मंगलवार, 30 सितंबर 2014

किसके सपनों के वारिस हैं मि. प्राइममिनिस्टर?



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 समस्त चित्र ‘इंडिया टुडे’ और ‘आउटलुक’ से साभार

‘केम छो मिस्टर प्राइम मिनिस्टर’: बराक ओबामा
‘थैंक यू वैरी मच मिस्टर प्रेसिडेंट’: नरेन्द्र मोदी
 

यह वार्तालाप अमेेरिका स्थित व्हाइट हाउस में उस समय घटित हुए जब अमेरिकी राष्ट्रपति इण्डियन प्राइम मिनिस्टर से मिले। बराक ओबामा ने गुजराती भाषा-टोन में नरेन्द्र मोदी की अगुवाई और स्वागत जिस गर्मजोशी के साथ की; वह गौरतलब है। यह सही है कि यह संवाद जब दो देशों के प्रमुख जन-मानिन्दों के बीच हो रहे थे; पूरी दुनिया की मीडिया इस क्षण को अपने कैमरे अथवा मस्तिष्क में कैद कर लेने को आतुर, व्यग्र और बेचैन दिख रही थी। सीमित और दायरेबन्द विवेक-चेतना वाली भारतव्यापी मीडिया(विशेषतया अंग्रेजी नस्ल वाली हिंदी चैनल) की हैसियत-औकात इतनी नहीं है कि वह इस भाषिक-प्रयोजन का निहितार्थ-लक्ष्यार्थ समझ सके; और सही-सही विश्लेषण के माध्यम से अपनी देसी जनता को यह बतला सके कि आखिरकार कथित रूप से अमेरिका जैसे ढीठ एवं अड़ियल रूख वाले राष्ट्राध्यक्ष को यह क्योंकर सूझी कि वह गुजराती में पूछे-‘कैसे हैं माननीय प्रधानमंत्री?’ और सवा अरब की आबादी वाले देश का प्रतिनिधित्वकर्ता प्राइम मिनिस्टर अपनी मूल ज़बान तो छोड़िए अपनी  उस करिश्माई वक्तृता की भाषा में भी जवाब न दे सके-‘मैं बिल्कुल चंगा, दुरुस्त और स्वस्थ हूँ माननीय राष्ट्रपति।’

‘मेक इन इंडिया’ के सर्जक-धर्जक क्या इस घटना पर अपनी कान देंगे? क्या वह यह मानेंगे कि यह अमेरिकी मनोव्यवहार, मनोभाषिकी और नीतिगत संचार शैली का कुटनीतिक हिस्सा है? यही अमेरिकी समाज के नेताओं का वास्तविक चारित्रिक-वैशिष्ट्य और अहंभाव है?  क्या भारीय राजनीतिक विश्लेषक-राजनयिक और उच्च पदस्थ आला अधिकारीगण यह समझ पाने की स्थिति में हैं कि अमेरिकी निगाह में अपनी सर्वश्रेष्ठता को हर हाल में प्रदर्शित कर ले जाना ही उसकी अपनी खूबी-खाशियत है? क्या इण्डियन एडवाइजर/मैनेजर/काउंसलर/टेक्नोक्रेट/ब्यूरोक्रेट/कारपेट/काॅरपोरेट आदि के नामचीन शेखों को इसका तनिक भी अंदाज था कि जिस प्राइम मिनिस्टर ने मैडिसन स्कावयर में एक दिन पहले बोलते हुए वहाँ मौजूद हजारों मूल भारतवंशी अमेरिकियों को अभिभूत कर दिया था; वह महान शख़्सियत जब अमेरिकी राष्ट्रपति के समक्ष प्रकट होगा तो वह अपनी उस वाक्पटुता, वाक्कौशल अथवा अंदाजे-बयां को भी प्रत्युत्तर रूप में शामिल कर पाने में असमर्थ सिद्ध होगा। याद कीजिए इस मोड़ पर महात्मा गांधी होते तो दृश्य और स्थिति क्या होती?

