मंगलवार, 11 नवंबर 2014

पासआॅउट कैरेक्टर : अब तक जो जिया

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उस बड़े से हाॅल में कई मानिंद लोग बैठे हैं। मैं प्रतीक्षारत हूँ। यह अख़बार का दफ़्तर है। मुझे किसी कबूतरखाने से कम नहीं लग रहा है। पता नहीं कैसे इस माहौल में जीते-खाते हुए लोग जन-सरोकार की पींगे भरते हैं, सामाजिक दृष्टिकोण से पगे हुए वैचारिक लेख लिखते हैं....? ओह! मैं इसी उधेड़बुन के साथ दो बार कैंटीन का चाय गटक गया हूँ। अब तीसरे का इरादा नहीं है। ये डोरी टंगी चायपति वाली चाय देते हैं। हाथ लगी चाय को डोरी के सहारे ऊपर-नीचे करना अजीबोगरीब लगता है। लेकिन, कम्बख़त तलब ही ऐसी है कि ज़ल्लाद वाली भूमिका का भी निवर्हन करना पड़ता है। आजकल शहर में सबकुछ बदले हुए ‘पैटर्न’ और ‘मैनर’ का है। शौचालय तक अपने तरीके का नहीं है। किसी तरह निपटना ही पड़ता है। यह ‘माॅडलाइजेशन’ या कहें ‘माॅडर्नाइजेशन’ देशी मिज़ाज के लोगों को काफी भारी पड़ता है। खैर! पिछले तीन दिन से अपने दोस्त के यहाँ रूका हूँ। वह एक नामचीन अख़बार के वेब-संस्करण में है। कल वह नाइट-शिफ़्ट में देर रात लौटा था। उसके साथ उसकी महिला-मित्र थी। दोस्त ने परिचय कराया, तो उस लड़की ने बड़े लहज़े में ‘हाय!’ कहा था; फिर दोनों कुदक कर एक ही बिस्तर में सो गए। मैं चकित नहीं था; ये आधुनिक पत्रकारिता के भविष्य थे। पुराने ‘टाइप-फेस’ और ‘ले-आउट’ की जगह नए ढंग के डमी-निर्माण में दक्ष/प्रवीण वेबजाॅनी पत्रकार। इनकी दुनिया में ‘सेक्स’ एक शारीरिक जरूरत है जिसके लिए आपसी ‘अण्डरस्टैण्डिग’ होना जरूरी है और काफी भी।

उसी वक्त मुझे युवती रिसेप्सनिस्ट ने नजदीक बुलाया था।

‘‘सर! आप अन्दर जा सकते हैं...,’’ उसकी आवाज़ में खनक भरी मुसकान भी घुली थी।

‘‘याऽ! कम एण्ड सिट डाउन प्लीज!’’ कार्यकारी सम्पादक ने मेरी आवभगत करते हुए कहा था। मुझे अच्छा लगा।

अगली दो पंक्तियों में मैंने अपना परिचय दिया और साथ लाया पोर्टफोलियो आगे कर दिया। अलग से रेज़्यूमे भी उनकी ओर सरका दिया था। अन्दरखाने का माहौल टीप-टाॅप था। सुडौल और नक्काशीदार मेहराबों के साथ बना हुआ एक आधुनिक कमरा, सुसज्जित कक्ष। खिड़कियों में अलग-अलग किन्तु लम्बे-लम्बे कपड़ानुमा टुकड़े लटके थे। कई डोरियाँ भी आस-पास लगी हुई थीं। खिड़की के टुकड़े पोस्टआॅफिस के स्पीडपोस्ट काउंटर के प्रिंटर में लगने वाले कागज की चैड़ाई वाले नाप के थें। कमरे की ढेरों खासियत मैंने पढ़ ली थी। लेकिन, मैं मौन था। इस वक्त जिस शख़्स को बोलना था; मैं उसकी ओर टकटकी लगाए देख रहा था। इतने बड़े अख़बार के नामचीन सम्पादक से मैं रू-ब-रू था; इनके ‘बोल बच्चन’ पर मेरा भविष्य टीका था। 34 साल की उम्र में नौकरी की तलाश कितनी तक़लीफ़देह होती है, यह मेरे आँख में तैर रहा था। वह अनमने भाव से मेरा पोर्टफोलियो पलट रहे थे। मैंने जानबूझकर उस जगह पर अपनी निग़ाह टीका दी थी; लिखा था-‘अमेरिकी इरादों का डीएनए टेस्ट जरूरी’(राजीव रंजन प्रसाद); जबकि इस घड़ी मेरा डीएनए टेस्ट हो रहा था। मुझे उनके भाव पड़ते देर नहीं लगे। उनकी मनोभाषिकी का जो रुख मेरे समझ में आया; वह मज़मून कुछ खास नहीं था।

