मंगलवार, 28 मार्च 2017

मनुष्य : आर्जीव के शब्दकोश से


कुछ वर्षों से किताबे अधिक पढ़ने-लिखने से हजारों शब्द बटोरा गया हैं। आपके लिए शब्दों का गुलदस्ता।
राजीव रंजन प्रसाद
सहायक प्रोफेसर, हिंदी विभाग
राजीव गाँधी विश्वविद्यालय
रोनो हिल्स, दोईमुख
पिन: 791112


मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक इत्यादि सभी क्षेत्रों में अपनी भूमिका निवर्हन करना उससे अपेक्षित-आकांक्षित है। मनुष्य की अंतःबाह्य चेष्टाओं अथवा मनोवृत्तियों के दो स्वरूप हैः  व्यक्तिगत स्वरूप यानी स्वतन्त्र सत्ता का प्राधान्य और सामाजिक स्वरूप यानी समुदाय या संसृष्टि का हिस्सा। मनुष्य के उद्भव एवं विकास की बात करें, तो वैज्ञानिकों का अनुमान है कि पृथ्वी की आयु लगभग चार अरब सत्तर करोड़ साल है। लेकिन पृथ्वी पर जीवन के लक्षण तीन अरब साल से मिल रहे हैं। इसीलिए एक अरब सत्तर करोड़ वर्षों का ज़माना जीवन-विहीन युग कहलाता है। जीवन के प्रारंभिक लक्षण तब मिलने शुरू हुए जब भू-वैज्ञानिकों तथा जीवाश्म वैज्ञानिकों ने कहीं नम रेत पर नन्हें-मुन्हें कीड़ों के रेंगने का निशान देखा, कहीं पथराई सीपियाँ नज़र आईं। वैज्ञानिक भाषा में इसे ‘ट्राइलोबाइट’ युग कहा गया जो अपने युग में जीवों के सर्वाधिक विकसित रूप थे। ध्यातव्य है कि जीवन के प्राारंभिक रूपों से जल-स्थलीय जीवों के उत्थान तक का युग लगभग तीस करोड़ साल तक चलता रहा। इस युग को प्रारंभिक जीवन का युग कहते हैं। इस युग के अंतिम चरण में जल-स्थलीय जीवों की एक शाखा का नाता जल से टूट गया और वे पूरी तरह से स्थलीय जीव बन गए। मूनिस रज़ा अपनी पुस्तक ‘आदमीनामा’ में कहते हैं, ‘‘यह बड़ा युगांतकारी परिवर्तन था। जिंदगी पानी में पैदा हुई, इसीलिए पानी उसकी घुट्टी में पड़ा है।’’ इस प्रकार पानी से अलग रहने की क्षमता प्रदान करने के लिए जिंदगी को करोड़ो वर्ष लग गए। विकास के इस लम्बे सिलसिले के परिणामस्वरूप रेंगने वाले जीव अस्तित्व में आए। फिर भारी-भरकम स्थलीय जीवाकृति दिखने लगे। कुछ का दख़ल ज़मीन एवं पानी के भीतर भी समान रूप से दिखाई देता है। इस तरह पृथ्वी पर इन रेंगने वाले विशालकाय प्राणियों का युग 13 करोड़ वर्षों तक निर्विघ्न चलता रहा। यह युग जीवन का ‘मध्य युग’ कहलाता है। इसके बाद वर्तमान जीवन-युग का शुभारंभ होता है जिसे वैज्ञानिकों ने ‘सीनोजोइक काल’ कहा है। यह दूध देने वाले स्तनधारी प्राणियों का युग है। इस युग के भी कई चरण बीते लेकिन मनुष्य का आविर्भाव कहीं देखने को नहीं मिला। विकास-क्रम के छठे चरण यानी ‘प्लीस्टोसीन काल’ में पृथ्वी पर मानव के पदचिह्न दिखाई पड़ने लगे। इस युग को वैज्ञानिक ‘हिम युग’ भी कहते हैं क्योंकि प्लीस्टोसीन काल में एशिया और यूरोप का बहुत बड़ा भाग बर्फ़ीले प्रदेशों में परिवर्तित हो गया था। ग्लेशियर पहाड़ों से उतरकर मैदानों में पहुँच गए थे। धरती पर उज्ज्वल बेदाग फ़र्श बिछा था। उसके बाद कई तरह के मौसमी परिवर्तन हुए; कुदरती झंझावतों से दो-चार होना पड़ा; लेकिन