थी। दृढ़इच्छाशक्ति वाले प्रधानमंत्री मोदी का तेवर
भिन्न दिखाई दे रहा है। यह अमेरीका-ब्रिटेन लगायत यूरोपीय देश शिद्दत से
महसूस कर सकते हैं। प्रधनमंत्री की इस चेतावनी से जनता में यह साफ संदेश
गया है कि भारतीय ज़मीन पर विदेशी कम्पनियों को बाज़ार स्थापित करने का
अधिकार भारत सरकार ‘2 जी स्पेक्ट्रम’ मामले की तरह रेवड़ियाँ बाँटते हुए
हरगिज़ नहीं कर सकती है। चाहे यह मसला किसी राज्य-विशेष का ही क्यों न हो?
संभव है कि अबकी बार केन्द्र में काबिज़ हुई नई सरकार को अपने अवाम का
‘पेप्सी-कोक’ पीते हुए ‘जीओ सर उठा के’ कहना पसन्द न आये; और उसकी जगह
भावी पीढ़ी से कहलवाए-‘जीओ पर अपनी बाट लगाकर नहीं’। आमीन!

गुरुवार, 14 अगस्त 2014

संचार-भाषा: मन से विज्ञान तक वाया साहित्य की संवेदना

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राजीव रंजन प्रसाद द्वारा लिखित पुस्तक का आवरण-चित्र

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साहित्य एक सर्जना है। सर्जक व्यक्तित्व में सर्जनात्मक व्यग्रता यानी प्रश्नाकुलता होने की माँग सर्वप्रथम की जाती है। यह न हो तो हमारे भीतर सत्य को जीत सकने का सामथ्र्य कहाँ से पैदा हांेगे? प्रश्न उठता है-स्वयं में अन्तर्भूत सत्व(विद्यमान) को पूर्ण बनाने का काम फिर कौन करेगा? यदि यह न हो, तो वृद्धि, ह्रास, स्थैर्य, चक्रीयता, सर्जनात्मकता इत्यादि के सृजन और उत्पत्ति की कल्पना को फिर कैसे संभव किया जा सकेगा? वस्तुतः साहित्य के प्रकार्य कई हैं। वह सचाई को प्रतिबिंबित करता है; उसे बदलता है; कई बार वह सचाई के बरक़्स दूसरी सचाई गढ़ता भी है। अशोक वाजपेयी के शब्दों में कहें, तो साहित्य सचाई का इजाफा है। लू सून ने भी इसी ओर इशारा किया है-‘‘कला की जीवंतता कला की सचाई पर निर्भर है।’’ दरअसल, वर्तमान में साहित्य को पढ़ने-पढ़ाने की जो रूढ़-विधियाँ चलन में हैं; उनके चलते यह बात आसानी से नहीं समझी जाती कि साहित्य सचाई का जाग्रत-कोश है; विचारों को समुन्नत बनाने की कला है। यह वह मानसिक-प्रकार्य है जो मनुष्य को भीतर से जितना खाली करता है; बाहरी सत्य को भीतर की अतल गहराईयों में उतना ही मुक्त भी छोड़ता है। सामान्यतया यह यात्रा चाक्षुष-एन्द्रिक प्रतिबिम्बन के माध्यम से आरंभ होती हंै जो मनुष्य को सही अर्थों में मानवीय बनाती हैं। यह कार्य जटिल एवं दुष्कर है; लेकिन साहित्य इसे अपना प्राथमिक लक्ष्य अथवा एकमात्र ध्येय मानता है। वास्तविक आधुनिकता-बोध भी यही है। आधुनिकता-बोध कहने का आशय-अभिप्राय मनुष्य में अन्तर्निहित भाव-संस्कार से है। मुक्तिबोध ने साहित्य को समझने हेतु दो शब्दों का साहचर्य होना जरूरी बताया है-संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदन। उनका बाह््य के आभ्यंतरीकरण एवं अन्तर्जगत के बाह्यीकरण की प्रक्रिया पर बल है। वे दोनों शब्दों(संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदन) में अर्थ के स्तर पर भेद नहीं करते हैं। तत्वतः उनके आपस के क्रम अवश्य बदल जाते हैं:

संवेदनात्मक ज्ञान - संस्कार, आदर्श, यथार्थ
ज्ञानात्मक संवेदन - यथार्थ आदर्श, संस्कार

कवि अथवा कृतिकार कई बार इस प्रक्रिया को इरादतन अंजाम देता है। ज्ञान, क्रिया और इच्छा के सम्मिलित प्रभाव से इन्हें अपने सर्जना का हिस्सा बनाता है। इस आवाजाही में अक्सर द्वंद्व भी जन्मते हैं; जो स्वाभाविक है। द्वैत सबके भीतर क्षण-प्रति क्षण उभरते हैं। मनुष्य के ये द्वंद्वात्मक-बोध ही हैं जो जीवन की निश्चितता एवं एकात्मकता को बिंधते हैं, यथास्थितिवादी प्रकृति को झकझोर कर जगाते हैं। वास्तव में अन्तर और बाह्य का द्वंद्व कृतिकार के लिए परम-अभिव्यक्ति की खोज है; अपनी अस्मिता और सत्ता का बोध है। इस द्वैत के अनेकानेक स्तर देखे जा सकते हैं-ऊँचे-नीचे, सम-विषम, उदात्त-अनुदात्त।......