(राजीव रंजन प्रसाद लिखित आलेख ‘किसके सपनों के वारिस हैं मि. प्राइममिनिस्टर?’ से)

नोट: लेखक बीएचयू में भारतीय युवा राजनीतिज्ञों के संचार विषयक मनोव्यवहार एवं मनोभाषिकी पर शोधकार्य कर रहे हैं।

मंगलवार, 23 सितंबर 2014

भाषा की मुश्किलों का मसला

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21 सितम्बर को प्रकाशित ‘जनसत्ता’ अख़बार के आलेख ‘हिंदी की मुश्किलें’ पर राजीव रंजन प्रसाद की टिप्पणी
 
कई मर्तबा स्तंभ लेखकों की समझ सम्बन्धी कच्चापन/बौनापन को देख-पढ़ कर मन
खराब हो जाता है। दिलीप खान का लिखा ‘हिंदी की मुश्किलें’(21 सितम्बर)
इसका एक उदाहरण है। वे लिखते हैं-‘सामाजिक विज्ञान से लेकर दूसरे
अनुशासनों में अनुवादों को छोड़ दें तो हिंदी में कितना मूल-लेखन हुआ है?’
इसी में आगे वह अपनी पुरोहिताई(?) का फतवा जारी करने से भी नहीं
हिचकते/चूकते हैं-‘हिंदी के लिए चिंता करने के बजाए इस भाषा को
जानने-समझने वाले लोग इसमें ज्ञान सृजन करें। यह सृजनात्मकता अगर स्थगित
रही, तो बहुत मुमकिन है कि भविष्य में हिंदी का कोई भी बेहतर लेखन पाठकों
को यह भरोसा दिलाने में नाकाम रहेगा कि वह सचमुच मौलिक और बौद्धिक मानदंड
पर खरा उतरने वाला लेखन है। हिंदी में लद्धड़ किस्म की किताबों का इसी
रफ़्तार से छपना जारी रहा तो सचमुच हिंदी में इन अनुशासनों को पढ़ने से
विश्वास ही उठ जाएगा।’

प्रश्न है, आप इतने आशंकित और निराश क्यों हैं? आपने स्वयं कितना पढ़ा और
जाना है, हिंदी भाषा के लुर-लछन, बोल-बर्ताव, गति-मति, भाव-अनुभाव,
ज्ञान-विज्ञान, संस्कार-सरोकार इत्यादि को। क्या आपने हिंदी में छपी
सीएसडीएस की पत्रिका ‘प्रतिमान’ का एक अंक भी पढ़ा है? हम उसके लिए साढ़े
तीन सौ रुपए तक खरच देते हैं। क्या वह आपकी दृष्टि में लद्धड़ लेखन का
हिस्सा-हासिल है? रहने दीजिए महराज! आपके भीतर हंसी, विस्मय, जुगुप्सा
पैदा करती हिंदी का जो प्रेत वास कर गया है वह शायद लद्धड़ लेखन के झरोखे
से ही दाखिल हुआ हो। हिंदी में लद्धड़ लेखन है; लेकिन इसे
इंटरनेटी-वेबसाइट का ‘रेड ट्यूब’ कहा जाता है जो अंग्रेजी में कितनी
विपुल और विशाल है, आप अवश्य परिचित होंगे। आपने यदि गम्भीरतापूर्वक बिना
किसी पूर्वग्रह के अध्ययन-अवलोकन किया हो, तो आप जान पाए होंगे कि हमारे
यहाँ हिन्दी में ज्ञान आधारित प्रभूत सामग्री मौजूद है; तब भी हम
वास्तविक चर्चा-विमर्श कम विलापी-बतकुचन अधिक करते हैं। हिन्दी भाषा के
प्रति ज़ाहिर/उजागर इस किस्म के प्रायोजित रुदन से हिंदी की मुश्किलें हल
नहीं होने वाली हैं; और न ही ऐसे ढपोरशंखी रवैयों से हमारे ज्ञान-आधारित
विवेक-विश्वास का स्तर ऊपर उठ सकता है। आज नई पीढ़ी और नवाचारयुक्त सोच के
अगुवाजन सप्रयास अपनी भाषा को तकनीकी-प्रौद्योगिकी के हर
खाँचें(यूनीकोडीकरण) में संजोने-सहेजने में जिस तरह लट हैं; उनकी सुध
लेने वाले सरकार के सटोरिए और पुरस्कार के बंदरबाँट मचाने वाले कहाँ-कहीं
दिखाई पड़ते हैं? अतएव अंग्रेजी भाषा के जानकार जो स्वयं अपनी मातृभाषा,
साहित्य, ज्ञान, विज्ञान, सूचना, संस्कृति, मूल्य आदि की संचारयुक्त
तकनीकी अनुप्रयोगों और उपादानों से मीलों दूर हैं; उन्हें यह कहने-सुनने
का कोई अधिकार-हक़ नहीं बनता है कि हिन्दी लेखन के नाम पर लद्धड़ लेखन हो
रहा है या कि उनमें बौद्धिक स्तर का अभाव, सिद्धान्तों-अवधारणाओं का लोप
और सतहीपन तारी है।