अंततः मनुष्य ही विजित घोषित हुआ क्योंकि उसे दुनिया का सबसे बुद्धिमान प्राणी होने का संयोग प्राप्त था। उसके पास अपरिमित क्षमता एवं आन्तरिक गवेषणा-शक्ति से परिपूर्ण मस्तिष्क था जो सोच-विचार कर सकता था; परिस्थितियों के अनुरूप निर्णय कर सकता था। यह सच है कि जो व्यक्ति निर्णय कर सकता है उसे अपने समूह, प्रजाति अथवा देशकाल का नेतृत्व भी करना होता है। प्रकृति उसे यह प्राधिकार सौंपती है कि वह नवीन विचारों से लैस होने की कोशिश करे; कार्य-कारण-सम्बन्ध स्थापित करते हुए अपनी चेतनागत प्रवृत्तियों का विकास करे; वह उन रूढ़ियों एवं प्रथाओं का समूल नाश करे जो उसकी शाश्वत विकास परम्परा में अवांछित ढंग से जगह छेंके हुए है। वह हर अदृश्य जानकारी को मूत्र्तमान करे जो प्रकृति के गर्भ में छुपा है किन्तु मनुष्य के लिए अब तक रहस्यमयी बना हुआ है। इन्हीं सब विशेषताओं और दिमागी क्षमताओं के कारण हमारे वैदिक ऋषियों ने कहा है, ‘‘मनुते इति मनुष्यः’। अतएव, यह कहना समीचीन होगा कि भारत में आदिम आखेटक संस्कृति से पशुपालन; पशुपालन से कृषि; कृषि से नगर संस्कृति तक की यात्रा सीधी रेखा में नहीं हुई है बल्कि एक वृक्ष के रूप में है। नगर संस्कृति जिसे महा-संस्कृति कहते हैं ग्राम-संस्कृति से प्रभावित हुई है और ग्राम-संस्कृति जिसे छोटी या क्षेत्रीय संस्कृति कहते हैं नगर संस्कृति से प्रभावित हुई है। इस देश में लोक और शास्त्र के आदान-प्रदान के प्रमाण वैदिक वांङमय से ही मिलने लगते हैं। इस प्रकार यह आज के जीवन-समय की महती जवाबदेही बनती है कि वह यह जानने का अनुसन्धानपरक प्रयास करे कि आदिम मनुष्य प्रकृति के साथ किस प्रकार जुड़ा था और अपने आस-पास के जीवन से साक्षात्कार की उसकी क्या प्रक्रिया थी? उसकी मूल आदिम वृत्तियों (भय, भूख, काम) में से कौन-सी वृत्ति प्रबल थी और उस वृत्ति की अभिव्यक्ति के लिए किस प्रकार के कलात्मक माध्यम का वह प्रयोग करता था? इसकी जाँच हो। इसके साथ ही जिस प्रकार ऐतिहासिक भाषा-विज्ञान में मूल रूप के प्रत्याकलन से न केवल भाषा की निरन्तरता और परिवर्तनशीलता की जाँच होती है, प्रत्युत उसकी उस संस्कृति की भी और उस संस्कृति में निहित वैचारिक प्रक्रिया की विकास यात्रा की भी जाँच आसान हो जाती है। अतएव, उत्पादन एवं भोग की भूमण्डलीकृत संस्कृति का उपभोक्ता होने मात्र से मनुष्य होने की सार्थकता पूर्ण नहीं हो सकती है। आज के समय की माँग दूसरी है, इसे समझने की जरूरत है। क्रांतिधर्मी चेतना के नायक चे ग्वेरा का कहना था, ‘‘मनुष्य को खिलाना और पहनाना यदि असल समस्या है, तो कोई भी पूँजीवादी सरकार इसे आराम से कर सकती है। पर असल समस्या है-‘नया मनुष्य बनाना’। ‘नया मनुष्य’ नहीं बनेगा, तो फिर समाज का कोई लाभ नहीं होगा। ऐसा इसलिए भी कि कार्ल माक्र्स तथा परवर्ती यथार्थदर्शी यह सिद्ध कर चुके हैं कि पदार्थ से लेकर समाज तक प्रत्येक वस्तृ और मानव-प्रकृति के अध्ययन का एक ही तरीका है असंगतियों को समझो और समझने के बाद उनका उन्मीलन करो।