‘‘आपका रेज़्यूमे रख लेता हूँ, आपको इस बाबत मेल मिल जाएगी। और गुरुजी आपके कैसे हैं? स्वस्थ हैं न! उन्होंने आपके बारे में मुझसे आपकी तारीफ़ की थी; देखिए, मैं आपके बारे में क्या कर सकता हूँ? ओ.के. नाइस डे’’
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सम्पादक महोदय के केबिन से निकलते ही देखा, तो मेहरारू ने ताबड़तोड़ 4 काॅल कर डाले थे। मैं उसका नम्बर देखते ही भीतर से सहम गया था। लेकिन हिम्मत कर फोन उठाया और हैलो कहने के बाद समझाने के लहजे में बेलागलपेट कहा था-‘‘क्या हुआ का क्या मतलब! आज भी तो मिला ही हूँ; हर कोई आश्वासन दे रहा है। देखो यार! काम की तलाश में कुछ वक्त तो लगेंगे ही। बच्चों का ख्याल रखना। अबकी बार आता हूँ तो बच्चों का फीस एडवांस में ही तीन महीने का जमा कर दूँगा। मकान किराये का भी कुछ ऐसा ही इंतजाम कर दूँगा। सारी किचपिच दूर हो जाएगी। सुनो, टेंशन मत लो तुम!’’

दरअसल, रिसर्च के दौरान ही मैं अपने पूरे परिवार को बनारस ले आया था। यूजीसी की जेआरएफ-एसआरएफ थी, तो मौज से चली सब ठीक-ठाक। दीपू के कान के इलाज़ में जो खर्च हुआ था; उसे भी मैं बिना किसी दिक्कतदारी का वहन कर ले गया था, तो इसी वजह से कि स्काॅलरशीप मिल रही थी। मैंने कई मित्रों की मदद की थी; आज कई असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। लेकिन वे मेरे लिए कर भी क्या सकते हैं। उनकी अपनी दुनिया है की नहीं-फ्लैट, कार, घर के साज़ो-सामान आदि-आदि। 

कई मर्तबा सोचता हूँ। मेरा नाम डाॅ. राजीव रंजन प्रसाद हो जाना एक गाली है। इससे अच्छा है कि कोई मुझे राजू कहे, रजीबा कहे। ये डाॅक्टरी उपसर्ग बिलावज़ह टंग गया था। नाम में डिग्रियों की नक्काशी करने से आमदनी नहीं होती है; इतना तो मैं उस वक्त भी जानता था और इस वक्त भी जान रहा हूँ। काशी हिन्दू विश्वविद्यालये के जिस शोध-प्रबन्ध को तैयार करने में मैंने अपने जीवन का सारा सुख-चैन दाँव पर लगा दिया था; आज वे धूल के हवाले हैं। कई अकादमिक इंटरव्यू दिए, सब एक ही बात  दुहराते हैं-‘‘मेकअप इन इंग्लिश प्लीज!’ मैं अपना-सा मुँह ले कर रह जाता था।......

शनिवार, 8 नवंबर 2014

Indian Youth : Reflection of Actual Meaning, Perception and Expression

Y for Yew
O for Outvote
U for Unite
T for Trait
H for Helpfull
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Paper presented by
 Rajeev Ranjan Prasad
Senior Research Fellow(Mass Communication & Journalism)
Functional Hindi, Dept. of Hindi
Banaras Hindu University
Varanasi-221 005
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Contact : rajeev5march@gmail.com 
 
नोट: हमारे काम का तरीका इस बात पर निर्भर करता है कि हमें आगे बढ़ने का हौसला कौन दे रहा है, हिम्मत कौन बंधा रहा है और हमसे अपनी उम्मीद कौन बांध रहा है....अफसोस! हमारे मौजूदा अकादमिक जगत में इतना बेहायापन है कि आपको सिवाय रुसवाई के कुछ भी नसीब नहीं। हमारे काम तक को कौड़ियों के भाव लगाते हैं, क्योंकि हम अपनी हिन्दी भाषा में अपने होने का राग छेड़ते हैं, औरों को सीधी चुनौती देते हैं।
आपसब भी बहस-मुबाहिसे के लिए सादर आमंत्रित हैं!-राजीव रंजन प्रसाद