सोमवार, 11 अगस्त 2014

भारत का उत्तर वेद*

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भारत का अद्धैत दर्शन दिलचस्प है। यह सूक्ष्म है और जड़ीभूत भी। वर्ण-व्यवस्था इन दोनों का फलाफल है। यह चेतना में श्रेष्ठ कथित निचली जातियों का प्रबल प्रताप है कि भारत की संस्कृति इन तमाम अन्तर्विरोधों के बीच जीवित है; विकसनशील बनी हुई है। आज हम जिन्हें ‘शूद्र’ कह अपमानित कर रहे हैं वे सदियों/सहस्त्राब्दियों से मानवीय, करुणामय, क्षमाशील और उदात्तचित्त बने हुए हैं। यह सहमेल अथवा सह-अस्तित्व आधुनिक मनुष्य के देखने की दृष्टि में बेढंगा अथवा भौड़ा जान पड़ेगा; किन्तु हकीकत यही है कि भारत के मूलवंशियों पर घोर अत्याचार कर आर्यों ने अपना एक मनुवादी समाज बनाया जो वर्ण-व्यवस्था का निर्माता था और उसका नीति-नियंता भी। यह कितनी अजीबोगरीब बात है कि ‘‘एक संविधान स्वतन्त्र आर्यावत में मनु ने रचा था; और दूसरा देश के फिर से स्वाधीन होने पर डाॅ. आॅम्बेडकर ने रचा। मनु के विधान में आम्बेडकर के लिए स्थान नहीं था, या नही ंके बराबर था जबकि आम्बेडकर के विधान में मनु के लिए पूरा स्थान है। तमाम लेकिन-किन्तु-परन्तु के बावजूद यह छूट/आजादी आम्बेडकर को इसलिए मिल सकी कि इसे कथित देवभाषा संस्कृत में नहीं रचा-बुना गया था जिस पर कि आज भी सनातनी पोगापंथियों/पाखण्डियों का वर्चस्व या कह लें एकाधिकार है। बाद में प्राकृत-पालि का आगमन हुआ और इन्हें आर्यभाषा में मान्य मान लिया गया क्योंकि वर्चस्वशाली ताकतें सामाजिक रूप से संगठित होकर अपनी राजनीतिक भूमिका के बारे में गंभीरतापूर्वक विचार करने लगी थीं।
 
मौजूदा सन्दर्भ में देखें, तो ‘समरथ को नहीं दोष गोसाई’ राग अलापने वाली सवर्णवादी जातियाँ आज अंग्रेजी पर कृपालु हैं या उनको अपनाए जाने की समर्थक हैं क्योंकि उन्हें पता है कि वे(सुविधा-सम्पन्न, अमीर, धनाढ्य, पूंजीवादी वर्ग....) प्रयत्नपूर्वक इसे आसानी से सीख सकते हैं जबकि देश की करोड़ों-करोड़ जनता के लिए यह आज भी दूर की कौड़ी है। भारतीय शिक्षा व्यवस्था का मौजूदा अधःपतन इन्हीं वर्चस्वशाली सवर्ण जातियों की देन है जो चाहती ही नहीं है कि पूरे देश की जनता किसी ऐसी सक्षम भाषा में दक्ष-प्रवीण हो/बन सके जिसमें उन्नयन के खुले मार्ग हों; विकास के समानधर्मा अवसर हों या कि सभी को एक ही जैसा सम्मान-भाव बरतने का मौका मिल सके।
 
भारत के मूलवंशी जो ‘शुद्ध-जन’(वर्तमान में कथित शूद्र) थे को रामशरण शर्मा की पुस्तक ‘आर्य संस्कृति की खोज’ के आधार पर व्रती कह सकते हैं। वे कहते हैं-‘‘संघर्ष दो संस्कृति-समुदायों के बीच होता है जिसमें एक व्रत का पालन करता है और दूसरा अव्रत का।...यदि शरीर के रंग को पहचान का आधार माना जाये तो ऋग्वेद के कुछ मंत्रों के अनुसार आर्यों की अपनी अलग जाति बनती है। वे जिन लोगों से लड़ते थे उनको काले रंग का बतलाया गया है। आर्यो को मानुषी प्रजा कहा गया है जो अग्नि वैश्वानर की पूजा करते थे और कभी-कभी काले लोगों के घर में आग लगा दते थे। आर्यो के देवता सोम के बारे में कहा गया है कि वह काले लोगों की हत्या करता था। यह भी कहा गया है कि वह काली त्वचा वाले राक्षसों से लड़ता था और उसने पचास हजार कृष्ण लोगों को मारा तथा असुर के काले चमड़े को उधेड़ डाला।’’ 
 