शुक्रवार, 23 जनवरी 2015

आफ़रीन: जो बुतखाने की देवी नहीं, प्रतिरोध की चेतना है!

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स्कूल का एनुअल-फंक्शन मन रहा था। आफ़रीन का क्रम भाषण-प्रतियोगिता में एकदम आखिर पर था। स्कूल आॅडेटोरियम के उस खचाखच भरे वातावरण् में आफ़रीन ने जैसे ही अपनी ज़ुबान खोली, तो पहला शब्द था-‘‘आदाब वर्जे!’

फिर आफ़रिन की लहर पूरे हाॅल में सरमाया होती चली गई। वह जब रूकी, तो इस इल्तजे के साथ:

‘‘तू ख़ुदा हो जा, पैगम्बर हो जा,
अल्लाह, मौला, फ़रिश्ता हो जा
लेकिन ओ परवरदिगार के बंदे
आ सबसे पहले इंसा...हो जा।’’

आफ़रीन की आवाज, कद-काठी और नाक-नक्शे; उसके हर एक मनोभाव को खूबसूरत रंग-रंगत देते थे। उसकी हर एक अदा और हरकत पर रीझने का जी करता था। तेरह साल की आफ़रीन की मासूमियत उसके चेहरे से बरती थी और आवाज़ की खनक मात्र से स्कुल गुलज़ार हो जाया करता था।

आफ़रीन शहर से 8 किलामीटर दूर स्थित अपने गांव इवाना से यहां पढ़ने आती थी। उसके लिखे अक्षर गोल-गोल और खूबसूरत नाक-नक्काशी के होते थे। वह बड़ी हो रही थी, यह उसके लिए चिंता का विषय नहीं था। लेकिन सड़क के मर्दों के लिए यह निहायत दिलचस्पी का मामला था। जो आफ़रीन को राह चलते बिलावज़ह घूरते, तो कई बार जान-बूझकर छेड़ने लगते थे। आफ़रीन गांव की थी, लेकिन वह ऐसी-वैसी नज़र से देखने-घूरने वालों के साथ यदि उलझ जाती, तो पानी पिला देती थी।

किशोर आफ़रीन अख़ाबार पढ़ती थी, लेकिन लड़कियों के साथ होने वाले व्यभिचार, अत्याचार, दुष्कर्म की घटनाओं और लड़कियों पर बढ़ते जोर-जुल्म से खौफ़ नहीं खाती थी। उसे हमेशा लगता था कि उसके भी दो हाथ है; और कुछ नहीं तो मुकाबला करने के लिए ये बाजू क्या कम दमखम वाले हैं?.....

शनिवार, 27 दिसंबर 2014

कृपया मेरी मदद करें : Please Help me



परआदरणीय महोदय/महोदया,
सादर-प्रणाम!