मैं यहाँ यह भी ताकीद कर देना चाहता हूँ कि सिर्फ लिपियों के
लिपिस्टक-पुते(रंगीन-आकर्षक मुद्रण व छाप-छपाई वाला अंग्रेजी
टिप्स-टेक्नीक) चेहरों से सर्जनात्मकता नहीं आती है; विज्ञापनों के खोल
में लपेटकर सतही विचार परोसने से ज्ञान एवं समझ की मीयाद नहीं बढ़ती या
विकसित होती है। उसके लिए तो मुक्तिबोध की शब्दावली वाली ‘ज्ञानात्मक
संवेदन’ और ‘संवेदनात्मक ज्ञान’ का सहृदय तल व धरातल चाहिए। इसके
अतिरिक्त भाषा में बरती जाने वाली भाव, संवेदना, संज्ञान, चिन्तन, तर्क,
विचार, कल्पना, स्वप्न आदि का महीन बोध और लोक-प्रत्यक्षीकरण आवश्यक है।
यह काबीलियत ज्ञान-वर्चस्व अथवा बौद्धिक संपदा अधिकार की
अमेरिकन-योरोपियन प्रणाली/प्रक्रिया से नहीं आ सकती है जिसके मूल में ही
है कि किसी सम्प्रभु राष्ट्र के आत्मगौरव और आत्मसम्मान को कुचल देना;
दृढ़संकल्पित भावना और कर्तव्यनिष्ठ इच्छाशक्ति रखने वाले सहज मनुष्य और
उनकी मातृ-भाषाओं को विश्व-बाज़ार में निलाम कर देना; मुल्क की अस्मिता,
संस्कृति और विरासत को सियासी प्रभावातिरेक और नवसाम्राज्यवादी गठजोड़
द्वारा कुंठित/दमित कर देना आदि-आदि।

दरअसल, आज जनसाधारण में अंग्रेजी भाषा को लेकर सनक नहीं बल्कि हदस समायी
हुई है। यह सरकारी हनक, हुरपेट और हीनताबोध का नतीजा है। आज ग्रामीण
परिवेश के आमजन अपने बच्चों को अंग्रेजी विद्यालयों में भेज रहे हैं;
ताकि उनका बच्चा कमाने लायक कुछ सहूर सीख सके; क्योंकि यह बात चहुँओर
फैलाई जा रही है कि हिन्दी भाषा जानने वालों के भीतर दक्षता-कौशल निर्माण
की गुंजाइश  न के बराबर है। उन्हें धीरे-धीरे यह भान हो चला है कि अपनी
चारित्रिक निष्ठा और लोकतांत्रिक चेतना से बरी हो चुकी सरकारी मिशनरियों
के मुआफ़िक अंग्रेजी का ज्ञान न हो, तो उन्हें अपनी आजीविका के लाले पड़
जाएंगे; अंग्रेजीदां बिरादरी उनकी सोच, समझ और दृष्टि को खारिज कर देंगी
वगैरह-वगैरह। गोकि यह विडम्बना इतनी प्रबल-प्रचण्ड है कि आज भी
सरकारी/गैर-सरकारी दस्तावेज पर यह स्पष्ट निर्देश मिल जाएगा कि-‘अंग्रेजी
का लिखा ही अन्तिम रूप से सच और शुद्ध रूप से मान्य है’। अर्थात अंग्रेजी
का लिखा-छपा हर शब्द और वाक्य वेद है, ब्रह्म है और उसके वाचक-प्रवंचक
मठाधीश वेदांची। इस चुनौतिपूर्ण समय में हिंदी की असल मुश्किलों की
खोजबीन और पड़ताल आवश्यक है; लेकिन उसके लिए सर्वप्रथम हमें अपने
दुराग्रह/पूर्वग्रह के केंचुल को उतार फेंकना होगा। आमीन!
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-राजीव रंजन प्रसाद, बीएचयू, वाराणसी
 