ध्यान देना होगा कि कई-कई वैयाकरणों ने यह माना है कि प्राचीन अर्थों में ‘असुर’ का अर्थ देवता था जो बाद में अर्थादेश के कारण अपना मूल अर्थ छोड़कर नकारात्मक अर्थों में प्रयुक्त होने लगा। इस शब्द की प्रयुक्ति में फेरफार अथवा हेरफेर सायास ही हुआ होगा, यह कहने में हमें हिचक नहीं होनी चाहिए। यहाँ यह स्वयंसिद्ध है कि वर्ण-व्यवस्था को जन्म देने वाली नियामक-संस्था घोर आताताई और चारित्रिक रूप से दुष्ट थीं। उन्होंने आर्य-परम्परा के नाम पर एक सम्मोहक संस्कृति को अनावृत किया जिसमें जो भारत के वास्तविक रहवासी थे उन्हें गुलाम बनाया और अपनी सत्ता उन पर लाद-थोप दी।

*इसी शीर्षक से लिख रहे अपनी पुस्तक में राजीव रंजन प्रसाद

रविवार, 10 अगस्त 2014

भारत का उत्तर वेद*

भारतीय की धार्मिक मान्यताएँ बेजोड़ हैं। आर्यों के आगमन-पूर्व भारतीय मनीषा पंचस्कन्ध से पूरित थी। यह धार्मिक विलक्षणता पंचस्कन्ध(देशगत, कालगत, आकारगत, विषयगत और गतिगत)कहे गये हैं। इनकी प्राण-प्रतिष्ठा मनुवंशयिों ने नहीं की; क्योंकि उनकी चारित्रिक निष्ठा संदिग्ध थी। मनुवंशी वर्ण-व्यवस्था के घनघोर समर्थक थे जबकि पंचस्कन्ध के उद्घोषक वर्ण-व्यवस्था को सामाजिक जकड़बन्दी का पर्याय मानते थे। उनके लिए जो सर्वोपरि था; वह था: सत्य, अहिंसा, आस्तेय, दान, भूतदया, ब्रह्मचार्य, दयालुता, करुणा, धैर्य और क्षमा। इन सभी सनातन-भावों से पूर्ण मनुष्य को ही भारतीय ऋषि-मुनियों ने ‘शुद्ध योनि’ माना। बाद के समय में खलकलुष प्रवृति के मतावलम्बियों ने इन्हीं को ‘शूद्र’ कहना शुरू कर दिया। आज तक प्रचलन में यही अवधारणा बनी हुई है जिसे बनाये रखने में मनुवंशियों/ब्राह्मणवादियों का योग सर्वाधिक है...


*इसी शीर्षक से लिख रहे अपनी पुस्तक में राजीव रंजन प्रसाद

शनिवार, 9 अगस्त 2014

प्रेमचन्द के गाँव लमही से लौटते हुए



Sunday, July 10, 2011

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राजीव रंजन प्रसाद, प्रमोद कुमार बर्णवाल

यह ‘स्टोरी’ कादम्बिनी में छपी, तो हमें लगा कुछ और स्टोरी लिखने को कही जाएंगी; लेकिन उन्होंने हमें फिर दुबारा कभी नहीं पूछा। उन दिनों लिखने का जोश था और जुनून भी। अकादमिक लोग कहते हैं कि जिनके लिए लिखा है उन्हीं से नौकरी मांगों। हम कहते हैं-जी, इस बिन मांगी सलाह के लिए आपसब को धन्यवाद!


रात को बारिश हुई थी, हल्की बूंदाबूंदी के साथ। सुबह में मौसम का तापमान बिना थर्मामीटर डाले जी कोठंडक पहुँचा रहा था। दिमाग में लगा दिशासूचक यंत्र हमें जल्द से जल्द उस ओर ले जाने को उत्सुक-उतावला था जो साहित्यिक दुनिया में सुपरिचित नाम है अर्थात आमोख़ास सभी जानते हैं-‘लमही’ को। कथाकार प्रेमचन्द का गाँव लमही कितनों को जानता है या किस-किस को जानता है? यह सवाल जरा टेढ़ा है।

5 अक्तूबर 1959 को लमही ग्राम में तत्कालिन राष्ट्रपति डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद का आना हुआ था जिनके साथ में प्रदेश मुख्यमंत्री सम्पूर्णांनंद भी पधारे थे। इस मौके पर बंगभाषा के सिद्धहस्त साहित्यकार ताराशंकर जी वंद्योपाध्याय ने भी शिरक़त की थी। यह जानकारी प्रेमचन्द स्मारक भवन में प्रवेश करने पर मिलती है। नागिरी प्रचारिणी सभा द्वारा विज्ञापित इस सूचना में यह भी जिक्र है कि यह आयोजन गोविन्द वल्लभ पंत और हजारी प्रसाद द्विवेदी की अगुवाई में संपन्न हुआ था जिसका उद्देश्य लमही ग्राम में एक ऐसे स्मारक भवन का शिलान्यास करना था जो इस कलम के सिपाही की सच्ची श्रद्धाजंलि हो। बाद के वसीयतदारों ने इस गाँव को क्या-क्या भेंट दी है; यह नजदीक से देखना-जानना रौंगटे खड़े करने के माफिक है।