Political Mythology about Indian Youth : पूरा झूठ, पूरा फ़साना

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Paper presented by
 Rajeev Ranjan Prasad
Senior Research Fellow(Mass Communication & Journalism)
Functional Hindi, Dept. of Hindi
Banaras Hindu University
Varanasi-221 005
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Contact : rajeev5march@gmail.com

Permutations-Combinations of Indian Youth : Inner Base and Core Structure of 21st Centuary Life-Span

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Paper presented by
 Rajeev Ranjan Prasad
Senior Research Fellow(Mass Communication & Journalism)
Functional Hindi, Dept. of Hindi
Banaras Hindu University
Varanasi-221 005
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Contact : rajeev5march@gmail.com

गुरुवार, 6 नवंबर 2014

सुनो-सुनो प्रधानमंत्री सुनो

काशी से राजीव रंजन प्रसाद
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‘‘.....धरती को बौनों की नहीं
ऊँचे कद के इंसानों की जरूरत है

किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं
कि पांव तले दूब ही न जमे
कोई कांटा न चुभे, कोई कली न खिले

न बसंत हो, न पतझड़
हो सिर्फ ऊँचाई का अंधड़
मात्र अकेलेपन का सन्नाटा

मेरे प्रभु
मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना
गैरों को गला लगा न सकूं
इतनी रुखाई कभी मत देना।’’

मोदी जी प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से उस रोज एकदम सुबह मिले, जिस रोज उन्हें भावी प्रधानमंत्री के रूप में शपथ लेना था। 26 मई की संध्या मनमोहक थी; मनमोहन सरकार की विदाई के बाद जो सरकार सत्ता में काबिज़ होने जा रही थी; उसका आगाज़ सम्मोहक था। टेलीविज़न सुबह से सुरियाए हुए थे। हर तरफ मोदी। हर बात में मोदी। मोदी को ख़बरिया चैनल वालों ने क्षण अथवा पल के इतने टुकड़ों में बाँट दिया था कि कई मर्तबा ऊबकाई/मितली आ रही थी। प्रशंसा और तारीफ से परहेज़-गुरेज़ नहीं की जानी चाहिए; लेकिन उसमें अतिरेक हो या अटपटापन हो; शाब्दिक लफ्फ़ाजी और भड़ैतीपन हो, तो वह आपको निश्चित ही खिजा देती है। उस रोज गोरखधाम एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त हो गई थी। दर्जनों काल-कलवित हो गए थे। सैकड़ों घायल। लेकिन मीडिया मोदीनामी गाने में इस कदर मशगूल थे, मानों वे यह साबित करना चाहते थे कि कौन किससे कितना बड़ा भाट या चारण है। ज़मीन के पत्रकार आजकल मीडिया में नहीं हैं और जो हैं वे किस मिट्टी के बने हैं; जनता को सबकुछ समझ में आ रहा था।

उस रोज मैं विनती कर रहा था। मेरे मुँह से अटल बिहारी वाजपेयी की लिखी हुई उपर्युक्त पंक्तियाँ स्फूट हो रही थीं। मुझे लग रहा था कि देश को पहली बार कोई ज़बानदार नेतृत्व मिला है; हे मेरे  ईश्वर! इस व्यक्ति को सुबुद्धि देना कि यह जनता की सोचे, ज़मीन की सोचें और ज़माने के साथ अपने मजबूत पांव को दुनिया में टिकाने का हरसंभव अवसर तलाशे। मुझ जैसे साधारण लोग जिसे मताधिकार प्राप्त है; किन्तु अपनी बात सीधे देश के मुखिया तक नहीं पहुँचा सकते हैं; अपनी पीड़ा, तकलीफ़ या औरों के लिए सोचे जाने वाले विचारों को साझा नहीं कर सकते हैं; उनके लिए मौन-याचना रामबाण है। मोदी जी ने कुछ दिनों के अन्दर ही अपनी मंशा जतानी शुरू कर दी-‘अपनी बात सीधे प्रधानमंत्री से साझा करें।’ यह डिजीटल इंडिया के प्रस्तावक द्वारा प्रत्येक भारतीयों को दिया जाने वाला एक बड़ा मौका था। लेकिन मोदी जी देश की एक बड़ी आबादी ऐसी भी है जो अपनी जान दे देती है लेकिन अपनी दुःखों की डफली नहीं बजाती; वह जंतर-मंतर पर धरना प्रदर्शन नहीं करती। वह जानती है कि आंख-दीदा वाली सरकार देर-सबेर जब आएगी; उनका दुख जरूर हर लेगी। बिना कुछ कहे, बिना कुछ मांगे।