रविवार, 21 सितंबर 2014

‘इस बार’ की स्मृति में

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तुम्हारे चले जाने का अत्यंत दु:ख है; लेकिन खुशी भी कि मैं तुम्हारे शब्दों और अर्थों की गिरफ्त से मुक्त हो गया...स्वतन्त्र हो गया....अहा! यह मेरा क्षणिक भावोद्रेक........


रविवार, 7 सितंबर 2014

यह ज़िन्दा गली नहीं है!


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माही का ई-मेल पढ़ा। खुशी के बादल गुदगुदा गए।

जिस लड़की के साथ मेरे ज़बान जवान हुए थे। बुदबुदाए।

‘‘बिल्कुल नहीं बदली....’’

अंतिम शब्द माही का नाम था, उसे मन ने कह लिया था। लेकिन, मुँह ने मुँह फेर लिया।
(आप कितने भी शाहंशाह दिल हों....प्रेमिका से बिछुड़न की आह सदा शेष रहती है)

उस घड़ी मैं घंटों अक्षर टुंगता रहा था। पर शब्द नहीं बन पा रहे थे। रिप्लाई न कर पाने की स्थिति में मैंने सिस्टम आॅफ कर दिया था। पर मेरे दिमाग का सिस्टम आॅन था। माही चमकदार खनक के साथ मानसिक दृश्यों में आवाजाही कर रही थी। स्मृतियों का प्लेयर चल रहा था।

‘‘यह सच है न! लड़कियाँ ब्याहने के लिए पैदा होती हैं, और लड़के कैरियर बनाने के लिए ज़वान होते हैं। मुझे देखकर आपसबों को क्या लगता है?’’

बी.सी.ए. की टाॅप रैंकर माही ने रैगिंग कर रहे सीनियरों से आँख मिलाते हुए दो-टूक कहा था। तालियाँ बजी थी जोरदार। उसके बैच में शामिल मुझ जैसा फंटुश तक समझ गया था। माही असाधारण लड़की है। लेकिन, मैं पूरी तरह ग़लत साबित हुआ था। माही एम.सी.ए. नहीं कर सकी थी। पिता ने उसकी शादी पक्की कर दी थी। उस लड़के से जो एम. सी. ए. का क...ख...ग भी नहीं जानता था। माही ने एकबार भी इंकार नहीं किया था।(अपने माता-पिता या अपने अभिभावक का सबसे अधिक कद्र आज भी लड़कियाँ ही करती(?)हैं।)

माही का पति बिजनेसमैन है। स्साला एकदम बोरिंग। हमेशा नफे-नुकसान की सोचने वाला। शादी के बाद भी माही से जिन दिनों बात होती थी। वह बताती थी-‘‘राकेश की सोच अज़ीब है, वह मानता है कि सयानी लड़कियों को लड़कों से दोस्ती नहीं करनी चाहिए; लड़कियाँ ख़राब हो जाती है।’’

‘‘ये सामान बेचने वाले हमेशा ख़राब-दुरुस्त और नफे-नुकसान की ही सोचते हैं...,’’

मैंने कहा। माही तुरंत फुलस्टाॅप लगा दी। विवाहित लड़कियाँ चाहे कितनी भी पढ़ी-लिखी हों अपने सुहाग(?)के बारे में ज्यादा खिंचाई बर्दाश्त नहीं कर सकती हैं। वैसे हम दोनों हँसे खूब थे।

अब तो उसकी हँसी सुने अरसा हो गया है। आज उसने ई-मेल किया है। वह भी यह बताने के लिए कि बच्ची हुई है...और स्वभाव में बिल्कुल मुझ पर गई है।

माही के बिल्कुल न बदल सकने वाली बात ऊपर के पैरे में मैंने इसीलिए कहा था।

‘‘ओए मंजनू के औलाद...सो गए,’’

‘बोल न कम्बख़्त, क्या मैं किसी को चैन से याद भी नहीं कर सकता...., दो मिनट!’’