भूमण्डलीकरण की आँधी ने लमही के वातावरण को विषाक्त कर दिया है। गाँव की जमीन पर पूँजीदारों का कब्जा है। नए-नए प्लॉटों की शतरंज बिछाई जा रही है। बाप-दादों की जमीन को बचाकर रखे लोग अपनी झोपड़पट्टी में निढाल और बेसुध पड़े हैं। नशे में डूबोकर गरीब-गुरबा की जमीन-ज़ायदाद हड़प लेना आज एक नई रवायत है। गाँव में ही शराब की भट्ठी खुल गई है जो भर-भर पाउच दारू पिलाकर भोले-भाले गरीबों को उनके पुरखों की ज़मीन से बेदखल करने पर उतारू है। गाँव को बाहर से आये लोग जोत रहे हैं। किसी समय गुलज़ार रहने वाले खेत-खलिहान और बाग-बगीचे आज विरान हैं।


उस जगह दो-चार पेड़ हैं; कटी हुई बँसवारी हैं; बाबा भोलेनाथ का आधुनिक पेन्ट से पुता हुआ मन्दिर है। ईश्वरीय महिमा को बखानते दोहा-चौपाई हैं। ये सारी चीजें मुंशी प्रेमचन्द के पैदाइशी घर की गोद में हैं जिससे लगी सड़क लमही से ऐढ़े की ओर जाती है। इस सड़क की जद में बनवारीपुर, फ़कीरपुर, आदमपुर आदि गाँव हैं। धूल-धक्कड़ से सने इस रास्ते की कहानी अजीब है। मरम्मत के बाद दुरुस्त हुई पक्की सड़क प्रेमचन्द के पैतृक घर के सामने अचानक अर्द्धविराम लेती हुई दिखाई पड़ती है। दूसरे गाँव के राहगीर कहते हैं कि यदि मुंशी प्रेमचन्द का जन्म हमारे गाँव में हुआ होता, तो सरकार यह सड़क वहाँ तक जरूर चकाचक बनवाती।

गाँव में थोड़ी दूर टहरिए, तो सड़क किनारे ही अरविन्द जनरल एण्ड प्रोविजन स्टोर है। दुकान में पेप्सी, सेवन-अप, डियू, मैरिन्डा और स्लाइश के नए पेय-संस्करण है। यहाँ एक्वाफाइन वाटर भी मिलता है। ग़नीमत है बिजली कम जाती है, इसलिए इनकी बिक्री को ले कर टोटा नहीं है। दो मिनट की बैठकी में हम यह जान लेते हैं कि टेलीविज़न पर क्या कुछ चल रहा है। धारावाहिकों के नाम और उनके पात्र के बारे में उस घर के सभी लोग जानते हैं। पात्रों के नाम तो जुबानी याद है-मानव, अर्चना, अहम, राधिका, गोपी, कोकिला, नव्या, अनंत आदि-आदि। सरस्वती शिक्षा निकेतन में पढ़ने वाली 11वीं कक्षा की अंकिता पूछने पर बताती हैं-‘जी-टीवी पर चलने वाले सीरियलों में पवित्र रिश्ता और छोटी बहू पसंद है। स्टार प्लस पर साथिया धारावाहिक भी रोज देखती हैं।’ प्रेमचन्द के गाँव की अंकिता ने मुंशी प्रेमचन्द के साहित्य को भी पढ़ा है। गोदान का नाम लेती हुई वह बताती है कि निर्मला उपन्यास का टेलीविजन रूपांतरण उसने दूरदर्शन पर देखा है। मंत्र कहानी का मंचन भी देख चुकी है जिसे वाराणसी स्थित सनबीम कॉन्वेन्ट स्कूल के बच्चों ने मंचित किया था। इससे पहले हमारी बातचीत विद्या से हुई थी जो सुधाकर महिला कॉलेज से स्नातक कर रही है। बोलने में तेजतर्रार विद्या कथाकार प्रेमचन्द के विषय में पूछने पर ज्यादा बोल नहीं पाती है। वह कहती है-प्रेमचन्द की कहानियों या पात्रों का नाम भले ही उसे तत्काल ध्यान न आ रहा हो; लेकिन उसने प्रेमचन्द को पढ़ा अवश्य है।

लोक-जीवन के चितेरे कथाकार प्रेमचन्द के गाँव की यह हालत देख हमें प्रेमचन्द की कहानी ‘मैकू’ की याद बरबस हो आती है। लेकिन, अब और तब में भारी अंतर है। चेहरे बदल गए हैं। चरित्र भी उलट गए हैं। मैंकू की जगह हमारी भेंट शेख सुलेमान उर्फ नक्कू से होती है जो पुलिस को गरियाता है। अपनी बहादुरी के किस्से सुनाते हुए चक्कू दिखाता है। एक सांस में मकदूम शाह दरगाह में स्थित 6 मजारों के बारे में जानकारी देता है। दरगाह से बाहर आते वक्त बाबा कमालुदिन सईद उर्फ कमाल पण्डित के बारे में बताता है। थोड़ी दूर पर पहुँच वह सड़क के समीप लगे मुर्दा-हैण्डपम्प को देख सहसा कह उठता है-‘आप ताड़ी पी सकते हो आसानी से, पानी के लिए तो कसरत ही उपाय है।’