प्रधानमंत्री ‘मेक इन इंडिया’, ‘डिजीटल इंडिया’, ‘रन फाॅर यूनिटी’, ‘स्वच्छ भारत’, ‘जन-धन योजना’, ‘सांसद ग्राम गोद योजना’ आदि मसलों पर गंभीरता से विचार कर रहे हैं। लेकिन इन विचारों  का लाभ कितना विकेन्द्रीकृत है; इस पर प्रमुखता से विचार किया जाना चाहिए। यह भारत उभरते हुए मध्यवर्ग का सिर्फ नहीं है। यह भारत उन पूँजीपतियों का ही सिर्फ नहीं है जो समाज-सेवा की सार्वजनिक छवि के समानांतर अनगिनत ऐसे काम करते हैं जिसे सही मायने में ‘करतूत’ की संज्ञा दी जानी चाहिए। लेकिन बोलेगा कौन? ख्यातनाम साहित्यकार-कवि शमशेर बहादुर सिंह कम हैं जो यह कह सकें-‘प्राण का है मृत्यु से कुछ मोल-सा; सत्य की है एक बोली, एक बात।’

नरेन्द्र मोदी अब भाजपा के चेहरे नहीं रहे। वे अब भारत का भविष्य गढ़ने वाले निर्माता हैं। उन्हें अपनी वैयक्तिकता से ऊपर उठना होगा। टेलीविज़न और नवमाध्यमों की चालाकियों के बिसात पर ‘फ्लैट’ होने की जगह उन्हें अपनी आन्तरिक शक्ति, साहस और संकल्पनिष्ठा के द्वारा सवा अरब की आबादी वाले इस मुल्क को आश्वस्त करना होगा कि वे भारत के सच्चे कुम्हार हैं; एक ऐसा सर्जक जो अपने गढ़े पात्र में इतनी पात्रता पैदा कर देने की अकूत क्षमता रखता है कि-‘औरन को शीतल करें....आपहूं शीतल होय’।
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पी.एम. आज काशी विराजै

कार्यक्रम आज: 07/11/2014
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प्रधनमंत्री नामचीन नहीं हैं। कहा जाता है कि वे काम को वरीयता देते हैं और काम करने वाले को अहमियत। काशी में उनका ‘परफार्मेंस’ कैसा रहा है; यह उनके आगमन की अगुवाई में काशी द्वारा दी गई प्रतिक्रियाओं से ही जाना जा सकेगा।

 यह तय है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का ‘प्रधानमंत्री के रूप में’ काशी का यह पहला दौरा है। देव-दीपावली के बिहान ही वे इस पावन-पवित्र नगरी में पहुंच रहे हैं। उन्हें यहां पर गंगा नदी का 'हाल-ए-हक़ीकत' देखना है। यह जानना है कि उनके कार्यकत्र्ता और मातहत लोग बनारस को जापान के ‘क्योटो शहर’ से मुकाबला कराने में कैसे और कितने जी-जान से जुटे हैं?  ‘एक गांव हर सांसद की गोद में’ योजना के अन्तर्गत उन्होंने जिस गांव को चुना है; वह रातों-रात बदल रहा है, तो क्यों नहीं दूसरे गांवों का इसी तरह कायाकल्प हो सकता है? इच्छााशक्ति, संकल्प, निष्ठा, समर्पण, ईमानदारी, प्रतिबद्धता, निष्पक्षता आदि शब्द राजनीतिक कार्यों में एक उत्साही और उमंगदार शुरुआत के बाद क्योंकर निरर्थक हो जाते हैं? इन सारे तथ्यों और जानकारियों से प्रधानमंत्री को रू-ब-रू होना होंगा।

बीते महीनों में अपने काशी केन्द्रित जनसम्पर्क-कार्यालयों के किए-धराए को भी उन्हें जांचना-परखना होगा। यह जनता भी जानती है और स्वयं प्रधानमंत्री भी जानते हैं कि प्रायोजित नारों के उद्गार और ‘मोदी-मोदी’ के शोर से जनता का भला नहीं होने वाला है या कि उनकी सामाजिक प्रतिबद्धता और राजनीतिक कौशल, नेतृत्व और निर्णय-क्षमता साबित नहीं होने वाली है। चलिए, आज हम भी उनके साथ दो-कदम चलते हुए उनकी कर गुजरने की तबीयत को नजदीक से देखें!