मेरा शोध-कार्य संचार और मनोभाषाविज्ञान के अंतःसम्बन्ध पर है। मैं युवा राजनीतिज्ञों के संचारक-छवि और लोकवृत्त के अन्तर्गत उनके व्यक्तित्व, व्यवहार, नेतृत्व, निर्णय-क्षमता, जन-लोकप्रियता इत्यादि को केन्द्र में रखकर अनुसन्धान-कार्य में संलग्न हूं। मैंने अपने व्यक्तिगत प्रयास से अपने शोध-विषय के लिए हरसंभव जानकारी जुटाने की कोशिश की है। जैसे मनोविज्ञान के क्षेत्र में सैकड़ों मनोविज्ञानियों, मनोभाषाविज्ञानियों, संचारविज्ञानियों, समाजविज्ञानियों, राजनीतिविज्ञानियों, नृविज्ञानियों आदि को अपनी जरूरत के हिसाब से टटोला है, जानने-समझने की कोशिश की है। लेकिन भारतीय सन्दर्भों में ऐसे अन्तरराष्ट्रीय जानकारों-विशेषज्ञों का मेरे पास भारी टोटा है। अर्थात जितनी आसनी से हम कैसिरर और आई. ए. रिचर्डस का नाम ले लेते हैं; फूको, देरिदा, एडवर्ड सईद, ज्यां पाॅल सात्र्र को अपनी बोली-बात में शामिल कर लेते हैं वैसे हिन्दुस्तानी ज्ञानावलम्बियों(जिनका काम उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी में उल्लेखनीय रहा है और जिन्हें भारतीय अकादमिक अनुशासनों में विषय-विशेषज्ञ होने का विशेषाधिकार प्राप्त है) की हिन्दीपट्टी में खोज बहुत मुश्किल है। ऐसे में मुझ पर यह आरोप आसानी से आपलोग मढ़ सकते हैं कि मेरी निर्भरता मनोविज्ञान को समझने के लिए फ्रायड, एडलर, युंग, नाॅम चाॅमस्की पर अधिक है; भारतीय जानकारों-विशेषज्ञों पर कम। इसी तरह अन्य विषय अथवा सन्दर्भों में भी आपलोग यही बात पूरी सख्ती से दुहरा सकते हैं। अतः अपने शोध-कार्य की वस्तुनिष्ठता प्रभावित न हो इसलिए मैं आपको अपने शोध-कार्य में एक सच्चे शुभचिंतक के रूप में शामिल कर रहा हूं। आप के सहयोग पर हमारी नज़र है। कृपया आप मेरी मदद करें और सम्बन्धित जानकारी निम्न पते पर प्रेषित करें: rajeev5march@gmail.com या फिर डाक से उपलब्ध करायें: राजीव रंजन प्रसाद; हिन्दी विभाग; काशी हिन्दू विश्वविद्यालय; वाराणसी-221005

आप मेरे कार्य-क्षेत्र के दायरे में इज़ाफा कर सकें इसी प्रत्याशा में;
सादर,


भवदीय
राजीव रंजन प्रसाद


मंगलवार, 11 नवंबर 2014

पासआॅउट कैरेक्टर : अब तक जो जिया

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उस बड़े से हाॅल में कई मानिंद लोग बैठे हैं। मैं प्रतीक्षारत हूँ। यह अख़बार का दफ़्तर है। मुझे किसी कबूतरखाने से कम नहीं लग रहा है। पता नहीं कैसे इस माहौल में जीते-खाते हुए लोग जन-सरोकार की पींगे भरते हैं, सामाजिक दृष्टिकोण से पगे हुए वैचारिक लेख लिखते हैं....? ओह! मैं इसी उधेड़बुन के साथ दो बार कैंटीन का चाय गटक गया हूँ। अब तीसरे का इरादा नहीं है। ये डोरी टंगी चायपति वाली चाय देते हैं। हाथ लगी चाय को डोरी के सहारे ऊपर-नीचे करना अजीबोगरीब लगता है। लेकिन, कम्बख़त तलब ही ऐसी है कि ज़ल्लाद वाली भूमिका का भी निवर्हन करना पड़ता है। आजकल शहर में सबकुछ बदले हुए ‘पैटर्न’ और ‘मैनर’ का है। शौचालय तक अपने तरीके का नहीं है। किसी तरह निपटना ही पड़ता है। यह ‘माॅडलाइजेशन’ या कहें ‘माॅडर्नाइजेशन’ देशी मिज़ाज के लोगों को काफी भारी पड़ता है। खैर! पिछले तीन दिन से अपने दोस्त के यहाँ रूका हूँ। वह एक नामचीन अख़बार के वेब-संस्करण में है। कल वह नाइट-शिफ़्ट में देर रात लौटा था। उसके साथ उसकी महिला-मित्र थी। दोस्त ने परिचय कराया, तो उस लड़की ने बड़े लहज़े में ‘हाय!’ कहा था; फिर दोनों कुदक कर एक ही बिस्तर में सो गए। मैं चकित नहीं था; ये आधुनिक पत्रकारिता के भविष्य थे। पुराने ‘टाइप-फेस’ और ‘ले-आउट’ की जगह नए ढंग के डमी-निर्माण में दक्ष/प्रवीण वेबजाॅनी पत्रकार। इनकी दुनिया में ‘सेक्स’ एक शारीरिक जरूरत है जिसके लिए आपसी ‘अण्डरस्टैण्डिग’ होना जरूरी है और काफी भी।