हँसी-हँसी में अंदरूनी टीस व्यक्त कर चुका नक्कू गाँव में पानी की दिक्कतदारी को ले कर रोता है। अचानक बाँह पकड़ता है। खुदे हुए तालाबों की ओर ले जाता है जो बेहद गहरी खुदी हुई हैं। हाथ से इशारा कर जो हमें इशारे में बताता है; उसका भाव है-‘बिन पानी सब सून’। नक्कू यही नहीं रूकता है। वह खेतों की दुर्दशा को अपनी भाषा में वाणी देता है-‘बहिनी ना भईया, खेत चर गई गईया।’ 87 वर्षीय नक्कू के चेहरे पर उभरे ये दिली कसक इतने तीक्ष्ण और धारदार हैं कि वे हमें अंदर तक वेध डालते हैं।

भूमण्डलीकरण की फांस प्रेमचन्द के किसानों के गले में किस कदर कस चुकी है? इसकी शिद्दत से पड़ताल करने पर ही हम जान पाते हैं कि शहरीकरण की वेष में आए इस अजगरी दानव ने गाँवों के मूल बुनियाद को ही ‘हाइजैक’ कर लिया है। लमही का पानीदार समाज इस घड़ी पानी के संकट से जूझ रहा है। गाँव में 8-10 नलकूप हैं, सभी मरे पड़े हैं। एक की बनवाई हजार रुपए से ऊपर बैठती है। आपसी चन्दे की रकम से वे इन्हें कभी का बनवा लेते, लेकिन पानी का ‘लेयर’ इतना भाग गया है कि वे चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते हैं। जिन घरों में ‘समरसेबुल पम्प’ लगे हैं; वे ही इस घड़ी भाग्य-विधाता हैं। सरकारी योजना के अन्तर्गत साढे़ आठ लाख की रकम से लमही सरोवर का सौन्दर्यीकरण किया गया है जो गाँव वालों की निगाह में गोईंठा में घी सुखाने जैसा है। सरोवर से सटे हुए एक हाई-मास्ट लगा है जिसका सिर्फ ऊँचा-लम्बा कद ही देखने योग्य है, रोशनी बिल्कुल नदारद। पानी के संकट पर बात करते हुए अनुराग पान भण्डार और टी स्टॉल के विजय पटेल बताते हैं कि-‘सरकार 160 फिट से नीचे ‘बोरिंग’ कराती नहीं; और पानी है कि एक बार जो नीचे गई, तो फिर आती नहीं। अब कंठ झुराये या मवेशी-मवाल पानी की खातिर जमीन पर बेतरह लोटें; आदमी कर्म भर ही कोशिश करेगा न! बाद बाकी अल्लाह-दईया या ईश्वर को जो चाहे सो मंजूर।’

प्रकट भाव में लोग भले कुछ नहीं कहना चाहते हों; लेकिन उनकी आँखें सीधी सवाल करती है-प्रेमचन्द के गाँव में अब प्रेमचन्द के स्वप्न नहीं उनके पात्र बसते हैं। नए किस्म के ठाकुर और जमींदार। घीसू, माधव, हल्कू, धनिया और होरी भी। लमही में बीतते लम्हें हमें एक के बाद एक कई पात्रों से परिचय करा रहे हैं। नीम्बू की चाय पीते हुए हम उन चेहरों को निहार रहे हैं जो हमें इस आस से घूर रहे हैं कि बबुआन लोग(पढ़े-लिखे लोग) कुछ करेंगे; जबकि हम अन्दर से हिचकी महसूस कर रहे हैं। पानी की आस में कठोर हो गई जमीन पैदावार के नाम पर एकफसली गेहूँ देती है। धान को हिक भर पानी चाहिए। कई सालों से बरसात झमाझम हो कहाँ रही है? पर्याप्त पानी न मिलने से किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ता है; इसलिए खेतों में धान की रोपाई लगभग रोक दी गई है।

उनका एक सवाल यह भी है कि मुंशी प्रेमचन्द की 125 वीं जयंती के सुअवसर पर पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव आये थे। अमरवाणी की तरह घोषणाएँ की। ग्रामीणों से अनेकों योजनाओं की रूपरेखा के बारे में वादा किया। बाद बाकी नील-बट्टा-सन्नाटा। सरकार क्या गई, योजनाएँ अधर में लटकी रह गई। प्रेमचन्द शोध संस्थान समिति को मिले 2 करोड़ रुपए ने साहित्यिक जमात में उम्मीद की लकीर खींची थी। लोगों ने यह मान लिया था कि अब प्रेमचन्द के गाँव लमही के दिन बहुरेंगे। दूरगामी नीति के तहत कुछ ऐसे कार्य होंगे जिससे प्रेमचन्द के साहित्य-समाज को संबल मिलेगा। लोग मुंशी प्रेमचन्द को सही परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए जरूरी शोध करेंगे। उनकी कृतियों को जन-मिलाप के बीच ले जाने के लिए सुनियोजित अभियान चलायेंगे। लेकिन शोध-संस्थान अभी भी कथित जमीन प्रकरण में उलझा है। बीएचयू हिन्दी विभाग के प्रो0विजय बहादुर सिंह जो कि प्रेमचन्द शोध संस्थान समिति के समन्वयक हैं; बताते हैं कि-‘राज्य सरकार के द्वारा जमीन केन्द्र को स्थांतरित न किए जाने की वजह से ही सारा कार्य अधर में लटका है।’ इस बारे में बनारस के कथाकार श्याम बिहारी श्यामल का कहना है कि-‘राजनीति में गाँधी के इस्तेमाल की तरह राजनेता प्रेमचन्द का भी इस्तेमाल करते हैं। प्रेमचन्द के साहित्य से किसी को कोई मतलब नहीं। सरकार को कोई मुकम्मल व्यवस्था करनी चाहिए। प्रेमचन्द साहित्य के प्रतिमान हैं।’