‘‘खुद तो माही महरानी बन गई...अब माताश्री भी; मजे लो...।’’

पार्टनर जीवेश और मेरी खूब बनती थी। उसने मुझे माही पर एतबार करते हुए, उसके लिए अपना सबकुछ लुटाते हुए देखा था...अब उन्हीं आँखों से मुझे लूटते हुए भी देख रहा था।.....
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(कहानीकारों की ज़िन्दा कौमे हैं....अफ़सोस गलियां ज़िन्दा नहीं हैं.....खै़र! फिर कभी...)

अपनी भाषा में ‘मर्दानी’

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गत रविवार को मैंने केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड द्वारा आयोजित एक परीक्षा दिया। इस परीक्षा का उद्देश्य दक्ष/प्रवीण, नवोन्मेषी चिन्तन-दृष्टि वाले बौद्धिक अध्येता की खोज करनी थी जो मौजूदा शैक्षिक कार्यक्रमों को अधिक व्यावहारिक, आनुभाविक, विद्याथी-केन्द्रित और अन्तरानुशासनिक विधाओं में निपुण बना सकें। यह जरूरी पहलकदमी है क्योंकि अरसे से यह महसूस किया जा रहा है कि समुचित एवं सर्वोचिंत संज्ञान-बोध, परामर्श और संवाद-सम्पर्क के लिए भारतीय शिक्षा पद्धति में आमूल-चूल बदलाव अत्यावश्यक है। गुणवत्तापूर्ण एवं वैश्विक नेतृत्व योग्य अध्ययन-अध्यापन की प्रणाली हमेशा हमारी प्राथमिकता में रहे हैं; विशेषत: भारतीय भाषाओं ने पूरी दुनिया में अपनी सर्वश्रेष्ठता सिद्ध किया हैं।

अफसोस! यह सब जानते हुए भी उस परीक्षा के नीति-नियंताओं ने हिन्दी भाषा को बाहर का रास्ता दिखाया और प्रश्न-पत्र सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी में परोस दिए। इस सम्बन्ध में परीक्षा-पूर्व ही मैंने एक ई-मेल किया था लेकिन किसी ने उस पर कान नहीं दिया। ये सब कारामात आजकल भारत में सायास/मंशागत तरीके से हो  रहा है; लिहाजा, हम अपने ही मुल्क में गैरों की तरह अपनी अभिव्यक्ति देने के लिए बाध्य तथा अभिशप्त है। यह जानते हुए कि यह सारा टिटिमा अधिक दिन और चलने वाला नहीं है। भारतीय भाषा अंग्रेजी-वंशवृक्ष की जन्मदात्री-भाषा है।  वे  अपनी भाषाओं को पितृभाषा कहते हैं जबकि हम मातृभाषा कहते हैं। ऐसा इन वजहों से कि भारतीय भाषा पश्चिमी/यूरोपियन भाषाओं की भी मातृभाषा मानी जाती रही हैं। यही नहीं आप श्रमपूर्वक अनुसन्धान करें और वस्तुनिष्ठ विश्वश्लेषण के पश्चात किसी ठोस निष्कर्ष पर पहुंचे तो यह बात अपनेआप सिद्ध हो जाएगी। सुकरात, प्लेटो, अरस्तू तक के दर्शन में भारतीय दिक्-भूगोल और ज्ञान-मीमांसा का छाप पड़ा हुआ है। अंग्रेजीभाषी पश्चिमी जन ज्ञानोदय को औद्योगिकी-प्रौद्योगिकी के लिहाफ़ में अर्जित करते हैं; जबकि हम भारतीयों ने इसका संरक्षण ज्ञानात्मक-संवेदन और संवेदनात्मक-ज्ञान की अंतःसृजन व समिधा द्वारा संभव किया है।

शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

अपने बच्चों के शिक्षक/शिक्षिका के नाम ख़त



हवा के इस विपरीत रूख को देखते हुए ही मैंने अपने बच्चों को उन कतरनों से दूर रखा है जो मुझे बेइंतहा पीड़ा देते हैं; दर्द को असहनीय और गहरा बनाते हैं। मैंने अपना अधिकांश जीवन जिन चीजों में नष्ट(?) किया उसे देखकर कभी मुझे ग्लानी नहीं हुई; लेकिन जब उनको ही मेरे बेकार/बेरोजगार होने का जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है तो भारी तकलीफ़ होती है। वह वह समय था जब मैं मैट्रीक यानी हाईस्कूल पास किया था। इस दुनिया के बारे में हमारी समझ बौनी थी लेकिन विचार कुंठित नहीं थे। हम 16 वर्ष की अवस्था में चारित्रिक मूल्य एवं नैतिक निष्ठा का अर्थ-आशय समझते थे। आज उसी राह के सिरे पकड़े हम और हमारी सोच कूड़ा-करकट हो गए हैं। अपनी लिखी दर्जनों कहानियों के शब्द, भाषा, विचार और अर्थ मुझे काट खाने को दौड़ते हैं; क्योंकि वे अब मेरे मस्तिष्क के कोने-अंतरे से गायब हो चुकी हैं; सायास उन्हें विस्मृत कर चुका हूँ। पुरानी कागज की कतरने न संजोने/सहेजने के कारण लापाता हो गई हैं...और हम भी अपने भीतर अपनी मौत मर रहे हैं; जबकि सारी दुनिया जगमग-जगमग कर रही है। लिहाजा, ज़िदगी की व्यावहारिकता मुझे यह छूट नहीं देगी कि जो अब तक हमारे लिए ‘यूटोपिया’ ही साबित होता रहा है; उसके लिए अपने बच्चों को खेत हो जाने की सीख अथवा तालीम दूं।


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आदरणीय शिक्षक/शिक्षिका

यह ख़त हिन्दी भाषा में है। वह भी तब जब मेरे बच्चों के ‘टेक्सट बुक’ में अंग्रेजी शब्दों के अर्थ तक हिन्दी में नहीं मौजूद है। वे अंग्रेजी की शब्दावली में ही अर्थों का आइस-पाइस खेलते हैं; असेरी का पसेरी मायने बताते हैं। हम ऐसे नहीं पढ़े हैं, अतः ज्ञान का यह नया उबटन थोड़ा अजीबोगरीब लगता है। मैं जानता हूँ इस बारे में आश्चर्य व्यक्त करने की भी मनाही है क्योंकि आधुनिक समाज में इसे ख़ालिस भारतीयों का पिछड़ापन मान लिया गया है। समय तेजी से बदल रहा है। अब नरेन्द्र मोदी माफ़िक राजनीतिक गुरु हमारे भाग्य विधाता हैं जिनका भारी जोर सबकुछ पेपरलेस करने अथवा डिजिटल बनाने पर है। रचाव-बनाव की इसी प्रक्रिया में मैंने अपने बच्चों को आपके विद्यालय में सुपूर्द किया है। आशा है, जिस ओर ज़माने की हवा है उधर की ओर अपनी नाक करने की सीख आप मेरे बच्चों को दे रहे होंगे।

प्रिय शिक्षक/शिक्षिका, मेरे बच्चों को आप बता रहे होंगे कि पैसा कमाना हर सूरत में जरूरी है। यह भी बताना आप नहीं भूलते होंगे कि दुनिया में कोई ऐसी जगह नहीं है जहाँ बीमार, गरीब, भूखे, नंगे, पीड़ित, लाचार, बेबस जैसे लोग न हो। अतः  प  उन्हें यह सख़्त हिदायत दे रहे होंगे कि दुनिया को बदलने का ख़्वाब देखने से अच्छा है कि खुद की ज़िन्दगी बदल ली जाए। आज ज़माने का मिज़ाज ही कुछ ऐसा है कि मेरे बच्चे फादर्स डे, मदर्स डे, टीचर्स डे मनाना या कहें सेलीब्रेट करना अपनी आज़ादी का सबसे बड़े जश्न में शामिल होना मान लेंगे।