हत्या के विरुद्ध आत्महत्या

:: भारत में सत्यानाशी विकास में अविनाशी पूंजीवाद का बढ़ता महाप्रकोप यदि दिखाई नहीं देती, तो समझिए हमारी चेतना का सामूहिक वध होना तय है! ::
हमारी मौत को
आत्महत्या माना जाएगा
क्योंकि हम सामूहिक वध अथवा सरकारी हत्त्याओं के खिलाफ लामबंद होना चाहते हैं
अपने लिए रोटी, कपड़ा और मकान चाहते हैं
हम अपनी ज़मीन के साथ
अपनी हवा-बतास के साथ
नल-कल-कुओं के साथ
ताल-पोखर और नदियों के पूजन-पाठ के साथ
समूह में और निर्भीक जीना चाहते हैं!

सोमवार, 3 नवंबर 2014

'Cast Censorship' promoted as a UNIQUENESS of Indian Democracy : Rajeev Ranjan Prasad

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'caste censorship' is exist in Indian democracy  with much powerfully and majority. I have proposed it on the basis of research and collecting materials/samples. This is use as uniqueness and specialty of Indian Social-Culture. It's governed by social hierarchy. Attention please, it has no part of social freedom, it is no part of similarity. In real meaning it is part of heterogeneous tradition.   

सोचिए, क्या आपके बच्चे सलामत बचे रहेंगे!


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एक स्कूल जाती बच्ची को ‘सेक्स आइटम’ की तरह ट्रीट किया जाता है। हम-आप-सबलोग खामोश बने रहते हैं। सबको अपनी खामोशी पर गाढ़ा विश्वास है। सबलोग अच्छे दिन के इंतजार में हैं।.....

मोदी जी को सरदार फिर पटेल बनाया जाना!

2014

 कल मोदी जी रेडियो पर दिल से बोले। देसी सीमा में ज़िन्दा मानुषों ने उन्हें सुना और सराहा भी खूब। मोदी बोलते वक्त ज़बानी टोन में एकदम विनीत हो जाते हैं। यह बड़ी खासियत है जो पहले के वक्तृतापूर्ण राजनीतिज्ञों के बोली-बात  एवं कहनशैली से इन्हें भिन्न साबित करती है और अपेक्षाकृत अधिक नजदिकीयात भी महसूस कराती है। संचार का मुख्य उद्देश्य भी यही है। हमारे द्वारा भेजे गए ‘अर्थपूर्ण संदेशों’ का प्रभाव दूसरे लोगों पर होना चाहिए, वे कुछ प्रतिक्रिया दें, उनमें कुछ बदलाव आए, उनके और हमारे बीच एक साझेदारी या समझ बने; यह आवश्यक है। संचारविज्ञानियों एवं मनोभाषाविज्ञानियों ने भी इन्हें ‘पर्सन विद डिफरेंस’ के साथ वर्तमान राजनीति में नोटिस लिया है। उनकी दृष्टि में नरेन्द्र मोदी की स्नायु-शक्ति बहुत मजबूत है जो कि आन्तरिक स्नायु-मंडल द्वारा संचालित-अभिप्रेरित है। स्नायु-मंडल के अन्तर्गत आते हैं: 1) उत्तरदायित्व, 2) समयनिष्ठा, 3) सांवेगिक स्थिरता, 4) आत्मविश्वास और 5) अहम्-शक्ति। दरअसल, जनता के सामने बोलना जितना आसान है; उसके मिज़ाज को भांपना बिल्कुल कठिन।

दिनोंदिन नरेन्द्र मोदी की बढ़ती लोकप्रियता उनके व्यक्तित्व-व्यवहार का साधारण ब्याज है। इसे काॅरपोरेट प्रचार-प्रबंधकों के झांसे में पड़ चक्रवृद्धि ब्याज नहीं समझना चाहिए। यदि वे इस लोप्रियता को जन-उगाही का जरिया समझने की भूल किए, तो अधिक संभव है कि उन्हें धर्मगुरु और धर्म-प्रचारक भी नहीं माफ करेंगे। ईष्र्या(कई बार यह प्रशंसातिरेक के मुलम्मे में जाहिर-प्रदर्शित होती है) बड़ी बलवती चीज है; और मोदी के इर्द-गिर्द इसका जबर्दस्त गुब्बार-अंबार जमा होता दिख रह है। भाजपा में कुछ नहीं है। पार्टी में आया ये सारा चमक मि. प्राइम मिनिस्टर की निष्ठा, उनके बेलागपन और जन-संवाद को सबसे अधिक प्राथमिकता देने का सुफल है। इसे कृपया नकदी हस्तांतरण का विषयवस्तु नहीं समझा जाना चाहिए।