इस बारे में जब हमने कवि ज्ञानेन्द्रपति की राय जाननी चाही, तो उन्होंने अपनी दिली उद्गार व्यक्त करते हुए कहा कि-‘रविन्द्रनाथ ठाकुर के बाद प्रेमचन्द भारत के देश-विदेश में सर्वाधिक आद्रिक साहित्यकार हैं। उनकी जन्मस्थली लमही में उनके गौरव के अनुकूल स्मारक का निर्माण एक ज़माने से प्रतिक्षित है। आधे-अधूरे मन से किए जाने वाले काम जल्द पूरे नहीं होते। स्मारक अद्रेय बनें, लेकिन उचित है कि हिन्दी और उर्दू दोनों सहोदरा भाषाओं के कथा साहित्य के आदि-पुरुष के रूप में मान्य प्रेमचन्द के निमित निर्मित स्मारक-सह-शोध केन्द्र स्थापत्य के धरातल पर भी हमारी साझी जीवन-संस्कृति को रूपायित करे। वैसा कायदे से हो पाए, तो काशी का केवल धार्मिक नगरी से अधिक महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक नगरी का स्वरूप मूर्त्त हो जिसका उजागर होना हमारी सामाजिक जिन्दगी को भी एक अलग ढंग से रौशन करेगा।’

यही बात सुरेश चन्द्र दूबे जो कि मुंशी प्रेमचन्द स्मारक के संरक्षणकर्ता हैं और प्रेमचन्द मेमोरियल ट्रस्ट के अध्यक्ष हैं; कहते हैं-‘पहले अनाज की खेती होती थी। अब पैसे की खेती होती है। सबकुछ किसानों के खिलाफ है। सरकार, हवा-पानी और प्रकृति सबकुछ खि़लाफ है किसान के। प्रेमचन्द का पात्र सूरदास अन्धा था। उसे मारा-पीटा गया और उसका घर जला दिया गया। अब का किसान आँख वाला है; जिसे इतनी यातना दी जा रही है कि वह आत्महत्या कर ले रहा है। यह समय प्रेमचन्द के समय से भी खतरनाक है। लोग जयंती के मौके पर जुटते हैं। कई प्रकार से फौरी मदद की बात कहते हैं। लमही को हेरिटेज गाँव बनाने के बारे में कई सालों से सुन रहा हँू जो महज घोषणाओं के नाम पर छलावा है। मुंशी प्रेमचन्द स्मारक का समरसेबुल ख़राब है, लेकिन उसके मरम्मत के लिए कोई आर्थिक पहल नहीं की जा रही है।’

सुरेश चन्द्र दूबे के साथ मुंशी प्रेमचन्द स्मारक-परिसर में बैठने के बाद लगता है जैसे किसी स्वचालित पुस्तक का पाठ सुन रहे हैं। वह बतलाते हैं कि प्रेमचन्द की कहानियाँ ही सही अर्थों में भारतीयता की पहचान हैं, पर्याय हैं। प्रेमचन्द कहानीकार बाद में थे; पहले वे खुद कहानी थे। उनकी सारी कहानियाँ उनके रूह से निकली है। स्मारक-परिसर में ही सुरेश जी ने एक पुस्तकालय खोल रखी है। पढ़ने के इच्छुक लोगों को वह निःशुल्क पढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। सुरेश चन्द्र जी हिन्दुस्तानी अर्थात हिन्दी-उर्दू ज़बान के हिमायती हैं। वे लमही में ‘प्रेमचन्द उर्दू शिक्षण संस्थान’ के अध्यक्ष हैं। इस संस्थान की सबसे बड़ी खूबी के बारे में वे बताते हैं कि हिन्दू बच्चे उसी भाव से उर्दू पढ़ने आते हैं जिस भाव से मुस्लिम। वे कविता के लहजे में कहते हैं-‘दिल है कि भावों से भरा है/घर है कि अभावों से भरा है।’