लेकिन एक सच बताऊँ...जबकि इस बात पर आपसब मेरी ‘बाबा जी का ठुल्लू’ टाइप हँसी उड़ा सकते हैं; अपने समय में मैंने दुनिया को बनाने का हसीन सपना देखा था। हम अपनी उम्र में स्वयं के भीतर एक मूल्य रोप रहे थे अपनी समाज ख़ातिर; उसी की चिंता में रात-दिन घुल रहे थे, विचारों की दुनिया में मर-खप और पंवर रहे थे; आज हमारी दशा बुझे जलावन की राख जैसी हो गई है। आज हम अपनी कीमत में ‘प्राइस-लेस’ हैं; जबकि अपनी मौज में रहने वाले हमारे ही साथी गाड़ी-बंगलों  साथ इंतमिनान की रोटी तोड़ रहे हैं। वे साफ़ कहते हैं कि आज की दुनिया उसी की सुनती है जिसके पास दुनिया को दिखाने के लिए कुछ हो; फ़कीरों के आदर्श कभी कोई उदाहरण नहीं बनते हैं। उन सबका यह भी कहना है कि मोदी जी की तरह ऐसा 'मास्टरपीस' बनो कि जो राजनीतिक अर्थों में तय गरीबी-रेखा की परिधि में नंगा/अधनंगा है वह भी फ़िदा हो; और जिसके भीतरी-बाहरी आचरण-व्यवहार में नंगई कूट-कूट कर भरी हो; वह भी मुसकाना न भूले। मेरा अपना मूल्यांकन तो यह है कि मोदी जी यदि श्रीगणेश जी के लिए रोज मोदक-लड्डू बनाना शुरू कर दें और उसका लाइव-टेलीकास्ट संभव(भारत में कुछ भी होना असंभव नहीं है) करा दिया जाये, तो जनता के अच्छे दिन यों ही पूरे आ जाएंगे। वैसे  भी गणेशपूजक जनता अमीर अथवा संपन्न होना कहाँ चाहती है? आप वोट कराके देख लीजिए, सिविल सोसायटीयन इस जनता(नई पीढ़ी) को तो बस स्मार्ट फोन, एलईडी टीवी, ओ.एल.एक्स. टाइप आसानी से सामान बेचू साइटों का नाम पता, अच्छी सड़के, बुलेट ट्रेन, ए.सी. कमरे, बिग बाज़ार, मल्टीप्लेक्स सिनेमा....भर चाहिए। जबकि बहुसंख्यक भारतीय जनमानस का जनमत मास-कम्युनिकेशन की शब्दावली में ‘स्पाइरल आॅफ साइलेंस’ के हवाले है।

अतः हवा के इस विपरीत रूख को देखते हुए ही मैंने अपने बच्चों को उन कतरनों से दूर रखा है जो मुझे बेइंतहा पीड़ा देते हैं; दर्द को असहनीय और गहरा बनाते हैं। मैंने अपना अधिकांश जीवन जिन चीजों में नष्ट(?) किया उसे देखकर कभी मुझे ग्लानी नहीं हुई; लेकिन जब उनको ही मेरे बेकार/बेरोजगार होने का जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है तो भारी तकलीफ़ होती है। वह वह समय था जब मैं मैट्रीक यानी हाईस्कूल पास किया था। इस दुनिया के बारे में हमारी समझ बौनी थी लेकिन विचार कुंठित नहीं थे। हम 16 वर्ष की अवस्था में चारित्रिक मूल्य एवं नैतिक निष्ठा का अर्थ-आशय समझते थे। आज उसी राह के सिरे पकड़े हम और हमारी सोच कूड़ा-करकट हो गए हैं। अपनी लिखी दर्जनों कहानियों के शब्द, भाषा, विचार और अर्थ मुझे काट खाने को दौड़ते हैं; क्योंकि वे अब मेरे मस्तिष्क के कोने-अंतरे से गायब हो चुकी हैं; सायास उन्हें विस्मृत कर चुका हूँ। पुरानी कागज की कतरने न संजोने/सहेजने के कारण लापाता हो गई हैं...और हम भी अपने भीतर अपनी मौत मर रहे हैं; जबकि सारी दुनिया जगमग-जगमग कर रही है। लिहाजा, ज़िदगी की व्यावहारिकता मुझे यह छूट नहीं देगी कि जो अब तक हमारे लिए ‘यूटोपिया’ ही साबित होता रहा है; उसके लिए अपने बच्चों को खेत हो जाने की सीख अथवा तालीम दूं।