कहना न होगा कि नरेन्द्र मोदी को लेकर बौद्धिक-कहकहे खूब हैं, लेकिन स्पष्ट, पारदर्शी और वैकल्पिक अंतःदृष्टि वाले सुझाव-विचार और मत का सर्वथा अभाव भी दिख रहा है। अधिसंख्य नरेन्द्र मोदी को ललकार रहे हैं या फटकार रहे हैं या कि कुछ बिल्ला-बहादुर तो फूंफकार के तेवर और भाषा में तनतना भी रहे हैं। यह सब अनावश्यक कसरत है। साथ मिल-बहुर कर राष्ट्रीय चेतना और कर्तव्यनिष्ठा के साथ विभिन्न मिशनरी पहलकदमियों में सहभागी और सक्रिय बनने की जरूरत है।

स्वयं मोदीजी को भी जरूरत है कि वे अपने ग्रहीता-भाव को अधिक व्यापक और बहुआयामी बनाए। ‘यूनिटी फाॅर रन’ जैसे लोकप्रियतावाही आयोजन से शारीरिक कसरत जरूर थोड़े-बहुत हो जाएंगे; किन्तु उससे चारित्रिक शुद्धता, प्रतिबद्धता और समाजोन्मुख चिन्तन-दृष्टि नहीं पनप सकती है। इसके लिए विशाल-विराट मूर्तियों के अनावरण की भी जरूरत नहीं है; क्योंकि सरदार पटेल की आदमकद मूर्ति देखकर किसी भारतीय नागरिक का हित न तो सधने वाला है और न ही मोदी जी की भीतरी इच्छाशक्ति एवं संकल्पशक्ति में ही बढ़ोतरी संभव है।

एक बात और इत्तला करना जरूरी है कि मि. प्राइम मिनिस्टर को अपनी मौलिक संकल्पना, विचार-दृष्टि एवं जन-प्रतिबद्धता के माध्यम से लोकतांत्रिक व सांविधानिक दायित्व का निर्वहन करना होगा। विदेशी प्रचारकों का कलात्मक-सर्जनात्मक सम्मोहन दस्तावेजी रंगरोगन और चित्रांकन-रंखांकन के लिए ठीक है; किन्तु वैयक्तिक व्यक्त्वि, व्यवहार, नेतृत्व, निर्णय-क्षमता, समस्या-समाधान् आदि की दृष्टि से अपने कान-आंख और इन्द्रिय-बोध पर निर्भर रहना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।

काफी पहले सन् 2002 में भी सरदार पटेल को लेकर नरेन्द्र मोदी की खुब खींचतान हुई है।
2002
कइयों ने उन्हें ‘पटेल का वारिस’ कहकर भी उन दिनों सम्बोधित किया था जिसे लेकर कई  राजनीतिज्ञों को घोर आपत्ति थी; मुझे भी है। यह बहुत बौनी लालसा  और दुर्बलता है। इससे औरों को संतुष्ट होने देना चाहिए। मि. प्राइमिनिस्टर को तो उस जनाकर्षण को महत्त्व देना चाहिए जो आप पर विश्वास करता है। कांग्रेस विश्वास छलकर जनता के 'डीएनए' से भी बाहर हो गई....मोदीजी इससे सीख लेंगे और इस ढर्रें को परम्परा बनने से रोकेंगे।

अंतिम बात, जनता जल्दी में नहीं है; बल्कि हड़बड़ी में हैं भाजपा के वे ज़मीनछोड़ राजनीतिज्ञ जो ‘मोदी’ पर कायम जनास्था को कभी लहर कहते हैं, तो कभी सुनामी। ये ऐसे मौकापरस्त लोग हैं जिनका एक ही काम रहा है अब तक-‘हम तो डूबेंगे ही सनम, तुम्हें भी ले डूबेंगे!’  