इस घड़ी लमही ग्राम में बैठे हुए हम लोग समय की ओर ताकते हैं। धूप सीधी से आड़ी-तिरछी हो चली है। कुछ ही मिनटों में 4 बजेंगे। बातचीत में ऐसे मशगूल हुए कि भूख की परवाह ही नहीं रही। बस, हम पानी पीते हुए बातों में मशगूल रह गए। उस समय हमारी बेचैनी पानी की जबर्दस्त किल्लत को ले कर अधिक थी। सरकार के कागजी ठिकानों पर ‘लमही’ का नाम निर्मल ग्राम के रूप में अंकित है। लेकिन यहाँ कुछ भी नार्मल नहीं है। गाँव में शिक्षा का स्तर संतोषजनक नहीं है। प्रेमचन्द स्मारक से सटे हुए ही प्रेमचन्द शिक्षण संस्थान है जिसे यूपी बोर्ड से मान्यता मिली हुई है; इस घड़ी बंद है।
लमही में ही प्राइवेट प्रैक्टिसनर डॉ0 आन्नद कुमार कहते हैं-‘आज अगर प्रेमचन्द जिन्दा होते, तो उनको हार्ट अटैक हो जाता। दूसरे गाँव की छोड़िए इस गाँव के लोग ही नहीं जानते हैं कि मुंशी प्रेमचन्द कौन थे? साहित्य से यहाँ के लोग दूर हैं। जबकि शहर के लोग प्रेमचन्द के कथा-कहानी और उपन्यास पर डिग्री धारण कर रहे हैं। असल में यहाँ के लोगों की समस्या बीहड़ है। रोजगार के नाम पर औना-पौना मजूरी है। ऐसे जिन्दगी जीने वालों से आप क्या साहित्य की बात करेंगे? उनके लिए तो यह महज लिखुआ-पढुआ बतरस है।’ लगे हाथ एक दूसरे सज्जन कह जाते हैं-‘जिस कथाकार को दलितों का देवता कहा गया है। उसकी सुध सुश्री मुख्यमंत्री खुद क्यों नहीं ले रही हैं जबकि वह तो दलितों की सर्वमान्य नेता हैं?’

लमही के निवासी सटीक विश्लेषण करते हैं। क्या यह वही गाँव है जहाँ कथाकार प्रेमचन्द का जन्म 31 जुलाई 1980 को हुआ और जिन्हें लोग हरिजन, दलित और पिछड़े वर्ग का मसीहा मानते हैं। ऐसे में क्या गरीब-गुरबों की नेता कही जानेवाली प्रदेश मुख्यमंत्री मायावती को यहाँ नहीं आना चाहिए था? कथाकार श्योराज सिंह बेचैन के शब्दों में कहें, तो-‘प्रेमचन्द भले हरिजन एवं दलितों के साथ पूर्ण न्याय नहीं कर सके हों लेकिन उस ज़माने में वही एकमात्र विकल्प थे जिन्होंने सामाजिक-सांस्कृतिक धरातल पर इस वर्ग की पीड़ा, शोषण और जातिगत त्रासदी को स्वर दिया। उन्हें अपने हक की प्रतिकार के लिए मानसिक संचेतना दी।’ कहानी ‘हिंसा परमो धर्मः’ में प्रेमचन्द अपने पात्र का पाठक से जिस रूप में शिनाख़्त कराते हैं; वह कहनशैली बेमिसाल है-‘मुमकिन न था कि किसी गरीब पर अत्याचार होते देखे और चुप रह जाए। फिर चाहे कोई उसे मार ही डाले, वह हिमायत करने से बाज नहीं आता था।’ प्रेमचन्द के लेखन का कैनवास बड़ा है। दृष्टि सूक्ष्म और अत्यंत गहरी। वे अपने देशकाल से गहरे संपृक्त होने की वजह से सामान्य भाषाशैली में तल्ख़ बात भी सीधी ज़बान में आसानी से कह ले गए। कथाकार श्योराज सिंह बेचैन आगे कहते हैं-‘प्रेमचन्द के ज़माने में लमही से ही स्वामी अच्यूतानंद दलितों का अख़बार ‘आदि हिन्दू’ निकाल रहे थे। स्वामी जी डॉ0 आम्बेदकर के काफी नजदीक थे।’

बातचीत के दरम्यान ही यह पता चलता है कि गाँव के जुझारू लड़कों ने मिलकर एक मंडली बनाई है-युवा नेहरू मण्डली। इस मण्डली में शामिल अधिकांश लड़के 20 से 30 वर्ष की उम्र के हैं। इस मण्डली के अध्यक्ष सूर्यबली पटेल बताते हैं कि अभी ज्यादा दिन नहीं हुए इस मण्डली को गठित हुए। गाँव के ही अरविन्द कुमार राजभर को सचिव बनाया गया है। वही इसके परिकल्पनाकार भी हैं। सामूहिक साफ-सफाई का कार्य सबलोग आपस में मिलजुल कर करते हैं। गाँव के बच्चों में शिक्षा के प्रति रुझान है, लेकिन जागरूकता कम है। इसे ले कर वे सामाजिक-अभियान छेड़ना चाहते हैं। सामाजिक-सांस्कृतिक मौके पर बिना बुलाये ही मदद करने के लिए पहुँच जाते हैं। प्रेमचन्द द्वार के समीप प्याऊ लगाया गया है, ताकि राहगीर अपनी प्यास बुझा सके। बातचीत करते युवाओं में उत्साह का ग्राफ उच्चतम था। उन्होंने बताया कि वैसे तो बहुत कुछ करने के लिए सोच रखा है; लेकिन साथ में कोई फंड या निजी अनुदान न होने की वजह से वे अपनी सीमाओं का विस्तार कर पाने में असमर्थ हैं। फिर भी गाँव में इस मण्डली ने लोगों के बीच प्रेम-व्यवहार का जो धागा बुना है; उससे लमही ग्राम के निर्मल मन की तसदीक आसानी से की जा सकती है। गाँव के लड़कों ने बातचीत के दौरान ही हमें दशहरा के समय होने वाले रामलीला के बारे में बताया। उनका कहना था कि लमही गाँव को उस घड़ी और भी करीब से देखा-परखा जा सकता है। रामलीला के दिनों में मेले की रौनक और बहार रहती है। दुर्गापूजा में दशमी के रोज जबर्दस्त मेला लगता है। गाँव को खूब सजाया जाता है। लोग जरूरी कारज छोड़कर उस रोज मेला घूमने आते हैं। यह गाँव अभाव और अकालग्रस्त है, लेकिन इंसानी मामलों में कोई जोड़ नहीं है। सभी एक-दूसरे की सदैव मदद करने के लिए तैयार रहते हैं।

