शुक्रवार, 23 जनवरी 2015

आफ़रीन: जो बुतखाने की देवी नहीं, प्रतिरोध की चेतना है!

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स्कूल का एनुअल-फंक्शन मन रहा था। आफ़रीन का क्रम भाषण-प्रतियोगिता में एकदम आखिर पर था। स्कूल आॅडेटोरियम के उस खचाखच भरे वातावरण् में आफ़रीन ने जैसे ही अपनी ज़ुबान खोली, तो पहला शब्द था-‘‘आदाब वर्जे!’

फिर आफ़रिन की लहर पूरे हाॅल में सरमाया होती चली गई। वह जब रूकी, तो इस इल्तजे के साथ:

‘‘तू ख़ुदा हो जा, पैगम्बर हो जा,
अल्लाह, मौला, फ़रिश्ता हो जा
लेकिन ओ परवरदिगार के बंदे
आ सबसे पहले इंसा...हो जा।’’

आफ़रीन की आवाज, कद-काठी और नाक-नक्शे; उसके हर एक मनोभाव को खूबसूरत रंग-रंगत देते थे। उसकी हर एक अदा और हरकत पर रीझने का जी करता था। तेरह साल की आफ़रीन की मासूमियत उसके चेहरे से बरती थी और आवाज़ की खनक मात्र से स्कुल गुलज़ार हो जाया करता था।

आफ़रीन शहर से 8 किलामीटर दूर स्थित अपने गांव इवाना से यहां पढ़ने आती थी। उसके लिखे अक्षर गोल-गोल और खूबसूरत नाक-नक्काशी के होते थे। वह बड़ी हो रही थी, यह उसके लिए चिंता का विषय नहीं था। लेकिन सड़क के मर्दों के लिए यह निहायत दिलचस्पी का मामला था। जो आफ़रीन को राह चलते बिलावज़ह घूरते, तो कई बार जान-बूझकर छेड़ने लगते थे। आफ़रीन गांव की थी, लेकिन वह ऐसी-वैसी नज़र से देखने-घूरने वालों के साथ यदि उलझ जाती, तो पानी पिला देती थी।

किशोर आफ़रीन अख़ाबार पढ़ती थी, लेकिन लड़कियों के साथ होने वाले व्यभिचार, अत्याचार, दुष्कर्म की घटनाओं और लड़कियों पर बढ़ते जोर-जुल्म से खौफ़ नहीं खाती थी। उसे हमेशा लगता था कि उसके भी दो हाथ है; और कुछ नहीं तो मुकाबला करने के लिए ये बाजू क्या कम दमखम वाले हैं?.....