धन-ऋण

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मेरी समझ से तो हमारे भीतर एक कुदरती/प्रकृतिप्रदत टरबाइन है जो भीतरी
द्रव-अंश में घूर्णन करता है। इसी से निकसित होता है: धन-ऋण। धन-ऋण का यह
पारस्परिक संयोजन-संगुफन ही आत्मा है जो चेतना का सूचक है और शक्ति का
निर्माता। धन का बढ़ना दिव्य होना है, जबकि ऋण-अंश बढ़ने का तात्पर्य है
चेतना-शून्य, संज्ञाशून्य, जड़ और अंततः पदार्थ रूप होना है। जहां
द्रव-अंश नहीं है वह चित्तशून्य है। यथा-नाखून, बाल इत्यादि। शिशु को
पैदा होते ही सर्वप्रथम द्रव-अंश चाहिए होता है ताकि नाल कटाई के बाद की
खुराक उसके भीतरी अंतःप्रक्रिया से स्वतः प्राप्त हो सके।  वास्तव में यह
टरबाइन ठीक वैसी ही है जैसे प्यारी छोटी घड़ी में भीतरी यांत्रिकी का
दोलन-कंपन मिनट, घंटा और समय बताते हैं। अतः मानव-शरीर के रचना में पूरी
विज्ञान कार्य-कारण-सम्बन्ध के साथ समाहित एवं उपस्थित है। बस नहीं है तो
ईश्वर। जो स्वयं को सर्वाधिक असुरक्षित मानता है अथवा भयाक्रांत होता है;
ईश्वर सबसे ज्यादा उसी के चिंतन में रहते हैं। जो दृश्य है उसका विज्ञान
आपरूप घोषित है। इसलिए उसमें न माया है और न ही सम्मोहन। लेकिन जो समक्ष
है ही नहीं उसे लेकर पंडिताई-ओझाई सर्वथा उपयुक्त राह-दिशा है। यदि
धर्मखाने न हो तो स्पर्धा निष्पक्ष, वस्तुनिष्ठ और पारदर्शी हो जाएगी।
फिर सामंती ललाओं, मठ-मठीसियों का क्या होगा? इस कारण ईश्वर को बनाए रखना
ऐसे सभी लोग चाहते हैं। उसके होने या न होने पर वैज्ञानिक चिंतन-संवाद कम
ही लोग करने को राजी होते हैं।

रविवार, 2 नवंबर 2014

GPR>IPR IN GENOPOLITICS!


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  प्रस्तुति : राजीव रंजन प्रसाद
वरिष्ठ शोध अध्येता(जनसंचार एवं पत्रकारिता)
प्रयोजनमूलक हिन्दी, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय


First You Know that : GPR & IPR.

GPR stands for 'Generic Property Right' is better run in Indian context(Genopolitics) as a Golden Rule.
& IPR stands for 'Intellectual Property Right' यह शब्द तो इतना बहुप्रचारित है कि आप जानते ही होंगे। ‘जेनोपाॅलिटिक्स’ शब्दावली एवं प्रयोग में थोड़ा नया है जो भारतीय लोकतंत्र की एक प्रकार से कहें, तो जीवन-शक्ति है। अभिजात राज करेंगे, यह बात भारतीय लोकतंत्र में पूर्णतः प्रथारूढ़ रूप में अक्षत बनी हुई है। ‘जेनोपाॅलिटिक्स’ यानी इस अनुवंशी राजनीति का तीन ध्येय स्पष्ट है : पहला सामंतीपन, दूसरा कूटनीतिपन और तीसरा जातीय सुरक्षापन का भाव व विचार-बोध।....


(Making proposal for 'NEXT TOUR')

NEXT TOOR!




Option's are open in Global World!

मेट्रो-लाइफ@हिन्दी सिनेमा



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राजीव रंजन प्रसाद

विषय सूची:

भूमिका: कंक्रीटों तले म्हारा देश!

1. महानगर: अवधारणा एवं स्वरूप
>सामूहिक आवास की विविध इकाइयां
>महानगर: अवधारणा
>महानगर: सामाजिकता एवं संस्कृति
>समकालीन महानगर: विशिष्ट जीवन स्थितियां
>महानगरीय मध्यवर्ग
>महानगरीय झुग्गियां
>महानगरीय व्यक्ति: जीवन दर्शन, मनोविज्ञान एवं जीवनशैली

2. समकालीन हिन्दी सिनेमा
>सामान्य परिचय
>नवपूंजीवादी भूमंडलीकरण के प्रभाव
>लोकप्रियतावाद: मनोरंजन का रुचि बोध
>सिनेमा में हस्तक्षेप