अब हम लौटना चाहते थे। लमही की हाल-बयानी पन्ने पर दर्ज़ करने के लिए। लौटते वक्त लमही के मुख्य द्वार से सामना हुआ जिसके भीतर घुसते ही दोनों तरफ पार्क बने हुए दिखें। पार्क में छाँह कम है, लेकिन सजावटी पौधे अधिक। आज़मगढ़ जाने वाले मुख्य मार्ग पर बनारस से करीब 5 मील की दूरी पर यह मुख्य द्वार अवस्थित है। निर्जीव शक्ल में स्थापित मूर्तियाँ जो प्रेमचन्द के कहानियों के पात्रों पर रुपायित थे; द्वार के दोनों ओर लगे हुए थें।
वहाँ से काशी पहुँचने के लिए पाण्डेयपुर गोलम्बर तक जाना काफी मशक्कत भरा कार्य था, क्योंकि सड़क के बीचोंबीच एक टैग लटका मिला-‘निर्माण कार्य जारी है।’ निर्माण की यह अफलातून-संस्कृति(बेढंगा बदलाव) कई सांस्कृतिक संकेतों, प्रतीकों एवं सूत्रों को कैसे हम से छीन ले रही है; इसका गवाह है-पाण्डेयपुर चौराहा जहाँ लगी कथा-सम्राट मुंशी प्रेमचन्द की प्रतिमा अब नदारद है। जिस जगह को देखने के साथ ही यह अन्दाज हो जाता था कि अब मुंशी प्रेमचन्द की ज़मीन हमसे कितने फ़र्लांग दूर हैं? आज उसकी जगह पर फ्लाईओवर के ‘हाथीपाँव’ मौजूद हैं। भौतिक बदलाव आदमी के आन्तरिक भूगोल को कितना बदल देता है; इसको हम साफ़ महसूस कर रहे थे? यही नहीं, कालजयी रचनाओं को सिरजने वाले मुंशी प्रेमचन्द के गाँव लमही से लौटते हुए और भी बहुत-सी चीजें हमें मथ रही थी। हम खिन्न अधिक थे, प्रसन्नचित्त कम। वहाँ के लोगों ने हमसे जिस अपनापा और आत्मीयता के साथ बातचीत की थी; हम उसके मुरीद अवश्य थे। लेकिन हमारी स्मृति-पोटली में कई ऐसी स्मृतियाँ भी थीं जो दुखदायी और मन को पीर देने वाली थीं।

कथा-सम्राट मुंशी प्रेमचन्द का गाँव पानी की समस्या से बेहाल है; खेत-ज़मीन बदहाल है; खास अवसरों पर आयोजित साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रम भी महज़ तारीख़ों की खूंटी पर टंगे हैं, लेकिन बाद बाकी लमही की सुध लेने की फिक्र कहाँ किसी को है? सुनने को मिला कि विश्वभर के लोग वहाँ मुंशी प्रेमचन्द की जन्मस्थली का दर्शन करने पहुँचते हैं; लेकिन उनके रहाव-ठहराव के लिए कोई प्रबंध नहीं है। यानी वहाँ जाने वाले अपने लौटने की बोरिया-बिस्तर पहले से ही तय कर ले जाते हैं। हम भी लौट रहे थे; अपनी दुनिया में; अपनी भाषा में। हम लौट रहे थे; उन शब्दों के अर्थ और भाव-बिम्ब में जिसे बनारस के युवा कवि रामाज्ञा शशिधर की कविता ‘खेत’ साफ़ जबान में हमारे समय, समाज, संस्कृति और देशकाल-परिवेश की शिनाख़्त करती हुई दिखाई पड़ती है; उन्हें सार्थक और समर्थ आवाज़ देती है-‘खेत से आते हैं फाँसी के धागे/खेत से आती है सल्फास की टिकिया/खेत से आते हैं श्रद्धांजलि के फूल/खेत से आता है सफेद कफ़न/खेत से सिर्फ रोटी नहीं आती।’