प्रिय शिक्षक/शिक्षिका, यह भी सचाई है कि आपसब की मार्गदर्शन में मेरे बच्चे इसी तरह पढ़ते-लिखते रहे, तो वे जल्द ही इस काबिल बन जाएंगे कि मुझे अपनी भाषा में पागल समझने लगें या कि हमारी आलोचना करने लगें, नीचा दिखाने लगें...क्योंकि आपसब उसकी निर्मिति काल में जिस भाषा को सबसे कमत्तर आंक रहे हैं....वह हमारी मातृभाषा है जो भीतरी संस्कार विकसित करने के लिए सामाजिक वातावरण-परिवेश का अवलम्ब अधिक लेती रही है; सरकारी नियामक इस कार्य के लिए सर्वथा अक्षम साबित होते रहे हैं। वैसे भी हिन्दी भाषा के जो अकादमिक/सांस्थानिक करमधार हैं उन्हें इसकी रोटी खाते और गाल बजाते हुए देखा जा सकता है। भाषा की तीमारदारी में जुटे ऐसे नामचीन और झंडाबदार लोग नौकरी लगते ही  बंगला-गाड़ी की व्यवस्था में भीड़ जाते हैं;जिनके घरों के दीवारों के रंगरोगन मात्र लाखों में होते हैं; तो बाथरूम शीशमहल जैसा आलीशान होता है। उनकी नवगढ़ित भाषा में ज्ञान का अर्थ ही है-वास्तविक जीवन का गौण होना; जबकि जीवन से जुड़ी  वेराइटियों/फ्लेवरों का विविध होना। आज ‘वैरिएशन आॅफ टेस्ट’ बहुत है लेकिन अपनी भाषा में खुद को अभिव्यक्त करने योग्य शब्दावली की आवश्यकता/औचित्य एकदम नगण्य।

प्रिय शिक्षक/शिक्षिका, हम अपनी भाषा के भगौड़े नहीं हैं; लेकिन हमारी उपस्थिति का अर्थ भविष्यसूचक नहीं है। हम अपनी भाषा से बहिष्कृत ऐसे लोग हैं जिन पर ठेठ गंवारूपन तारी है। हम जातीय-वर्चस्व की सामन्तदारी रवायतों का मुखालफ़त  करने वाले लोग हैं। हम जानते हैं कि शंतरंज के खेल में चैपड़ बिछे मोहरों संग चाहे जितनी मार-काट और हिंसा-हत्या का नृशंस खेल क्यों न खेल लिया जाए, यह जुर्म या संगीन अपराध की किसी परिभाषा में बासबूत नहीं आ सकते हैं। आज संस्कृति, कला, साहित्य, राजनीति, अर्थ-जगत, वैश्विक बाज़ार आदि में यही खेल हर रोज खेला जा रहा है। आम-अवाम की ज़िदगी की भाषा के अर्थ-अभिव्यक्ति का स्वर-ध्वनि छिना जा चुका है; वह जो बोल रही है उसे कहीं कोई दर्ज नहीं कर रहा है और जो उन तक आ रहा है उसमें उनकी कोई उपस्थिति अथवा अहमियत नहीं है। आज भाषा नियोजन की प्रबंधकीय शब्दावली में हम विक्षिप्त मालूम दे रहे हैं, या हम पर न्युगी वा थ्योंगे की मानसिकता हावी होने का जुनून चस्पा है। निश्चय ही हम अपने बच्चों के साथ ताज़िन्दगी नहीं रहेंगे; लेकिन आपसब हमारी बच्चों के भविष्य की क्या गारंटी ले रहे हैं; यह जानने का इस समय तो हमें पूरा अधिकार हैं ही? आशा है, इस आशय से सम्बन्धित आप अपना स्पष्टीकरण हमें जरूर देंगे। हम आतुर मन से प्रतीक्षा करेंगे।
सादर,

आपका विश्वासभाजन,
एक सहृदय पिता
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