3. समकालीन हिन्दी सिनेमा में महानगरीय जीवन
>समकालीन हिन्दी सिनेमा में महानगर
>मुंबई की केन्द्रीयता
>महानगर: सामाजिकता एवं संस्कृति
>समकालीन महानगर: विशिष्ट जीवन स्थितियां
>महानगरीय मध्यवर्ग
>महानगरीय झुग्गियां
>महानगरीय व्यक्ति: जीवन दर्शन, मनोविज्ञान एवं जीवनशैली
>महानगरीय बच्चें
>महानगरीय स्त्री

उपसंहार : आ जा...जरी वाले नीले आसमानों के तले

शनिवार, 1 नवंबर 2014

राजीतिक संचारक की भाषिक एवं कायिक पटकथा


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शोध पत्र प्रस्तुति : राजीव रंजन प्रसाद
वरिष्ठ शोध अध्येता(जनसंचार एवं पत्रकारिता)
प्रयोजनमूलक हिन्दी, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय

संचार : अर्थ, भूमिका, अनुप्रयोग, समकालीन महत्त्व, ग्लोबल नेतृत्व आदि

भाषा :
>भाषिक रूप, स्थिति, प्रयोग, प्रभाव,
>कायिक रूप, स्थिति, प्रयोग, प्रभाव

राजनीतिक संचारक : व्यक्तित्व, व्यवहार, नेतृत्व

प्रतिनिधि राजनीतिक संचारक : राहुल गाँधी, अरविन्द केजरीवाल, नरेन्द्र मोदी

राजनीतिक भाषणों का विश्लेषण :           
>वाग्मिता, वक्तृता
>विशिष्ट संचारक गुण
>साम्य-वैषम्य
>राजनीतिक अंतःदृष्टि
>ज़मीनी जुड़ाव
>सामाजिक सरोकार
>सम्बद्ध भूमिका
>दायित्व का निर्वहन
>निर्णय-क्षमता
>क्रियान्वयन
>सफलता
>नेतृत्व

अन्य युवा राजनीतिज्ञों से संक्षिप्त तुलनात्मक अध्ययन-विश्लेषण

निष्कर्ष
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Walk With Mirror 
राजनीतिज्ञ संचारक का वैयक्तिक दायित्व
मेरे आलोचनात्मक निकष

1. सक्रिय आलोचनात्मक दृष्टिकोण
2. विवेकसम्मत चेतना
3. जनांकाक्षा के प्रति अटूट निष्ठा
4. नैतिक समझदारी और चारित्रिक बरताव
5. जन-बहुलता और जन-शक्ति को श्रेष्ठ-सर्वोपरि सत्ता मानने की धारणात्मक/संकल्पनात्मक प्रवृत्ति
6. जन-समस्याओं के हल अथवा निराकरण हेतु उच्च मनोबल, दृढ़इच्छाशक्ति और सेवा-समर्पण भाव
7. सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक मोर्चे पर ठनी वर्गीय अंतद्र्वंद्वों एवं अंतर्विरोधों का समाधान
8. सामाजिक यथार्थ को केन्द्रीय भूमिका में रखते हुए जन-अभिमत तैयार करना।
9. राज्य-राष्ट्र की जनातांत्रिक संकल्पना को भौगोलिक चैहद्दी के सीमांकन-रेखांकन से ऊपर उठाना
10. नवाधुनिक, नवीन अथवा नवाचारयुक्त चेष्टाओं का अधिकाधिक आत्मसातीकरण
11. मानवीय-कौशल,अभिवृति एवं तकनीकी-प्रौद्योगिकी आधारित अनुप्रयोग को प्रोत्साहन 
12. ग्लोबल नेतृत्व हेतु स्वतंत्र मानस एवं आत्मनिर्भर समाज का निर्माण
13. परम्परा एवं संस्कृति में अनुस्यूत अरध्यात्मिक चेतना एवं दृष्टिकोण को अक्षुण्णय बनाए रखना
14. ‘अपनी मूल चारित्रिक सत्ता में अपना सर्वांगीण विकास’ का बहुद्देशीय एवं बहुआयामी लक्ष्य रखना
15. सामाजिक समरसता से वैश्विक-मिलाप तक में ‘सत्य’, अहिंसा’ और 'मानव-सेवा धर्म’ को अपनाना
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* तवज्जों या तरजीह देने की बात करना बेमानी है; लेकिन गंभीर तथ्याों, विचारों और विश्लेषणों पर गौर फरमाना बेहद जरूरी है।