उसी वक्त मुझे युवती रिसेप्सनिस्ट ने नजदीक बुलाया था।

‘‘सर! आप अन्दर जा सकते हैं...,’’ उसकी आवाज़ में खनक भरी मुसकान भी घुली थी।

‘‘याऽ! कम एण्ड सिट डाउन प्लीज!’’ कार्यकारी सम्पादक ने मेरी आवभगत करते हुए कहा था। मुझे अच्छा लगा।

अगली दो पंक्तियों में मैंने अपना परिचय दिया और साथ लाया पोर्टफोलियो आगे कर दिया। अलग से रेज़्यूमे भी उनकी ओर सरका दिया था। अन्दरखाने का माहौल टीप-टाॅप था। सुडौल और नक्काशीदार मेहराबों के साथ बना हुआ एक आधुनिक कमरा, सुसज्जित कक्ष। खिड़कियों में अलग-अलग किन्तु लम्बे-लम्बे कपड़ानुमा टुकड़े लटके थे। कई डोरियाँ भी आस-पास लगी हुई थीं। खिड़की के टुकड़े पोस्टआॅफिस के स्पीडपोस्ट काउंटर के प्रिंटर में लगने वाले कागज की चैड़ाई वाले नाप के थें। कमरे की ढेरों खासियत मैंने पढ़ ली थी। लेकिन, मैं मौन था। इस वक्त जिस शख़्स को बोलना था; मैं उसकी ओर टकटकी लगाए देख रहा था। इतने बड़े अख़बार के नामचीन सम्पादक से मैं रू-ब-रू था; इनके ‘बोल बच्चन’ पर मेरा भविष्य टीका था। 34 साल की उम्र में नौकरी की तलाश कितनी तक़लीफ़देह होती है, यह मेरे आँख में तैर रहा था। वह अनमने भाव से मेरा पोर्टफोलियो पलट रहे थे। मैंने जानबूझकर उस जगह पर अपनी निग़ाह टीका दी थी; लिखा था-‘अमेरिकी इरादों का डीएनए टेस्ट जरूरी’(राजीव रंजन प्रसाद); जबकि इस घड़ी मेरा डीएनए टेस्ट हो रहा था। मुझे उनके भाव पड़ते देर नहीं लगे। उनकी मनोभाषिकी का जो रुख मेरे समझ में आया; वह मज़मून कुछ खास नहीं था।

‘‘आपका रेज़्यूमे रख लेता हूँ, आपको इस बाबत मेल मिल जाएगी। और गुरुजी आपके कैसे हैं? स्वस्थ हैं न! उन्होंने आपके बारे में मुझसे आपकी तारीफ़ की थी; देखिए, मैं आपके बारे में क्या कर सकता हूँ? ओ.के. नाइस डे’’
......................

सम्पादक महोदय के केबिन से निकलते ही देखा, तो मेहरारू ने ताबड़तोड़ 4 काॅल कर डाले थे। मैं उसका नम्बर देखते ही भीतर से सहम गया था। लेकिन हिम्मत कर फोन उठाया और हैलो कहने के बाद समझाने के लहजे में बेलागलपेट कहा था-‘‘क्या हुआ का क्या मतलब! आज भी तो मिला ही हूँ; हर कोई आश्वासन दे रहा है। देखो यार! काम की तलाश में कुछ वक्त तो लगेंगे ही। बच्चों का ख्याल रखना। अबकी बार आता हूँ तो बच्चों का फीस एडवांस में ही तीन महीने का जमा कर दूँगा। मकान किराये का भी कुछ ऐसा ही इंतजाम कर दूँगा। सारी किचपिच दूर हो जाएगी। सुनो, टेंशन मत लो तुम!’’

दरअसल, रिसर्च के दौरान ही मैं अपने पूरे परिवार को बनारस ले आया था। यूजीसी की जेआरएफ-एसआरएफ थी, तो मौज से चली सब ठीक-ठाक। दीपू के कान के इलाज़ में जो खर्च हुआ था; उसे भी मैं बिना किसी दिक्कतदारी का वहन कर ले गया था, तो इसी वजह से कि स्काॅलरशीप मिल रही थी। मैंने कई मित्रों की मदद की थी; आज कई असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। लेकिन वे मेरे लिए कर भी क्या सकते हैं। उनकी अपनी दुनिया है की नहीं-फ्लैट, कार, घर के साज़ो-सामान आदि-आदि। 

कई मर्तबा सोचता हूँ। मेरा नाम डाॅ. राजीव रंजन प्रसाद हो जाना एक गाली है। इससे अच्छा है कि कोई मुझे राजू कहे, रजीबा कहे। ये डाॅक्टरी उपसर्ग बिलावज़ह टंग गया था। नाम में डिग्रियों की नक्काशी करने से आमदनी नहीं होती है; इतना तो मैं उस वक्त भी जानता था और इस वक्त भी जान रहा हूँ। काशी हिन्दू विश्वविद्यालये के जिस शोध-प्रबन्ध को तैयार करने में मैंने अपने जीवन का सारा सुख-चैन दाँव पर लगा दिया था; आज वे धूल के हवाले हैं। कई अकादमिक इंटरव्यू दिए, सब एक ही बात  दुहराते हैं-‘‘मेकअप इन इंग्लिश प्लीज!’ मैं अपना-सा मुँह ले कर रह जाता था।......

शनिवार, 8 नवंबर 2014

Indian Youth : Reflection of Actual Meaning, Perception and Expression

Y for Yew
O for Outvote
U for Unite
T for Trait
H for Helpfull
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Paper presented by
 Rajeev Ranjan Prasad
Senior Research Fellow(Mass Communication & Journalism)
Functional Hindi, Dept. of Hindi
Banaras Hindu University
Varanasi-221 005
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Contact : rajeev5march@gmail.com 
 
नोट: हमारे काम का तरीका इस बात पर निर्भर करता है कि हमें आगे बढ़ने का हौसला कौन दे रहा है, हिम्मत कौन बंधा रहा है और हमसे अपनी उम्मीद कौन बांध रहा है....अफसोस! हमारे मौजूदा अकादमिक जगत में इतना बेहायापन है कि आपको सिवाय रुसवाई के कुछ भी नसीब नहीं। हमारे काम तक को कौड़ियों के भाव लगाते हैं, क्योंकि हम अपनी हिन्दी भाषा में अपने होने का राग छेड़ते हैं, औरों को सीधी चुनौती देते हैं।
आपसब भी बहस-मुबाहिसे के लिए सादर आमंत्रित हैं!-राजीव रंजन प्रसाद

Political Mythology about Indian Youth : पूरा झूठ, पूरा फ़साना

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Paper presented by
 Rajeev Ranjan Prasad
Senior Research Fellow(Mass Communication & Journalism)
Functional Hindi, Dept. of Hindi
Banaras Hindu University
Varanasi-221 005
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Contact : rajeev5march@gmail.com

Permutations-Combinations of Indian Youth : Inner Base and Core Structure of 21st Centuary Life-Span

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Paper presented by
 Rajeev Ranjan Prasad
Senior Research Fellow(Mass Communication & Journalism)
Functional Hindi, Dept. of Hindi
Banaras Hindu University
Varanasi-221 005
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Contact : rajeev5march@gmail.com